Thursday, February 28, 2013

प्लास्टिक के पेड


प्लास्टिक के पेड
ब्रजेश कानूनगो

फिल्मों में देखे पेरिस या सिंगापुर सा
लगता है चौराहा रात को  

रोशनी के पेड जगमगाते हैं
चमकते हैं रंगबिरंगे फूल और पत्तियाँ
इन्द्रधनुष पसर जाता है चौराहे के आसपास

सांझ के उल्लास और रात के यौवन की पोल
खुलती है सूरज के उजाले में
गमगीन नजर आते हैं प्लास्टिक के पेड
शोकसभा में उपस्थित लोगों की तरह

खामोश फव्वारे के जलकुंड में तैरती हैं उदास बतखें

महसूस नहीं करती कोई सिहरन
हरे,पीले,केसरिया और लाल पत्तों को छूकर गुजरती पुरवाई
सूखी पत्तियों का संगीत गूंजता नही हवाओं के साथ
कोंपलों के जन्म का सुख कभी महसूस ही नही होता
इन अभागे पेडों को

तितलियाँ कर लेती हैं दूर से किनारा
और कोयल तो चली गई है किसी बियाबान में

टपकती थी कभी मिठास खजूर से
ऊंचे पेड पर अब चमकते हैं फल
चमकते हैं जैसे बाजार के ग्लोसाइन बोर्ड

चलन के मुताबिक
सजता है बाजार रात के अन्धेरे में
नगरवधुओं की तरह तरोताजा होकर
दु:खों को रोशनी के मेकअप से छिपाते हुए
प्रस्तुत होते हैं प्लास्टिक के पेड। 

           



2 comments:

  1. बढिया कविता और बडा ही रोमांचक शीर्षक है सर

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