संवेदनाओं के टूटते सूत्र
ब्रजेश कानूनगो
वर्तमान समाज में रिश्ते
कलंकित हो रहे हैं। केवल इंदौर का ही उदाहरण लें तो पिछले कुछ वर्षों में यहाँ कुछ ऐसी घटनाएँ सामने आर्ईं हैं जो हमारे सामाजिक ताने-बाने की धज्जियां
उड़ाने के लिए काफी हैं। रुपयों की खातिर बेटे ने बाप की और पोते ने संपत्ति की लालसा में दादी की हत्या करवाने की साजिश करने में कोई संकोच
नही किया है। महिला मित्र को लेकर या थोड़ी सी नाराजगी के चलते अपनी कक्षा के साथी के अपहरण करने में तथा जिगरी दोस्तों द्वारा अपने ही दोस्त का कत्ल
करते हुए उनका हृदय नहीं पसीजा।
बडी अजीब स्थति है कि आज के समय में जब कोई व्यक्ति जीवन मे नैतिक मूल्यों की बात करता है तो लगता है जैसे उसने सतयुग
का कोई पौराणिक आख्यान शुरू कर
दिया हो। भस्मासुर की कहानी की तरह हमसे ही कहीं गंभीर भूल हो गई लगती है
जो हमने संवेदनहीनता का अस्त्र अपने बच्चों के हाथों मे थमा दिया है जिससे लगातार रिश्तों की पवित्रता पर प्रहार
हो रहा है। रिश्तों के आत्मीय सूत्र और संवेदनाओं के सेतु मूल्यहीन संस्कारों के चलते क्षत-विक्षत हो चुकें
हैं। जो कारण स्पष्ट दिखाई देता है वह परिवार
सहित किसी भी ऐसी संस्था के प्रभाव का लगातार कम होते जाना हो सकता है जो प्रारम्भ से ही
बच्चों को सरस और सार्थक जीवन जीने की
राह दिखाती हो।
एक समय था जब परिवार के बुजुर्ग अपनें बच्चों में
करुणा ,प्रेम ,दया,सहयोग,संघर्ष और कर्म के ऐसे बीज बोते रहते थे जो
समय आने पर पल्लवित-पुष्पित होकर उनके जीवन को खुशियों से भर
देते थे। लेकिन आज ऐसी कला जानने और उसका सार्थक प्रयोग करने वाले पालकों,शिक्षकों,बुजुर्गों की संख्या नगण्य ही रह गई है। ऐसे व्यक्ति बहुत दुर्लभ
हो गए हैं जो यह समझा रहे हों कि धैर्य और विवेक मन में शांति की राह आसान बनाते
हैं और क्रोध करने से आदमी में उग्रता व बुद्धिहीनता जैसी प्रवर्त्तियाँ अपना सिर
उठाने लगतीं हैं। दूसरी ओर शायद बच्चों के पास इतनी समझ और समय भी
उपलब्ध नहीं है कि वे जीवन में सुख,शांति और सफलता के इन आउटडेटेड(?) नुस्खों का लाभ ले सकें।
वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध
हो चुका है कि माँ के गर्भ में ही शिशु पर मनोभावों और आसपास के वातावरण का प्रभाव पड़ने
लगता है। अभिमन्यु ने माँ के गर्भ के दौरान अपनें जनकों से चक्रव्यूह भेदने की कला को सीख लिया
था लेकिन यह विडम्बना ही है कि आज का बच्चा गर्भ में स्वार्थ और अनैतिकता
का सबक सीखकर इस संसार में अवतरित होने के लिए अभिशप्त है।एक ओर जहाँ इलेक्ट्रानिक मीडिया के सैंकड़ों चैनल समय से
पूर्व बच्चों को मैच्योर बना देने के लिए तैयार बैठे हैं ,वहीं दूसरी ओर उपभोक्ता संस्कृति और बाजार के चश्मे के माध्यम से सुख,संमृद्धि और ऐश्वर्य के पाउच शार्टकटों से प्राप्त करने की लालसा ने बच्चों को इतना अधीर
और आतुर बना डाला है कि स्वार्थ के खातिर अपने ही शुभचिन्तकों और दोस्तों तक को नुक्सान पहुँचाने में
उन्हे कोई गुरेज नहीं होता।
नई पीढ़ी की भाषा में ही
कहें तो आज के इन ग्लोबल प्रोडक्टों के भीतर हम शायद संस्कारों और सफलता प्राप्त करने की सही लैंग्वेज का
प्रोग्रामिंग नही कर पाए हैं। भाषा में
स्वर और व्यंजन दोनों आवश्यक होते हैं। व्यंजन(क,ख,ग़ -- ) के साथ उचित स्वर( अं,इ उ़ -- ) को मिलाने के बाद ही अर्थ का उदय होता
है । जीवन में आनंद और सुख शांति के व्यंजनों के साथ नैतिक मूल्यों के स्वरों से भी अपने बच्चों
को परिचित करवाने की जिम्मेदारी हर स्तर पर हमें उठानी चाहिए तब शायद रिश्तों की
पवित्रता की रक्षा की जा सके । जहाँ सही प्रोग्रामिंग हुआ है वहाँ यह समस्या ही नही है।
जरूरत अब इस बात पर
गंभीरता से विचार करने की है कि ऐसे प्रोग्रामिंग के लिए असरदार योजना कैसे बन सके ।
ब्रजेश कानूनगो
503 ,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18
503 ,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18
No comments:
Post a Comment