सभागार
ब्रजेश कानूनगो
कविता की पंक्तियाँ गूँजती
है जिस वक्त
कहीं किसी कोने में कुमार
गन्धर्व के स्वर
और यासीन खाँ की जलतरंग की
ध्वनि को भी
महसूस करता है सभागार
बिरजू महाराज की थिरकन से
स्पन्दित है सभागार का धरातल
गुलाब और गुलदावदी की बहार
बिखरी है कई बार यहाँ
स्वागत के फूलों की सुगन्ध
और बिदाई की नमी
मौजूद है सभागार में
बहसों के घमासान में चली
गोलियों के निशानों से
छलनी है सभागार की दीवारें
न जाने कितने हुसैनों की
कूँचियों ने
कोशिश की है घावों को
मिटाने की भरसक
प्रहसनों के बीच हँसा है
तो तीजन बाई के साथ रोया है
सभागार
पता है उसे बाजीगरों की
सफाइयाँ
और राजनेताओं की चालाकियाँ
भी
कठिन सवाल हल किए गए हैं
यहाँ
सहज प्रश्नों को बनाया गया
है दुसाध्य
दान किए अधिकारों की गणना
के बाद
घोषित किया देश का भविष्य
यहाँ से
सभागार को पता है कि
राष्ट्र नायकों की ललकारों
और संतों की वाणी ने
जगाया है यहाँ कितने लोगों
को
इतनी लचीली है सभागार की
प्रकृति
कि घंटे-घंटे में बदल जाती
है उसकी धडकन
यह बहुत अच्छा है कि सभागार
मनुष्य नहीं है
भूलने-बदलने और मिटा देने
का अवसर नहीं है उसके पास।
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