Saturday, March 2, 2013

सभागार


सभागार
ब्रजेश कानूनगो

कविता की पंक्तियाँ गूँजती है जिस वक्त
कहीं किसी कोने में कुमार गन्धर्व के स्वर
और यासीन खाँ की जलतरंग की ध्वनि को भी
महसूस करता है सभागार

बिरजू महाराज की थिरकन से स्पन्दित है सभागार का धरातल

गुलाब और गुलदावदी की बहार बिखरी है कई बार यहाँ
स्वागत के फूलों की सुगन्ध
और बिदाई की नमी
मौजूद है सभागार में

बहसों के घमासान में चली गोलियों के निशानों से
छलनी है सभागार की दीवारें
न जाने कितने हुसैनों की कूँचियों ने
कोशिश की है घावों को मिटाने की भरसक 

प्रहसनों के बीच हँसा है
तो तीजन बाई के साथ रोया है सभागार
पता है उसे बाजीगरों की सफाइयाँ
और राजनेताओं की चालाकियाँ भी

कठिन सवाल हल किए गए हैं यहाँ
सहज प्रश्नों को बनाया गया है दुसाध्य
दान किए अधिकारों की गणना के बाद
घोषित किया देश का भविष्य यहाँ से

सभागार को पता है कि
राष्ट्र नायकों की ललकारों और संतों की वाणी ने
जगाया है यहाँ कितने लोगों को

इतनी लचीली है सभागार की प्रकृति
कि घंटे-घंटे में बदल जाती है उसकी धडकन

यह बहुत अच्छा है कि सभागार मनुष्य नहीं है
भूलने-बदलने और मिटा देने का अवसर नहीं है उसके पास।