Friday, May 27, 2016

डायरी मई 2016

डायरी
मई 2016

1

वो ठंडा अन्धेरा
मन का क्या है। पंख लगे होते हैं उसके। आज उड़ते उड़ते जा बैठा 45 बरस पहले के अपने घर की छत के कंगूरे पर। दो मंजिले मकान की छत पर लकड़ी की बल्लियां लगी थीं जिन्हें जुपीए कहते थेजिसके ऊपर मिटटी की तह बिछाई गई थी। फिर थोडे ऊपर टीन की चद्दरें ठोंकी हुई थीं।
नीचे मने ग्राउंड फ्लोर पर अगला कमरा बैठक खाना और उसके बाद एक अँधेरा कोठार जिसमे केवल एक दरवाजा। कोई खिड़की नहीं। हवा का कोई आवागमन नहीं। इसमें गुड़ समेत खजाना सा भरा होता था। कुछ बोतलों में गार का पानी ऐसे सहेजा हुआ था जैसे अमृत रखा हो।मुहल्ले में यदा कदा चम्मच भर कोई मांगने आ जाता था। बर्नियों में बहुत ख़ास अचार रखा,कोठार को महकाता रहता था।

गर्मियों में कोठार की ज़रा सी जगह में दादी बोरी बिछा कर दोपहर की नींद निकालती। वहां उनके बगल में जैसे शिमला बसी थी।
और मई जून की दोपहर में बैठक खाने के दरवाजे की दरार से धधकती सड़क से कुल्फी के ठेले की चमक और परछाइयों का प्रवेश चलचित्र की रौशनी सा दीवारों पर गुजरता था। कोई कूलर या पंखा नहीं था।

आज कांक्रीट के इस स्वर्ग में ये क्यों आ रहा है याद !! वह कुमार गन्धर्व की नगरी का संगीत सम्राट रज्जब अली खां मार्ग का एक मकान भर नहीं था। सभी दुखों का समाधान करता एक घर था हमारा।
(5 मई 2016)

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2

मैं डूबन डरा !
जो बोरन डूबन डरा रहा किनारे बैठ। बहुत हद तक मुझ पर ठीक बैठती है यह उक्ति। सिंहस्थ के दौरान उज्जैन की क्षिप्रा नदी में नर्मदा जल में जब लाखों लोग डुबकियां लगा रहे हैंमुझे अकस्मात मोदी जी की बावड़ी याद आ रही है।

अनुपम मिश्र की ख्यात पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाबमें चित्रकार दिलीप चिंचालकर के रेखांकनों के साथ साथ जिन बावड़ियों और चोपडों के चित्र हैं उसी खूबसूरती का नमूना थी मोदी जी की बावड़ी। थोड़ी ही दूर पर एक शानदार वास्तुशिल्प वाला चोपड़ा भी था उनका। पास ही खेत था और थोड़ा आगे देवास का श्मशान।
डर मेरा दो तरह का था। एक तो बावड़ी और चोपड़ा श्मशान स्थल के बिलकुल निकट थे। दूसरे बड़े दादा जी परिवार के बच्चों को सुबह सुबह अपने मित्र मोदी जी की बावड़ी में तैरना सीखाने ले जाते थे।  गर्मियों की छुट्टियों में रिटायर्ड कलेक्टर साहब का अनुशासन हम बच्चों पर खूब चलता था। मैं थोडा पढ़ाकू किस्म का बच्चा था और परियों से लेकर भूत प्रेत तक की सभी कहानियां पढ़ डालता था। मैं नवाब बनना चाहता था ,परीक्षाओं में अव्वल आता थाइस लिए ज्यादा खेलकूद कर खराब नहीं बनना चाहता था। उन दिनों प्रचलित भी यही था कि 'पढोगे लिखोगे तो बनोगे नवाबखेलोगे कूदोगे बनोगे खराब' 
बहरहाल,  दादा जी हम बच्चों को घेर घारकर मोदी जी की बावड़ी पर ले जाते सुबह सुबह। पजामों के सिरों को बाँध देते और हवा में फूले हुए इन सुरक्षा गुब्बारों सहित हमें बावड़ी के पानी में हाथ-पैर मारने को फैंक देते।
हुआ यह कि मैं राजा बाबू किस्म का लाडला बच्चा ' जीजी जीजीकहकर घर भाग आता ,और जीजी के दुलार में ऐसा गुम हो जाता कि कलेक्टर साहब मेरे अलावा सबको तैराकी सिखा गए।
जो उस वक्त तैरना सीख गए वे गोते लगा रहे हैं।मैंने तो पर्यटन अवकाश सुविधा के अंतर्गत हरिद्वार तक में गंगा का पानी लोटे में भरकर सिर पर उंढेल लिया था।  अब सिंहस्थ में साधुओं के स्नान की तस्वीरें देखकर ही खुश हो रहा हूँ। पानी में उतरने में अब भी मुझे डर लगता है। किनारे पर बैठा रह गया हूँ। कितना अच्छा होता उस वक्त डरता नहीं। तैर जाता ये भव सागर।  
(18 मई 2016)

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3

मई का महीना
आज 27 मई है। देश के प्रथम प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू की पुण्यतिथि। कोई सात/आठ साल का बच्चा था मैं। अब याद करता हूँ तो एक चित्र खिंच आता है।
मई माह हमारे परिवार में कुछ अलग महत्त्व और संयोगों से भरा रहा है। 21 मई को मेरी बेटी का जन्म हुआ,संयोग से व्यंग्यकार शरद जोशी के जन्म वाले दिन। 11 मई को चाचाजी का विवाह,चचेरी बहन का जन्म और इससे पूर्व 11 मई 64 को मेरे दादा जी का निधन हुआ था। याने 11 मई को हमारे यहां जन्म,मृत्यु और विवाह जैसे प्रसंग हुए हैं।
दादाजी के निधन के कारण घर में शोक चल रहा था।उन दिनों रेडियो मनोरंजन के अलावा विश्वस्त समाचारों का बहुत सुलभ और लोकप्रिय माध्यम हुआ करता था।मगर वह घर में शोक के चलते खामोश था। लेकिन 27 मई को जैसे ही पंडितजी के निधन का समाचार आया।पूरे देश में सचमुच शोक की लहर फ़ैल गई। राष्ट्रीय शोक की घोषणा हुई।
उसी दिन हमारे घर का खामोश रेडियो फिर रो पड़ा। बापू के प्रिय भजन गा रहीं थी मशहूर आवाजें और सारंगियां रो रहीं थीं। नेहरू हीरो थे हमारे।लोग नेहरू जी के बारे मेंउनकी अंतिम यात्रा और अंतिम संस्कार के सीधे प्रसारण को भरे हृदय से सुन रहे थे।
सच तो यह था की सात साल के बच्चे की नजर के सामने कोई राजनैतिक चकाचौध नहीं थी। प्रधान मंत्री याने देश का सच्चा हितैषी और लोक प्रधान के रूप में दिलों दिमाग में स्थापित एक पालक। परिवार में एक दादा का निधन हुआ था और देश ने अपना पिता खो दिया था।
कोरा कागज था मेरा मन। श्रद्धांजलि चाचा नेहरू को।
(27 मई 2016) 

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