Wednesday, January 29, 2014

सदाचार का टीका

व्यंग्य
सदाचार का टीका
ब्रजेश कानूनगो

साधुरामजी उस दिन बडे परेशान लग रहे थे। कहने लगे ‘देश में यह हो क्या रहा है,जहाँ देखो वहाँ छिपा हुआ कालाधन निकल रहा है, चपरासी,बाबू से लेकर अधिकारियों और बाबाओं से लेकर नेताओं,व्यवसाइयों तक के यहाँ छापे पड रहे हैं और करोडों की राशि बरामद हो रही है। घोटालों के इस महान समय में नैतिकता ,ईमानदारी,सच्चाई,सदाचार,सज्जनता, शालीनता जैसे मूल्य पुराने और कालातीत होते जा रहे हैं, भ्रष्टाचार के  दानव ने मूल्यों को सड़ाकर उसकी सुरा बनाकर उदरस्थ कर ली है।’
‘लेकिन अब हम क्या कर सकते हैं इसके लिए ? हमारे पास कोई ऐसा नुस्खा तो नही है जिससे सबके अन्दर सदाचार के बीज बोए जा सकें।’ मैने कहा।  
‘मैने तो पहले ही चेताया था कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या के समय गिरी उनके खून की बून्दों से सनी मिट्टी की नीलामी रोक कर उसे हम प्राप्त कर लें, लेकिन हमारी सुनता कौन है।’ साधुरामजी बोले। ‘अभी भी समय है जब बापू के रक्त से सनी मिट्टी को वापिस प्राप्त करने की कोशिश की जाए। हमारे लिए वह बहुत उपयोगी हो सकती है।’
‘इससे क्या होगा?’ मैने जानना चाहा।
‘गाँधीजी के खून की इन अंतिम बूंदों का अध्ययन हमारे देश के हालात और चरित्र सुधारने में हमारी मदद कर सकता हैं।’ उन्होने कहा। ‘वह कैसे ?’ मैने जिज्ञासा व्यक्त की।     
‘वैज्ञानिक बापू के खून की बूंद का परीक्षण विश्लेषण करें और पता लगाएँ कि  उनके रक्त में ऐसे कौन से घटक और तत्व थे जिनके  कारण बापू में सच्चाई,ईमानदारी,जुझारूपन तथा दृढ़ता जैसे गुण हुआ करते थे। हिमोग्लोबिन की तरह ऐसा ही क्या  कोई त्व खून में मौजूद था जिसके  कारण अहिंसा और संघर्ष की भावना को विकसित करने वाले रसों और कोशिकाओं का निर्माण होता था। क्या बकरी के  दूध के  सेवन की वजह से उनके  क्त में ऐसे गुणकारी तत्वों का प्रादुर्भाव हुआ था जिससे उन्हे अंतिम आदमी के दुखों की चिन्ता लगी रहती थी। पदयात्राओं के  कारण कहीं उनके  क्त  में स्वदेशी और मानव प्रेम के सकारात्मक जीवाणुओं का विस्तार तो नही हुआ था।’ साधुरामजी किसी चिकित्सा विज्ञानी की तरह बोल रहे थे।
‘इस अध्ययन से क्या मदद मिलेगी समस्या के निदान के सन्दर्भ में?’ मैने उत्सुकता जताई।
‘बापू के रक्त के अध्ययन के निष्कर्षों के आधार पर  वैज्ञानिक ‘नैतिक’ मूल्यों के प्रत्यारोपण के लिए ‘सदाचार के टीके’ का निर्माण करें।’ साधुरामजी ने स्पष्ट किया।
साधुराम जी के सुझाव में मुझे दम दिखाई दिया। भविष्य में शायद वैज्ञानिक सचमुच ऐसा कर दिखाने के प्रयास में जुट जाएँ।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-18




Friday, January 24, 2014

संवेदनाओं के टूटते सूत्र

संवेदनाओं के टूटते सूत्र
ब्रजेश कानूनगो

वर्तमान समाज में रिश्ते कलंकित हो रहे हैं। केवल इंदौर का ही उदाहरण लें तो पिछले कुछ वर्षों में यहाँ कुछ ऐसी घटनाएँ सामने आर्ईं हैं जो हमारे सामाजिक ताने-बाने की धज्जियां उड़ाने के लिए काफी हैं। रुपयों की खातिर बेटे ने बाप की और पोते ने संपत्ति की लालसा में दादी की हत्या करवाने की साजिश करने में कोई संकोच नही किया है। महिला मित्र को लेकर या थोड़ी सी नाराजगी के चलते अपनी कक्षा के साथी के अपहरण करने में तथा जिगरी दोस्तों द्वारा अपने ही दोस्त का कत्ल करते हुए उनका हृदय नहीं पसीजा।
बडी अजीब स्थति है कि आज के समय में जब कोई व्यक्ति जीवन मे नैतिक मूल्यों की बात करता है तो लगता है जैसे उसने सतयुग का कोई पौराणिक आख्यान शुरू कर दिया हो। भस्मासुर की कहानी की तरह हमसे ही कहीं गंभीर भूल हो गई लगती है जो हमने संवेदनहीनता का अस्त्र अपने बच्चों के हाथों मे थमा दिया है जिससे लगातार रिश्तों की पवित्रता पर प्रहार हो रहा है। रिश्तों के आत्मीय सूत्र और संवेदनाओं के सेतु मूल्यहीन संस्कारों के चलते क्षत-विक्षत हो चुकें  हैं। जो कारण स्पष्ट दिखाई देता है वह परिवार सहित किसी भी ऐसी संस्था के प्रभाव का लगातार कम होते जाना हो सकता है जो प्रारम्भ से ही बच्चों को सरस और सार्थक जीवन जीने की राह दिखाती हो।

एक समय था जब परिवार के बुजुर्ग अपनें बच्चों में करुणा ,प्रेम ,दया,सहयोग,संघर्ष और कर्म के ऐसे बीज बोते रहते थे जो समय आने पर पल्लवित-पुष्पित होकर उनके जीवन को खुशियों से भर देते थे। लेकिन आज ऐसी कला जानने और उसका सार्थक प्रयोग करने वाले पालकों,शिक्षकों,बुजुर्गों की संख्या नगण्य ही रह गई है। ऐसे व्यक्ति बहुत दुर्लभ हो गए हैं जो यह समझा रहे हों कि धैर्य और विवेक मन में शांति की राह आसान बनाते हैं और क्रोध करने से आदमी में उग्रता व बुद्धिहीनता जैसी प्रवर्त्तियाँ अपना सिर उठाने लगतीं हैं। दूसरी ओर शायद बच्चों के पास इतनी समझ और समय भी उपलब्ध नहीं है कि वे जीवन में सुख,शांति और सफलता के इन आउटडेटेड(?) नुस्खों का लाभ ले सकें।

वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि माँ के गर्भ में ही शिशु पर मनोभावों और आसपास के वातावरण का प्रभाव पड़ने लगता है। अभिमन्यु ने माँ के गर्भ के दौरान अपनें जनकों से चक्रव्यूह भेदने की कला को सीख लिया था लेकिन यह विडम्बना ही है कि आज का बच्चा गर्भ में स्वार्थ और अनैतिकता का सबक सीखकर इस संसार में अवतरित होने के लिए अभिशप्त है।एक ओर जहाँ इलेक्ट्रानिक मीडिया के सैंकड़ों चैनल समय से पूर्व बच्चों  को मैच्योर बना देने के लिए तैयार बैठे  हैं ,वहीं दूसरी ओर उपभोक्ता  संस्कृति और बाजार के चश्मे के माध्यम से सुख,संमृद्धि और ऐश्वर्य के पाउच शार्टकटों से प्राप्त करने की लालसा ने बच्चों को इतना अधीर और आतुर बना डाला है कि स्वार्थ के खातिर अपने ही शुभचिन्तकों और दोस्तों तक को नुक्सान पहुँचाने में उन्हे कोई गुरेज नहीं होता।
नई पीढ़ी की भाषा में ही कहें तो आज के इन ग्लोबल प्रोडक्टों   के भीतर हम शायद संस्कारों और सफलता प्राप्त करने की सही लैंग्वेज का प्रोग्रामिंग नही कर पाए हैं। भाषा में स्वर और व्यंजन दोनों आवश्यक होते हैं। व्यंजन(क,,ग़ -- ) के साथ उचित स्वर( अं,इ उ़ -- ) को मिलाने के बाद ही अर्थ का उदय होता है । जीवन में आनंद और सुख शांति के व्यंजनों के साथ नैतिक मूल्यों के स्वरों से भी अपने बच्चों को परिचित करवाने की जिम्मेदारी हर स्तर पर हमें उठानी चाहिए तब शायद रिश्तों की पवित्रता की रक्षा की जा सके । जहाँ सही प्रोग्रामिंग हुआ है वहाँ यह समस्या ही नही है।
जरूरत अब इस बात पर गंभीरता से विचार करने की है कि ऐसे प्रोग्रामिंग के  लिए असरदार योजना कैसे बन सके 

ब्रजेश कानूनगो
503 
,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18


Friday, January 3, 2014

आम लोगों तक साहित्य

आम लोगों तक साहित्य
ब्रजेश कानूनगो

बार बार कहा जाता है कि साहित्य आम आदमी से दूर हो गया है। कारण कई गिनाए जा सकते हैं। लोगों की रुचियाँ बदल रहीं हैं। वे इतना व्यस्त हो गए हैं कि पढने लिखने के लिए समय नही निकाल पा रहे हैं। व्यक्ति अब पाठक नही रहा,वह दर्शक में बदल गया है,पढने की बजाए अब देखना उसके लिए अधिक सुविधाजनक है। समकालीन शिल्प और भाषा को ग्रहण करने के लिए थोडे बौद्धिक  श्रम की जरूरत भी होती है और वह उसे करना नही चाहता।
साहित्य से आम लोगों की दूरी की वजहों पर लम्बी बहस चलाई जा सकती है लेकिन इस बात में भी काफी दम है कि लोगों की दिलचस्पी सामान्यत: रचनात्मक साहित्य में कम हुई है। सवाल यह नही है कि ऐसा क्यों हो रहा है। मुद्दा यह है कि साहित्य को लोगों तक ले जाने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं या किए जा सकते हैं। अपने परिवेश और सामान्य कार्यकलापों एवं गतिविधियों के चलते साहित्य के प्रति आम व्यक्ति में कैसे रुचि जगाई जा सकती है इसके लिए हाल ही के कुछ प्रसंग उदाहरण बनाए जा सकते हैं। 

औद्योगिक नगरी देवास के एक औद्योगिक कारपोरेट संस्थान के स्टाफ सदस्यों का एक पारिवारिक मिलन समारोह उनके अतिथिगृह में आयोजित था। आमतौर पर ऐसे कार्यक्रमों में स्टाफ सदस्यों की खेलकूद प्रतियोगिताएँ,तम्बोला आदि करवा दिए जाते हैं किंतु परम्परा से हटकर वहाँ के प्रबन्ध निदेशक को अपने स्टाफ को ‘साहित्य’ से परिचित करवाना ज्यादा उपयोगी प्रतीत हुआ। उनका मानना था कि मशीनों तथा उद्योग जगत के शोरगुल के बीच कर्मचारी संवेदनाओं और रचनात्मक विचारों से वंचित रह जाता है। इसलिए कार्यक्रम में कुछ साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया। प्रबन्धनिदेशक का विश्वास था कि बेहतर व्यावसायिक निष्पादन के लिए कर्मचारियों को साहित्यिक रचनात्मकता से रूबरू करवाना सकारात्मक कदम होगा। यहाँ मैं इतना जरूर स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यहाँ वैसी कोई ‘कवि गोष्ठी’ आयोजित नही थी जिसमें देर रात तक चुट्कुले और ठहाकों के बीच  ‘वाह-वाह क्या बात है!’ जैसी आवाजें उभरती गूँजती रहीं हों। कार्यक्रम में प्रबन्धनिदेशक और सुपरवाइजरी स्टाफ सहित उनके परिवार के सदस्यों ने साहित्य पर हुई बातचीत का पूरे मनोयोग से आनन्द लिया। साहित्य क्या है?,समकालीन कविताओं में शिल्प ,शैली,अनुभूति और भाषा तथा बिम्ब विधान जैसी गूढ बातों को भी सहज,सरल तथा सम्प्रेषणीय रूप में अभिव्यक्त होने के कारण सुना। रचनाकारों ने कविताओं के उदाहरण देते हुए उद्योग जगत में काम करने वाले व्यक्तियों तक साहित्य की समझ को पहुँचाने का प्रयास किया। यह समझिए यह कार्यक्रम उत्पादन क्षेत्र में एक छोटी-सी साहित्य कार्यशाला की तरह रहा।

दूसरा प्रसंग एक प्रतिष्ठा सम्मान समारोह का है। अपने पितृ पुरुष की स्मृति में परिवार के सदस्य प्रतिवर्ष किसी रचनाकार को सम्मानित कर पुरस्कार प्रदान करते हैं। यहाँ साहित्य जगत में पुरस्कारों की अपनी प्रतिष्ठा अथवा मानदंडों जैसे प्रश्न गोंण हैं, महत्वपूर्ण बात यह है कि एक आम परिवार अपने पूर्वज की स्मृति में कर्मकांडों या प्रतिमा निर्माण की बजाए ‘साहित्यिक पहल’ करना जरूरी मानता है। कलमकार का सम्मान करता है। आयोजन के बहाने परिवार से जुडे आत्मीय रिश्तेदार साहित्यिक गतिविधि से जुडते हैं तथा विद्वजनों के विचारों तथा रचनाओं से रूबरू होते हैं। निसन्देह अपने क्षेत्र के विद्वानों एवं रचनाकारों का सामीप्य आजीवन उनके स्मृति पटल पर अंकित रहता होगा। रचनाओं और आख्यानों के माध्यम से साहित्य की थोडी ही लेकिन सही समझ परिवार के युवा सदस्यों के अंतस में उतरती ही होगी। साहित्य से विमुख होते जा रहे पाठक को लौटा लाने की ऐसी पहलें शायद अब अधिक कारगर हो सकती हैं।
ऐसे कार्यक्रमों में उपस्थित श्रोता पारिवारिक कारणों और आग्रह के कारण उपस्थित होते हैं और जिनमे ज्यादातर बिल्कुल गैर साहित्यिक होते हैं जब रचनाकार से उसकी रचना प्रक्रिया जानते हैं, उसकी गम्भीर साहित्यिक रचनाओं का आस्वाद लेते हैं तब उन्हे जीवन में साहित्य की भूमिका और उसकी सार्थकता को समझना बहुत मुश्किल नही रह जाता। यह देखा गया है कि उनमें से बहुत से बाद में साहित्यिक रचनाओं के प्रति लालायित हो कर बहुत सी किताबें पढ डालते हैं। यह एक सुखद परिवर्तन  है।  

आम लोगों में  साहित्य में रुचि और समझ के विकास के लिए साहित्यिक संस्थाओं और लेखक संगठनों के इतर संस्थाओं द्वारा ऐसी सक्रियता और सद्इच्छा जागृत हो जाना शायद समाज के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है। साहित्य से क्राँति भले ही न होती हो वह बेहतर जीवन की राह जरूर दिखाता है।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इन्दौर-452018
मो.न.09893944294