Saturday, June 28, 2014

सर्वव्यापी है ‘व्यापम’

सर्वव्यापी है ‘व्यापम’
ब्रजेश कानूनगो

हमेशा से कहा जाता है रहा है कि हमारे यहाँ कि ‘कण-कण में भगवान’ बसा होता है। भगवान सूक्ष्म रूप धर कर अणु-परमाणु प्रवेश के जरिए जल,थल, वायु सभी में अपनी उपस्थिति बनाए रखते हैं। उनकी विराटता तभी दिखाई पडती है जब वे स्वयं उसका प्रदर्शन करते हैं। महाभारत के मैदान में जब अर्जुन को इस दर्शन का लाभ मिला, तो संसार को गीता का महान दर्शन मिला था।  

अब ऐसा कठिन समय आ गया है जब भगवान अपने कणों और परमाणुओं के निवास में कुछ तत्वों की घुसपैठ की समस्या से जूझ रहे हैं। एक संघर्ष सा छिडा हुआ है। आदर्श जीवन मूल्यों और सदाचार की सम्पदा को बचाए रखना बहुत कठिन हो गया है। ऐसा नही है कि शत्रु ने आज ही सिर उठाना शुरू किया है, लेकिन अब उसने समाज की परम्परागत अच्छाइयों पर हमला बोलने के लिए अपना भी विराट रूप दिखाना शुरू कर दिया है। व्यापम का यह विराट रूप स्वार्थपूर्ति और कमाई का नया दर्शन लेकर आ गया है।

छोटे-छोटे व्यापम तो हमेशा से होते रहे हैं परंतु व्यापम की आज की भव्यता चमत्कृत करती है। व्यवस्था की नस नस में व्यापम व्याप्त हो गया लगता है। यह एक दिन में नही हो गया है। उसने पूरी तैयारी की है, पर्याप्त समय लिया है। यह धारणा बैठाना कोई आसान काम नही है कि व्यापम का होना ही विश्वास का होना है।  जहाँ व्यापम होगा वहाँ काम भी होगा। लोगों को शनै-शनै विश्वास दिला दिया गया कि काम कराना है तो खुद को भी व्यापम होना पडेगा। बगैर व्यापम हुए अपने कल्याण की कामना व्यर्थ है।

स्थिति यह है कि व्यवस्था के कण-कण में और जीवन के हर क्षेत्र में व्यापम अपने पैर मजबूती से जमा चुका है। व्यापम के विरोध में, उससे मुक्ति के लिए जितने आन्दोलन हुए, शायद उनकी नियति इतिहास हो जाने की ही रही है। व्यापम से मुक्ति की बजाए अक्सर लोगों ने इसके खिलाफ खडे होने और संघर्ष करने वाले लोगों से ही अपने को मुक्त करने को प्राथमिकता दी।  

व्यापम इतनी खूबसूरती और आकर्षक तरीके से प्रवेश करता है कि लोग मुग्ध हुए बिना नही रहते।  व्यापम तरक्की की गारंटी दिलाता दिखाई देता है।  संचार, सवास्थ्य, शिक्षा, खनन, नियुक्तियाँ, खरीद, कौनसा ऐसा क्षेत्र होगा, जहाँ व्यापम मौजूद नही है। बिना व्यापम की मदद के कोई काम सम्भव नही है। व्यापम से छुटकारे के लिए आप भले ही कितनी ही सरकारें बदलते रहें, नीतियों की कितनी ही तलवारें इस दानव के हजार सिरों पर चलाई जाती रहें, इसका वध करना बहुत मुश्किल है। निश्चित ही रावण की तरह व्यापम का भी कोई कमजोर हिस्सा जरूर होगा, जिस पर निशाना साध कर तीर चलाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए हमें इस लाभकारी ‘व्यवस्था पंगु मशीन’ के विरुद्ध लडने की इच्छाशक्ति भी तो होनी चाहिए। भला कौन उस डाली को काटेगा जिस पर मीठे फल लगते हों।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-452018  

  

Monday, June 23, 2014

शकर का शोर

व्यंग्य
शकर का शोर
ब्रजेश कानूनगो

जैसे कोई अफसर बोतल खुलते ही खुलने लगता है, जैसे कोई मिनिस्टर कडकनाथ के बाद अपनी कडकता भूलकर ढीला पडने लगता है, जैसे कोई प्रेयसी बादल घिरते ही प्रियतम की याद में बेचैन होने लगती है वैसे ही साधुरामजी में मिठाई देखकर मिठास घुलने लगती है। मीठा उनकी कमजोरी है। लेकिन अब वह जमाना नही रहा कि मेहमान के आगमन पर मोतीचूर के लड्डू या गुलाब जामुन की महक अपने ड्राइंग रूम में फैलाई जा सके। साधुरामजी के पधारने पर अब उनके सत्कार में सिवाय चाय की चोट खाने के अब कोई चारा भी तो नही रह गया है। उनके आते ही मैने बिटिया को आज का अमृत लाने का आदेश दिया और उनसे मुखातिब हुआ- ‘कहिए कैसी चल रही है आपकी नई सरकार? सुना है इनके और उनके फैसलों में कोई अंतर नही दिखाई दे रहा।’

‘हाँ, यह तो है! न उनके पास कोई चमत्कारी छडी थी और न ही ये भी किसी पीसी सरकार के वंशज हैं कि जादू चला के महंगाई के दानव को कबूतर में बदल सकें।’ साधुरामजी ने पीडा व्यक्त की।
तभी चाय बनकर आ गई। चुस्की लेते ही प्रश्न भरी नजरों से मुझे घूरने लगे। प्याली के साथ उनकी यह मुद्रा खबरिया चैनलों के किसी ‘तीखी या सीधी बात’ जैसे कार्यक्रम के शातिर एंकर की तरह दिखाई दे रही थी। मैने भी चाय का स्वाद लिया तो पाया कि जैसे चाय में शकर थी ही नही। मैने पत्नी को पुकारा तो उन्होने बेटी को भेज दिया।
‘बेटे ,चाय में शकर  नही डाली क्या?’ मैने पूछा।
‘डाली तो है पापा, मगर रोज से कम। मम्मी कहती है अब ऐसी ही कम शकर वाली चाय पीना पडेगी।’ कह कर वह भीतर चली गई।
‘ओ-हाँ ,याद आया, साधुरामजी वह क्या है कि अब शकर हमारी औकात से दूर होती जा रही है,हमने सोंचा खुद ही इसके खर्च पर लगाम लगा लें। सरकार का रुख कुछ ठीक नही दिखाई देता।’ मैने संकोचभरी हकलाहट के साथ कहा।

साधुरामजी अपने मुख को थोडा विकृत ज्यामितीय रूप देते हुए बोले- ‘लगता है राजनीति में फिर कुछ न कुछ घटेगा, मँहगाई की मार वैसी ही बनी हुई है जैसी नई सरकार के आने के पहले थी.. और अब यह शकर के दामों का किस्सा.. शकर के कारण लोगों के दिलों में बडती कडुवाहट का मूल्य कहीं सरकार को न चुकाना पड जाएँ, देश की राजनीति पर इसका गहरा असर पड सकता है।’ साधुरामजी के भीतर के नेता को चिंता सताने लगी।
‘लेकिन हमें राजनीति से क्या? हमे तो शकर मिलनी चाहिए सस्ते दामों पर।’ मैने कहा तो उनका सत्ता समर्थित राजतीतिज्ञ जाग गया- ‘क्या शकर का इस्तेमाल इतना जरूरी है तुम्हारे लिए?’ ऐसा लगा जैसे मधुमक्खी गुलाब पर अपनी मिठास की आवश्यकता के लिए प्रश्नचिन्ह  लगा रही हो।
‘हाँ,मिठास भी आवश्यक है मनुष्य के लिए, और अगर आप सोचते हैं कि खाने में हम मिठास को त्याग दें तो चलिए आप हमें अपनी व्यवस्था से, तंत्र से ‘मीठा-व्यवहार’ दिलवाइए। हम शकर का उपयोग छोड देंगे। जब हर तरफ कडुवाहट फैली हुई है तो वहाँ शकर के चन्द दाने कौनसी मिठास घोल देंगे जीवन में। मैं तो कहता हूँ, आप घरेलू बाजार में शकर उपलब्ध ही मत कराओ बल्कि समूची शकर को निर्यात करके कुछ हेलिकाप्टर और तोपें खरीद लो, वक्त बेवक्त आपका और विपक्ष का समय संसद में कट जाया करेगा बहसों में।’ रक्तचाप ग्रसित मेरा चेहरा तमतमा उठा।

‘तुम तो ख्वामखाह नाराज हो गए, मेरा मतलब यह थोडे था। ये तो तात्कालिक स्थितियाँ हैं, कभी प्याज तो कभी तेल, कभी दूध तो कभी शकर, महंगी-सस्ती होती रहती हैं। जरा जीना सीखो। ये छोटे-छोटे अभावों से क्यों प्रभावित होते हो। तुम तो एक महान देश के समझदार और राष्ट्रवादी नागरिक हो। जरा उन अमर क्रांतिकारियों के बलिदान को याद करो, जिन्होने भारी अभावों और कष्टों के बीच देश को आजाद कराया....और आज भी तुम एक नई आजादी के दौर से गुजर रहे हो...।’ साधुरामजी का राजनीतिज्ञ शब्दों में निरंतर शकर घोल रहा था...और हम तुम्हे क्या नही दे रहे.. थोडा-सा इंतजार तो करो..इतना अधीर भी मत बनों..अच्छी चीजें आसानी से नही मिल जाती..यकीन रखो अच्छे दिनों के लिए थोडा-बहुत सेक्रिफाइज और त्याग तो हरेक को करना पडेगा.. तुम भी क्या यह तुच्छ-सा शकर का रोना लेकर बैठ गए।’ 

‘मैं आपकी मीठी-मीठी बातों में आने वाला नही हूँ, साधुरामजी। सरकार को चाहिए कि वह शकर को सस्ते दामों में हमेशा उपलब्ध कराए,बस।’ मैने सीधे-सीधे कहा तो वे क्रोधित हो गए-‘तुम भी अजीब आदमी हो,एक मामूली सी चीज के लिए अड रहे हो, माँगना ही है तो महंगाई भत्ते की किश्त माँगो, जो दिया जा सके वह माँगो।’ इतना कहकर साधुरामजी आँखे लाल किए पैर पटकते लौट गए। मैं सोचने लगा- वास्तव में एक तरफ शकर का उपयोग बन्द करके मधुमेह और मोटापे के डर से निर्भय होकर दूसरी तरफ महंगाई भत्ते की अतिरिक्त किश्त झटक लेने में क्या समझदारी नही होगी?

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-452018




        

Sunday, June 8, 2014

हमारा फुटबॉल दर्द

हमारा फुटबॉल दर्द
ब्रजेश कानूनगो

ग्रंथों मे उल्लेख मिलता है कि भगवान श्रीकृष्ण अपने बचपन में गेन्द खेला करते थे। वह कुछ और नही फुटबॉल ही था। गोविन्द अपने मित्रों के साथ फुटबॉल खेलते थे और यही खेलते हुए एक जबर्दस्त किक खाकर जब गेन्द जमुनाजी में जा गिरी थी तब वह चर्चित पौराणिक प्रसंग उपस्थित हुआ था, जिसमें शेषनाग के सिर पर उस जमाने का होनहार फुटबॉल खिलाडी गोविन्दा ने सवार होकर इतिहास रच दिया था।
हॉकी का विश्व गुरु होने के वर्षों पूर्व भारत दुनिया का फुटबाल गुरु भी हुआ करता था। कालांतर में जिस तरह भारतीय हॉकी का हश्र हुआ उसी तरह फुटबाल में यह परम्परा उससे भी काफी पहले हम निभा चुके थे। प्रतियोगिता में जीत के लिए हमारी ‘पहले आप’ की विनम्र नीति के चलते हम फुटबॉल के मैदान में इतना पिछड गए कि हमारा फुट्बॉल समय की जमुना में सदा के लिए समा गया।
बहरहाल हुआ यह कि फुटबॉल भारत का होकर भी बाहर का हो गया, बेगाना हो गया। ब्राजील,इटली, अर्जेंटीना और स्पेन जैसे देश फुटबॉल खेलते हैं और भारत उन्हे खेलते हुए देखता है। फुटबॉल के जनक होकर भी आज हम फुटबॉल खेलते नही सिर्फ देखते हैं। हमारी नियति ही हो गई है कि हम दूसरों को जीतते हुए देखें। स्पर्धाएँ होती रहतीं हैं और जमुना के देश के लोग फुटबॉल की तरह आँखें फैलाए नजारा देखते रह जाते हैं।

बेशक मैं भी उन्ही में से एक हूँ। जब-जब मैं फुटबॉल देखता हूँ,उसमें डूब जाता हूँ। जब आदमी डूब जाता है तो वह सपने देखने लगता है। मुझे महसूस होने लगता है कि मेरा स्वरूप गोलाकार हो गया है और मैं एक फुटबॉल में तब्दील हो गया हूँ। पूरी व्यवस्था जैसे फ़ुटबॉल का मैदान बन गई है। कोई किक मारकर कहीं भेज देता है तो कोई किसी ओर दिशा मे लतिया देता है जहाँ पहले से ही कोई किक प्रहार के लिए तैयार खडी होती है। मछली पानी से प्यार करती है क्योंकि वह पानी में जीती है, मैं फुटबॉल से प्यार करता हूँ क्योंकि यही मेरा जीवन है।

फुटबॉल और मुझमे काफी समानता है। मुझे यकीन है अपना काम निकलवाने के लिए इधर से उधर धक्के खाते हुए जो अनुभूति मुझे होती है, वही शायद फुटबॉल को भी मैदान के एक छोर से दूसरे छोर के बीच लुडकते हुए होती होगी। मेरा और फुटबॉल का दुख-दर्द, सुख–चैन एक सा है। वह बोल नही सकता, इसलिए उसकी कोई नही सुनता, मैं बोल सकता हूँ फिर भी मेरी व्यथा अनसुनी रह जाती है। वह कुछ नही कर सकता, मैं भी कुछ नही कर सकता। हमारी नियति ही है कि ठोकरें खाते रहें।
बहरहाल, फुटबॉल तो चलता रहेगा लेकिन खेल के आनन्द की यह अनुभूति शायद हमारे भीतर कष्टों से जूझने की असीम शक्ति पैदा करने में सफल हो सके।
ब्रजेश कानूनगो

503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-18