Saturday, April 4, 2015

वाट्सएप पर साहित्य


वाट्सएप पर साहित्य
ब्रजेश कानूनगो

मैं अभी फेस बुक पर अपना ताजा स्टेटस पोस्ट करने के बाद उसे लाइक करने वाले मित्रों की संख्या और कमेन्ट करने वाले नामों की गिनती कर ही रहा था कि किसी ने घंटी बजाई. मैंने दरवाजा खोला तो साधुरामजी सामने थे. मैंने नमस्कार किया मगर वे बगैर जवाब दिए सीधे सोफे में समा गए. कुछ झल्लाए से लग रहे थे. बोले-‘ साहित्य वाहित्य सब बेकार की बात है.. कैसा भी अच्छा लिख लो मगर  कोई ध्यान नहीं देता.’
‘क्या हुआ साधुरामजी?  कौन ध्यान नहीं देता.. ‘ मैंने पूछा.
‘लगातार लिखता रहता हूँ.. मगर कभी किसी साहित्यकार मित्र ने प्रशंसा नहीं की आज तक.’ वे बोले.
‘साधुरामजी, जब आप अच्छा लिखते हैं तो उसके लिए किसी की प्रशंसा पाने की आकांक्षा क्यों रखते हैं..आप तो लिखते जाइए बस..कुछ लोग स्वांत: सुखाय भी तो सृजन करते हैं.’ मैंने कहा.
‘लेकिन कुछ तो मूल्यांकन होना ही चाहिए हमारे लिखे का. प्रशंसा से प्रोत्साहन मिलता है.’ उनका क्षोभ बरकरार था.
‘आखिर हुआ क्या साधुरामजी? ‘ मैंने पूछा.
‘हुआ क्या, पहले तो उन्होंने अपने वाट्स एप समूह पर लगाने के लिए मेरी कविता मंगवाई ..फिर समूह में शेयर भी की... मगर जैसे ही मेरी कविता वहाँ लगी..समूह में चुप्पी छा गयी. मैं लगातार दो दिन तक इंतज़ार ही करता रहा कि अब कोई कुछ कहेगा, प्रतिक्रिया देगा. लेकिन प्रशंसा तो दूर किसी ने कविता की कमजोरी तक नहीं बताई.. यह तो अन्याय है भाई!’
साधुरामजी अपनी उपेक्षा से दुखी हो गए थे.
‘व्यस्त होंगे समूह के सदस्य शायद, या किसी ने देखी नहीं होगी आपकी कविता ..’ मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की.
‘कैसे नहीं देखी होगी? मैंने सर्च कर लिया था..जो बहुत बोलते थे वहाँ, वे भी खामोश हो गए थे..कुछ नहीं कह रहे थे.. बल्कि जैसे ही एक नई कवियत्री समूह से जुडी. सब साथी सक्रीय हो गए.. लगे उनका स्वागत करने..और मेरी कविताएँ पीछे ढकेल दी गईं.’ वे तमतमा गए.
‘दिल पर मत लो साधुरामजी, ये तो आभासी दुनिया है.. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता..’ मैंने कहा.
‘कैसे नहीं पड़ता? वहाँ वास्तविक दुनिया में भी यही था और यहाँ भी यही हो रहा है.. गोष्ठियों में, पत्र-पत्रिकाओं में, पुरुस्कारों में,  संगठनों में जो राजनीति होती है ..वह यहाँ भी आ गयी है.. ! अपने-अपने वालों की प्रशंसाएं होती हैं.. बाकियों को तवज्जो ही नहीं मिलती..’ साधुरामजी का गुबार लगातार निकल रहा था.
‘तो आप वह समूह छोड़कर दूसरे में चले जाओ.’ मैंने सुझाव दिया.
‘एक समूह छोड़कर ही तो आया था.. यहाँ भी वही और वहाँ भी वही हो रहा था..’  
‘आप अपना खुद का समूह क्यों नहीं बना लेते? ‘मैंने सलाह दी.
‘अरे भाई तुम तो बिलकुल ही बुद्धू हो. अरे उन समूहों में बड़े-बड़े लेखक और आलोचक हैं.. उनकी नज़रों से रचनाएं गुजरती हैं..तो अच्छा लगता है.’
‘तो फिर क्यों परेशान हो रहे हैं आप? वे देख ही लेते होंगे आपकी रचनाएं..शायद किसी पुरस्कार से आपको सम्मानित करके यकायक चौंका दें कभी.’ मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश की.
‘ऐसा हो सकता है क्या?’ आशा की थोड़ी सी चमक उनकी आँखों में दिखाई दी.
‘क्यों नहीं हो सकता. हमेशा सकारात्मक सोचना चाहिए, मैं भी ऐसा ही करता हूँ रोज. देखो रोज फेस बुक पर अपना अभिमत दे आता हूँ..कोई न कोई तो पढ़ ही लेता है..हो सकता है कभी कोई क्रान्ति हो ही जाए!’ मैंने कहा.
साधुरामजी के भीतर मैंने उम्मीद भरा अपना कथन पोस्ट कर दिया था. उन्होंने अपने स्मार्ट फोन पर वाट्स एप समूह को खोल कर इस उम्मीद से देखा कि शायद किसी ने उनकी कविता पर अब तक कोई टिप्पणी जरूर कर दी होगी. मगर यहाँ नजारा ही कुछ अलग था, वाट्स एप की सूची से उनका साहित्यिक समूह गायब था. एडमिन ने उन्हें शायद समूह से बाहर कर दिया था. मुझे बताते हुए बहुत अफसोस है कि साधुरामजी यहाँ भी राजनीति के शिकार हो गए थे.

ब्रजेश कानूनगो