Wednesday, December 30, 2015

तालाब को सजा न सुनाएँ

तालाब को सजा न सुनाएँ
ब्रजेश कानूनगो                                                                                                

गणेशोत्सव का समय था. प्रतिमा विसर्जन के लिए घर से करीब एक किलोमीटर के फासले पर स्थित पिपलियाहाना तालाब पर हमलोग गए. यद्यपि सार्वजनिक जल स्रोतों की स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से तालाबों आदि में मूर्ती विसर्जन पर प्रतिबन्ध का एक आदेश जरूर स्थानीय प्रशासन द्वारा जारी किया जाता है लेकिन सामान्यतः इस आदेश की धज्जियां उड़ते भी आम तौर पर वहीं दिखाई दे जाता है. चूंकि नगर निगम ऐसे स्थानों पर एक पांडाल लगाकर मूर्तियों को एकत्र करके यथाविधि अन्यत्र विसर्जित कर देने का आश्वासन भी देता है अतः हम लोग वहां पांडाल में प्रतिमा सौंपकर तालाब की मुंडेर पर बैठकर बहुत देर तक खूबसूरत नज़ारे का आनंद लेते रहे. पोते को मैंने बहुत उत्साह से बताया कि आगे-पीछे यहाँ जरूर कोई ख़ूबसूरत पिकनिक स्पॉट विकसित हो जाएगा और हमलोग शाम को रोज यहाँ आया करेंगे.
परन्तु हाल ही में यह खबर पढ़कर बहुत निराशा हुई कि तालाब के जल भराव क्षेत्र की मिट्टी और चट्टानों का परीक्षण किया गया है. यहाँ तालाब की जमीन पर अब नए न्यायालय भवन को बनाया जाना प्रस्तावित है.

विकास के इस दौर में शायद यह खबर अधिकाँश लोगों के भीतर कोई ख़ास हलचल पैदा न कर सके लेकिन उन सन्वेदनशील लोगों को जरूर ठेस पहुंचाती है जो प्रकृति, पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों से प्रेम करते हैं. यह पहली खबर नहीं है जब विकास के लिए किसी तालाब के सीने पर कांक्रीट की मीनारें खडी करने की पहल की गयी हो. दुर्भाग्य से हमारे देश- प्रदेश के कई नगर और महानगर इसके जीवंत उदाहरण हैं जहां सैंकड़ों तालाबों और बावडियों, कुओं की कब्र पर कॉलोनियां और सड़कें बना दी गईं.

किसे याद नहीं होगा कि इंदौर जैसे महानगर और देवास जैसे शहरों में कितनी दूर से (लगभग 150 कि.मी.) नर्मदा का पानी लोगों की प्यास बुझाने के लिए लाना पडा है. मुझे याद है आज से कोई तीस बरस पहले देवास में हम परिवार के लोग एक दिन छोड़कर स्नान करते थे क्योंकि उन दिनों इंदौर से पानी रेल गाडी से एक दिन छोड़कर देवास आता था. जबकि जो सड़क हमारे घर तक पहुँचती थी उसके नीचे एक ख़ूबसूरत बावडी दफन कर दी गयी थी. पहले बावडी की भरपूर अनदेखी की गयी फिर उसमें लगातार कूढा-करकट डाला जाता रहा. बावड़ी को पहले जहर देकर बीमार किया गया, फिर क्रमशः मरती हुई वह एक दिन हमारी नज़रों से ओझल हो गयी. यह वही बावडी थी जिसमें उतरकर हम बचपन में रोज नहाया करते थे. 
इसीतरह नगर के एक मात्र टाउन हाल के सामने का ख़ूबसूरत तालाब तलैया में बदल गया और उसके जल भरण क्षेत्र में अट्टालिका खडी हो गयी थी. विडम्बना है कि उसी इमारत की भूतल पर स्थित कोफी हाउस में बुद्धिजीवी और पत्रकार जलसंकट को लेकर विमर्श करते रहे. ये कहानी केवल एक शहर या कस्बे की नहीं है. जल स्रोतों की दुर्दशा के ऐसे अनेक उदाहरण सहज रूप से हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं.
   
इंदौर के पिपलियाहाना तालाब के पानी से आसपास के कई ट्यूबवेल रिचार्ज होते हैं. मालवा सहित देश भर में दिनों-दिन गिरता भूजल स्तर किसी से छुपा नहीं है. दूसरी तरफ कांक्रीट के निर्माणों ने सडकों के बरसाती पानी को जमीन में जाने से रोकने का काम ही किया है.  इसके अलावा गौर करने वाली बात यह भी है कि जिस स्थान पर यह तालाब ( वर्ड-कप चौराहा) अवस्थित है वह भविष्य के बहुत सुन्दर पिकनिक स्पॉट में रूपांतरित होने के लिए पूरी तरह उपयुक्त है. सामान्यतः तालाबों के आसपास का भूखंड मनोरम होता है और उसका विवेकपूर्ण उपयोग ही किया जाना चाहिए. कार्यालयों और संस्थानों के भवनों के लिए अन्य पथरीली, बंजर या अनुत्पादक भूमि को विकसित भी किया जा सकता है.    
अनेक उदाहरण हैं जब प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण को नुक्सान पहुंचाए बगैर विकास किया गया है. न्यायालय परिसर के लिए तो कई स्थान मिल जायेंगे जहां अपराधियों को सजा सुनाई जा सकती है लेकिन विकास के नाम पर एक निरपराध तालाब को मौत या आजीवन कारावास की सजा दिया जाना कतई न्यायोचित नहीं कहा जा सकता. 


ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
मो.न. 09893944294   


Monday, October 26, 2015

भूकंप : दो कविताएँ

भूकंप : दो कविताएँ

कविता-1 
एक दिन


एक दिन धरती कांपती है
और ढह जाता है हमारा सारा अहँकार

संवाद मूक हो जाते हैं
अनंत की ओर यात्रा के प्रस्थान का अभिनय करते
अचेतन में विलीन हो जाते हैं अभिनेता
रंगमंच की छत के नीचे
धूल में बदल जाता है महानाट्य

स्खलित होने लगती प्रमोद की पहाड़ियाँ
दुःख में उमड़ी नदियों में बह जाती हैं खुशियाँ

और एक दिन
ज़रा-सा मद्दिम संकेत भी
धराशायी हौसलों में उम्मीद का टेका लगाता है
सरगम का सबसे कोमल स्वर फूटता है मिट्टी के भीतर से अचानक  
जैसे बीज की नाभि से कोई नया पत्ता निकला हो

सूखा नहीं था माँ का आँचल
निर्जीव देह की बाहों में सिमटा मासूम
अब भी मुस्कुरा रहा था.


कविता-2 

भूकंप के बाद

भूकंप के बाद
एक और भूकंप आता है हमारे अंदर

विश्वास की चट्‌टानें
बदलती है अपना स्थान
खिसकने लगती है विचारों की आंतरिक प्लेटें
मन के महासागर में उमड़ती है संवेदनाओं की सुनामी लहरें
तब होता है जन्म कविता का।

भाषा शिल्प और शैली का
नही होता कोई विवाद
मात्राओं की संख्या
और शब्दों के वजन का कोई मापदंड
नहीं बनता बाधक
विधा के अस्तित्व पर नहीं होता कोई प्रश्नचिन्ह्‌
चिन्ता नहीं होती सृजन के स्वीकार की।

अनपढ़ किसान हो या गरीब मछुआरा
या फिर चमकती दुनिया का दैदीप्य सितारा
रचने लगते हैं कविता।

कविता ही है जो मलबे पर खिलाती है फूल
बिछुड़ गये बच्चों के चेहरों पर लौटाती है मुस्कान
बिखर जाती है नईबस्ती की हवाओं मे
सिकते हुए अन्न की खुशबू।

अंत के बाद
अंकुरण की घोषणा करतीं
पुस्तकों में नहीं
जीवन में बसती है कविताएँ।

ब्रजेश कानूनगो 











  

Sunday, October 11, 2015

दहकते डायलाग


भाषणों में  दहकते डायलाग 
ब्रजेश कानूनगो 

जनसभाओं में भाषणों की समकालीन शैली का मैं कायल हो गया हूँ. कभी शोलेफिल्म का इसी तरह मुरीद हो गया था . कुछ चीजों का हमारे मन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ जाता है कि उन्हें भुला पाना बहुत कठिन होता है.
चालीस साल पहले धधके शोलेके संवादों की गर्मी आज भी वैसी ही बनी हुई है. तेरा क्या होगा कालिया?’ ‘कितने आदमी थे?’ ‘कब है होली? होली कब है?’ ‘तेरा नाम क्या है बसन्ती?’ भुलाए नहीं भूलते.
कहने को ये एक फिल्म के संवाद थे , असल में ये कुछ सवाल थे. इनके उत्तर में क्या कहा गया ज्यादा मायने नहीं रखता मगर सवाल अब तक हमारी जबान पर थिरकते रहते हैं.
आमतौर पर ज्यादातर सवाल बिलकुल साफ़ और स्पष्ट रहते  हैं लेकिन उनके जवाब विविधता के साथ आते हैं. परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों में भी केवल प्रश्न ही छपे होते हैं, हर ईमानदार परीक्षार्थी यदि व्यापम शैली के अपवाद को छोड़ दें तो भी अब तक उनके भिन्न-भिन्न उत्तर ही लिखता रहा है.
आइये ! इसे ज़रा यों समझने की कोशिश करते हैं, जैसे एक प्रश्न होता है - कैसा समय है?’
मैं कहूंगा- अच्छा समय है. साधुरामजी कहेंगे- कहाँ अच्छा समय है..अच्छा समय तो आने वाला है. कोई कहता है- दिन का समय है. वाट्सएप  पर कनाडा से बेटा बताता है –‘नहीं पापा रात है, मगर सूरज की रोशनी है अभी यहाँ . कहीं रात में उजाले का समय है, कहीं दिन में अन्धेरा घिर आया है. अजीब समय है ! लेकिन यह स्पष्ट है कि हर व्यक्ति का अपना विशिष्ठ उत्तर संभावित है.
सच तो यह है कि अक्सर प्रश्न ही महत्वपूर्ण होते हैं, उत्तर नहीं. विद्वानों का मत भी यही रहा है कि विकास के लिए सवाल होना बहुत जरूरी है. उत्तरों की विविधता के बीच से उन्नति की पगदंडी निकलती है. सवालों के उत्तर खोजता हुआ मनुष्य चाँद-सितारों तक पहुंच जाता है. ये सवाल ही हैं जो हमारे अस्तित्व को सार्थकता प्रदान करते हैं.
सही उत्तर वही जो प्रश्नकर्ता मन भाये ! ऐसे उत्तराकांक्षी सवाल करना भी एक कला है जो हर कोई नहीं कर सकता. इसके लिए गब्बर जैसा तन-मन , दमदार आवाज और स्टाइल भी होना चाहिए. सवाल पूछने की भी प्रभावी शैली होना चाहिए. जैसे भीड़ भरी सभा में अवाम से पूछा जाता है ..बिजली आती है कि नहीं? तो लोग एक सुर में उत्तर देते हैं नहीं.बिजली चाहिए कि नहीं?’ उत्तर आता है हाँ,चाहिए?’ ये होता है प्रश्न पूछने का प्रभावी तरीका. कोई ऐरा-गैरा क्या खा कर सवाल करेगा.
केबीसी की भारी लोकप्रियता के बावजूद मैं यहाँ बिग बी के सवालों की शैली से से ज़रा कम सहमत हूँ. यह भी क्या हुआ कि करोड़पति बनाने के लिए हॉट सीट पर बैठे प्रतियोगी से एक प्रश्न किया और उत्तरों के चार विकल्प दे दिए. यह तो कोई ठीक बात नहीं. एक प्रश्न हो, एक उत्तर हो. जैसे पूछा जाता है - इस बार सरकार बदलना है कि नहीं.?’ उत्तर एक ही आता है- हाँ, बदलना है.ये हुई न स्पष्टता. कोई विकल्प नहीं ,कोई भ्रम की स्थिति नहीं उत्तर देने में.
यह सच है कि शोलेफिल्म के संवादों की लोकप्रियता का लंबा इतिहास रहा है. मगर बदलाव के इस महत्वपूर्ण समय में अब पुराने रिकार्डों को ध्वस्त करने का वक्त आ गया है. इन दिनों जो डायलाग जन सभाओं सुनाई देने लगे हैं,उनसे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि अब शोले के संवादों की दहक ख़त्म होने को ही है. 

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
मो.न. 09893944294


Thursday, July 23, 2015

हंगामे का संस्कार


हंगामे का संस्कार
ब्रजेश कानूनगो

भारी बारिश के बावजूद साधुरामजी अचानक बारह ताड़ी की छतरी थामें मेरे घर चले आये. मुझे थोड़ा अचरज भी हुआ. ऐसे खराब मौसम में भले ही कितना ही जरूरी काम क्यों न हो वे घर से नहीं निकलते हैं.
‘क्या बात है साधुरामजी ! इतनी बारिश में यहाँ ?  सब ठीक तो है?’ मैंने दरवाजा खोलते हुए पूछा.
‘सोंचा है आज पूरा दिन आपके साथ टीवी देखेंगे. अकेले–अकेले संसद की कारवाही देखने में मजा नहीं आयेगा.’ अपनी छतरी को सुखाने के लिए वरांडे में फैलाते हुए वे बोले.
‘अरे वाह! यह तो बड़ा अच्छा किया आपनें. मौसम भी बहुत अच्छा है. चाय-पकौड़े और संसद का सत्र. खूब मजा आयेगा. आइये-आइये.’ मैंने सोफे की ओर इशारा करते हुए उन्हें बैठने का आग्रह किया.
‘संसद की कारवाही भी पकौड़ों के आनंद से कम नहीं होती साधुरामजी.’ मैंने चुहुल की. ‘कैसे?’ उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा.  
‘मानसून सत्र की विशेषता ही यह होती है साधुरामजी कि सदन के बाहर बारिश की ठंडी फुहारें होती हैं और भीतर गरमा गर्म बहसों का पकौड़ों की तरह भीतर बैठे सदस्य लुत्फ़ उठाते रहते हैं.’ मैंने कहा.
टीवी चालू किया तो देखा जबरदस्त हंगामें के बाद अध्यक्ष महोदय ने नें सदन की कारवाही आधे घंटे के लिए स्थगित कर दी थी.
‘इस बार थोड़ा मुश्किल ही होगा सदन का सुचारू रूप से चलना.’ साधुरामजी ने आशंका व्यक्त की.
‘इस बार क्यों, सदन का चलना तो हर बार ही मुश्किल होता है. जब ये सत्ता में थे तब भी विपक्ष ने चलने नहीं दिया था. अब ये विपक्ष में हैं तो भी यही होगा, कौन सी नई बात है.’ मैंने कहा.
‘पर इस बार ललितगेट, व्यापम जैसे ज्वलंत मुद्दे हैं.’ वे बोले.
‘तब भी कोयला, स्पेक्ट्रम आदि होते थे. बस नाम ही तो बदला है साधुरामजी. गठबंधन बदला है.  नाम बदलने से कुछ नहीं होता, सब पहले जैसा ही होता रहेगा.’ मैं निराशा में बोलता गया.
‘क्या करें भाई ! यही प्रजातंत्र है. किसी के माथे पर नहीं लिखा होता कि कोई  ठीक काम करेगा. अब देखिये अब उस संस्थान का नाम भी बदला जा रहा है.’ साधुरामजी आज मुझ से थोड़े सहमत दिखाई दिए.
‘केंद्र सरकार ने भी तो ऐसा ही कुछ किया था ‘योजना आयोग’ के साथ. वह भी अब ‘नीति आयोग’ हो गया है. अब देखिये आयोग-आयोग भर ही दिखाई देता है. पहले योजना रुकी रहती थी अब नीति लापता है.’ साधुरामजी ने सरकार पर तंज करते हुए कहा.
‘व्यापम की बिगड़ी छवि सुधारने के लिए उसका नाम ‘भरती एवं प्रवेश परीक्षा मंडल’ कर देने से यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि अब वहां गडबडी नहीं होंगी. कपडे बदल लेने से आँखों का रंग नहीं बदला करता.’ मैंने अपनी बात बढाई.
‘बिलकुल तुम ठीक कहते हो. नागनाथ कह लो या सांपनाथ, दोनों एक ही हैं. दोनों में से कोई भी डस ले हमारा मरना स्वाभाविक ही है.’ साधुरामजी मुस्कुराए.
‘दरअसल, व्यापम संस्था नहीं, संस्कार है साधुरामजी! जैसे कभी कहा जाता था कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त है ,उसी तरह व्यापम तंत्र की रग-रग में समाविष्ट हो गया है. व्यापम में हम इतनें संस्कारित हो चुके हैं कि लगता है उसके बगैर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता. कुछ पाने के लिए व्यापम स्नान के बाद ही फल की आकांक्षा की जा सकती है अब.’ मेरा गुबार निकल रहा था.
‘ठीक है भाई, इतना गुस्सा भी ठीक नहीं. तुम्हारा ही बीपी बढेगा इससे, कहीं अस्पताल न जाना पड़ जाए.’ साधुरामजी ने वातावरण को थोड़ा सहज बनाना चाहा.
‘और वहां किसी व्यापम हितग्राही डाक्टर से सामना हो जाए तो और भी मुश्किल हो जायेगी.’ मैं हंसते हुए कहने लगा.‘ खैर, जाने दीजिये किसी ने कहा भी है ‘नाम में क्या रखा है’ कुछ भी रख लो, जयकिशन नाम बदलकर जैकी हो जाता है तो उसकी नाक छोटी नहीं हो जाती. बहुत समय हो गया है आप भी साधुरामजी ही बने हुए हैं अब तक, आपको भी अब ग्लोबलाइजेशन के दौर में ‘एस राम’ कहूं तो कोई आपत्ति तो नहीं है आपको?’
‘चलो अब टीवी लगाओ, शायद संसद की कारवाही फिर शुरू हो गयी होगी.’ साधुरामजी ने बात बदलते हुए टीवी की तरफ इशारा किया तो मैंने रिमोट का बटन दबा दिया. देखा कि संसद में फिर हंगामा हो गया था , अध्यक्ष ने दोबारा आधे घंटे के लिए कारवाही स्थगित कर दी थी.


ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018     

Monday, July 6, 2015

डिजिटल के भरोसे में


डिजिटल के भरोसे में 
ब्रजेश कानूनगो  

साधुरामजी इन दिनों बहुत खुश हैं. बायपास पर बनी नई-नई टाउनशिप में आये थे तो अक्सर बहुत दुखी रहते थे. पुराने शहर और दोस्तों से दूर होकर उनका मन और तन कमजोर पड़ता जा रहा था. लेकिन जब से जन्मदिन पर अमेरिका में बसे ग्रीनकार्ड धारी सुपुत्र ने एक टेबलेट ऑनलाइन उनको भेंट कर दिया है उनके सारे दुःख दूर हो गए हैं. उनका अकेलापन देश के बुरे दिनों की तरह चला गया है . पूरी दुनिया उनकी हथेलियों में सिमट आईं है. उँगलियो के इशारे पर मनचाहे वातावरण, दोस्तों के बीच दिन भर बतियाते रहते हैं.

‘साधुरामजी आजकल घूमने के लिए आप मुझे लेने नहीं आते, बल्कि मुझे आपके घर आना पड़ता है..कहाँ व्यस्त रहते हैं?’ रोज की तरह शाम को जब हम टहलने निकले तो मैंने चर्चा शुरू करते हुए कहा.
‘अरे भाई , इन दिनों एक कविता कार्यशाला में नवलेखकों को लिखने के सूत्र समझाने में लगा रहता हूँ. छोड़ते ही नहीं देर तक. आप लेने आते हैं तब पता चलता है कि शाम हो गयी है, सैर को जाना है.’ साधुरामजी ने मुस्कुराते हुए कहा.
‘लेकिन आप तो अपने फ्लेट से निकलते ही नहीं और नहीं किसी को आपके यहाँ आते-जाते देखा है, तब ‘कविता-कार्यशाला’ की बात कुछ समझ में नहीं आई!’ मैंने जिज्ञासा व्यक्त की.
‘ये नई चीज है. ओन लाइन कविता कार्यशाला है. वाट्स एप समूह पर चलती है. कविता पर बात होती है, रचना प्रक्रिया से लेकर साहित्य के सरोकारों तक बात होती है यहाँ. इसी में लगा रहता हूँ. तुम भी इस के सदस्य बन जाओ.. मैं एडमिन को तुम्हारा नंबर भेजता हूँ.’ साधुरामजी ने उत्साह से कहा.
‘नहीं-नहीं!  साधुरामजी, मैं तो वैसे ही मस्त हूँ. अखबार और किताबें ही बहुत हैं मेरे लिए. मुझसे यह सब नहीं होगा.’ अपनी अरुचि दर्शाई तो उन्होंने मेरे पिछड़ेपन पर हिकारत से मुंह बिचकाया और बोले- ‘अरे भैया जरा जमाने के साथ चलो..ऐसे तो वहीं के वहीं रह जाओगे..देखो देश ‘डिजिटल इंडिया’ बनने की राह पर चल पडा है और तुम अभी तक पुरानी पीढी के मोबाइल को कान से लगाए बैठे हो. स्मार्ट बनों और स्मार्ट फोन और टेबलेट के रास्ते अपना विकास करो..अपने और देश के सपने पूरे करो..इसी रास्ते से होकर खुशहाली आयेगी..हम विकसित देश की पंक्ति में आ खड़े होंगे !’
‘क्या होगा डिजिटल हो जाने से ? यह सब जुमले बाजी है बस और कुछ नहीं.’ मैंने कहा तो वे चिढ गए.
‘हर अच्छी चीज का विरोध करने की तुमको आदत हो गयी है. जब हमने सेटेलाईट अंतरिक्ष में भेजा था तब भी तुमने विरोध किया था.अब वही देखो कितनी मदद कर रहा है हमारी. हजार चैनल हैं हमारे घर में. मौसम की जानकारी है. सबको लाभ मिल रहा है.’ साधुरामजी खबरिया चैनल पर आये पीएम के उद्बोधन को दोहराने लगे.
‘हाँ, मैं मानता हूँ मोबाइल क्रान्ति से परिवर्तन आया है, डिजिटल होने से एक छोटे से मोबाइल में पूरा भारत सिमट जाएगा..सरकारी तंत्र आपके इशारों पर काम करने लगेगा...  लेकिन प्रश्न तो करना ही पड़ेंगे साधुरामजी.’ मैंने कहा.
‘करिए ना प्रश्न कौन मना कर रहा है. यह एक ऐसी बात है जिससे चुटकियों में आपकी कठिनाइयां दूर हो जायेगी. अस्पताल में आपको लाइन में नहीं लगना होगा, डॉक्टर आपकी बीमारी की दवाई घर बैठे लिख भेजेगा. किसान को खेती की सारी जानकारियाँ खेत खलिहान में ही उपलब्ध हो जायेगी..बीज खाद और तकनीक की जानकारी मिल जायेगी..बहुत सी सुविधाएं मिलेंगी इससे...!’ साधुरामजी टीवी बहस के किसी प्रवक्ता की तरह जोश में बोल रहे थे.
‘साधुरामजी, डिजिटल हो जाने से समय पर बारिश होगी इसकी कोई गारंटी नहीं मिल जाती. मोबाइल लगाने से डॉक्टर अस्पताल में फोन उठा लेगा और गाँव में दवाइयाँ उपलब्ध रहेंगी ही, मुझे विश्वास नहीं हो रहा.’ मैंने आशंका व्यक्त की.
‘भरोसा करना सीखो भाई ! दुनिया हम पर भरोसा कर रही है तुम भी करो ज़रा.’ उन्होंने आश्वस्त करना चाहा.
मैं दुनिया के साथ हो गया. पूरे भरोसे के साथ घर लौटकर बत्ती का स्विच दबाया, बिजली गुल थी. शिकायत दर्ज करने के लिए फोन उठाया..वह शवासन में लीन था . मोबाइल में देखा..सिग्नल शून्य में विलीन हो गए थे. ब्राडबेंड मेरे यहाँ नहीं था.  उम्मीद है साधुरामजी लिंक की मंथर गति से जूझते हुए दुनिया को अपने ड्राइंग रूम में लाने में सफल हो गए होंगे.

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -452018  

   

Friday, May 22, 2015

वाट्स एप समूह बिजूका पर चर्चा- लघुकथाएं- ब्रजेश कानूनगो

वाट्स एप समूह बिजूका पर चर्चा (दि.21 मई 2015) 
लघुकथाएं- ब्रजेश कानूनगो 

1 घुलती पृथ्वी

बहूमूल्य रत्नों के व्यापारी ने अपनी बिटिया के विवाह के उपलक्ष्य में भव्य आशीर्वाद समारोह का आयोजन किया था । ऐसा लग रहा था, रत्नों की सारी चमक पांडाल में उतर आई हो।

तथाकथित बडे लोग पांडाल  के अंदर अपने भरे हुए पेटों को और भरने की असफल कोशिश कर रहे थे। बाहर कुछ छोटे लोग भव्य समारोह के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे।

इन बडे और छोटे लोगों से अलग बैठा छीतू यह समझ पाने में असमर्थ था कि बडे लोगों के  आयोजन पर ये छोटे लोग नारे क्यों  लगा रहे हैं। क्या  मिलेगा उन्हे ऐसा करके ,क्यों  नहीं वे नारे लगाना छोडकर पांडाल के पीछे चले आते ? कम से कम आज तो उन्हें ऐसा लजीज खाना मिल जाएगा,जिसका स्वाद कई हफ़्तों तक जुबान पर बना रहेगा।

तभी एक व्यक्ति  पांडाल के  पिछवाडे आया और बाल्टी भर खाना वहाँ उँढेल गया । इससे पहले कि छीतू के पास बैठा कुत्ता भोजन पर झपटता उसने फैंके  गए भोजन से लड्‌डू उठाकर तुरंत मुँह में रख लिया।

छीतू को लगा जैसे उसनें लड्‌डू नहीं बल्कि पूरी पृथ्वी को अंपने मुँह में कैद  कर लिया हो और दुनिया भर की मिठास उसके  हलक से नीचे उतरती जा रही हो।

पांडाल के सामने  नारे बदस्तूर जारी थे। अंदर टेबलों पर पकवानों की नई प्लेटें सजाई जा रही थी। लेकिन छीतू के मुँह में कैद  पृथ्वी अब तक पूरी तरह घुल चुकी थी।

2 चुइंगम

हाँ तो अभी आपने देखापीडित महिला ने बताया कि किस तरह वह शाम को खेत से काम करके लौट रही थी और किस तरह पाँच बदमाशों ने उसे दबोच लिया।’ टीवी संवाददाता बडे जोश के साथ बता रहा था।

चौबीस घंटे चैनल का पेट भरने के लिए डबलरोटी का बडा टुकडा उसे मिल गया था जिसे कुतर-कुतर कर पूरी रात चबाते रहना था।

बिल्कुल प्रमोदआप बने रहिए वहीं,हम थोडी देर में फिर आपके पास लौटेंगे।’ सीधे प्रसारण को बीच में रोकते हुए स्टूडियो में बैठे सूत्रधार ने संवाददाता से कहाफिर दर्शकों से मुखातिब होकर बोला-जाइएगा नहीं,आगे हम जानेंगें किस प्रकार पीडित आदिवासी महिला ने बहादुरी के साथ अकेले बदमाशों का सामना किया लेकिन अपनी आबरु बचाने में नाकायमाब रही। प्रशासन और राजनेताओं से भी पूछेंगे कि इसी घटनाओं के लिए कौन जिम्मेदार है और इन्हे रोकने के लिए उनके स्तर पर क्या प्रयास किए जा रहे हैं,लेकिन फिलहाल एक छोटा-सा ब्रेक।

उधर टीवी स्क्रीन पर अभिनेत्री ने साबुन बेचने के लिए अपनी देह को मोहक मुस्कान बिखेरती सहलाने लगी इधर एक बच्चे ने रिमोट का बटन दबा दिया। दूसरे चैनल पर संवाददाता और सूत्रधार एक बडी और रसीली चुइंगम चबा रहे थे।

3 सभ्यता
पारुल किसी परी सी लग रही थी अपने सातवें जन्म दिन की पार्टी में ।  बहुत मन से ढूंढ कर खरीद कर लाई थी मम्मी सफेद बर्थ-डे ड्रेस उसके  लिए । बुटिक वाली आंटी ने बताया था ठीक ऐसी ही ड्रेस प्रियंका चौपड़ा ने फिल्म फैशन' में पहनी थी।

पारुल के ताऊजी प्रोफेसर सूर्यप्रकाश जैसे ही आए, पारुल के मम्मी-पापा ने उनके चरण स्पर्श किए।  'ताऊजी को प्रणाम करो बेटा !'पारुल की मम्मी ने जब उससे कहा तो उसके  चेहरे के भाव बदल से गए। शायद यह एक अनपेक्षित आदेश था उसके लिए ।
बेमन से उसने चेहरे और पीठ दोनों मे बल लाते हुए ताऊजी के चरणों को छुआ।

सूर्यप्रकाशजी ने आत्मीय भाव से उसकी पीठ थपथपाई- 'खुश रहो,जीते रहो बेटे!'
'बेड मैनर्स ताऊजी़ ।' पीठ सीधी कर खडे होते ही पारुल गुस्सा करते हुए बोल पड़ी।
क्यों क्या हुआ बेटा ?'  सूर्यप्रकाशजी अचकचा गए।
'लड़कियों की पीठ पर हाथ नहीं रखना चाहिए !'  कहते हुए पारुल अपने दोस्तों के झुंड की ओर दौड़ गई।

सूर्यप्रकाशजी हतप्रभ रह गए । उन्हे लगा जैसे उन्होने अपनी भतीजी को आशीर्वाद न देकर किसी युवा अभिनेत्री के साथ कोई अभद्रता कर दी हो।
जन्म दिन का कैक खाते हुए उनका मुंह कसैला हो रहा था।
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सुषमा अवधूत: : Ghulti ptuthvi samaj ke varg bhed ko batati hai sahi hai kahi khane ke lale to kahi ati khana lekin ye antar kya kabhi mit payega.Koi nari kitni bhi mansik rup se aur sharirik rup se tuti ho media ko keval khabre parosne se kam par ham bhi to kaha oppose karte hai esi khabre chatkhare  lekar sunte ,dekhate hai aur nam bada satik hai chewingum ji se aap jabtak chahe chew karte rahe use khatm karna hamare hath main hai
Sabhyata bas dikhava rah gaya hai aaj ke fashion yug main sabhyata dam tod rahi hai bahut bhavpurn kahani

Tino kahtayen man ko chhune wali hai

 Sabhi kahaniya Bata rahi hai Ki manviy samvedna kaise ,dam tod rahi hai


धनश्री: : "घुलती पृथ्वी" अच्छी लगी अन्न के लिए दोनों वर्गों का आचरण सामयिक है 

2)चुइंगम भी आज की असंवेदनशील मीडिया को दर्शाता है जहा किसी की जान से ज़्यादा टी.आर.पी की पड़ी है।
3) सभ्यता मन में शंका पैदा करता है की क्यों पारुल ने ऐसा किया होगाकहानी के दो पहलु दिमाग में आते है सभ्यता टाइटल सिर्फ एक दिशा में ले जाता है किन्तु कहानी पढ़ते समय ताऊजी नामक किरदार के प्रति शंका निर्माण करता है। शायद आजकल समाज में  होने वाली घटनाए पाठक के दिमाग में नया बीज बोती है।

प्रज्ञा रोहिणी: पहली दो बहुत अच्छी हैं। छोटे लोग और मीडिया की सताई स्त्रियां चाहे वो खबर बनाकर बिक रही हूँ या उत्पाद के संग बेचीं जा रही हो- दोनों का दर्द उजागर हुआ। दरअसल सभ्यता दोनों को ही निगल रही है। वर्ग और लिंग दोनों के आधार पर दोहन। तीसरी कुछ भटक गयी। एक अस्पष्टता है। कुछ मशक्कत से संवर जायेगी। ताऊजी वाला हिस्सा ढंग से नहीं रचा गया।

नन्द किशोर बर्वे:  पहली लघु कथा वर्ग भेद पर कम संसाधनों के असमान वितरण पर तीखा व्यंग्य है। वर्गभेद समाज में शायद जब से इस पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति हुई है तब से रहा हैऔर जब तक यह दुनिया है तब तक रहेगा। शासन व्यवस्था किसी भी प्रकार की होउसके लिए इसका  खात्मा असंभव है। लेकिन हाँ हर व्यक्ति के मन में परस्पर आदर और संवेदना होनी चाहिए। ऐसा समाज तो हमारे प्रयासों से ही बनेगा। दूसरी में नारी के दोनों रूपों में वह शोषण की मारी है। कहीं जबरदस्ती तो कहीं अपनी मर्जी से। तीसरी के बारे में प्रज्ञा जी से सहमत।
रेणुका: Teesri Katha mere Mann ko Chu gayi....aaj ke yug Mein kaise nanhi pariyan apno ke sneh ko tarazu Mein tolne pe majboor hain....aur iska zimmewar shayad aaj ka badalta samaaj evam uski balati mansikta hai[
अशोक जैन:
पहली कथा: वर्गभेद और वर्णभेद से ऊपर एक और भेद है भरा पेट और खाली पेट। छीतू निश्चित ही एक अल्प वय को खाली पेट बालक। उसे सिर्फ और सिर्फ खाली पेट की ज्वाला की चिंता है या वही उसकी समझ से दुनिया की सबसे बड़ी चिंता है। एक लड्डू कुत्ते के झपटने के पूर्व झपट कर स्वर्गीय आनंद की अनुभूति। लेखक का कटाक्ष किधर हैक्या छीतू के अंदर कहीं हम सब तो नहीं छिपे बैठे हैं भौतिक सुखों की लालसा में?


नयना(आरती) पहली कहानी अच्छी बनी है ।आर्थिक असमानता पर व्यंग्य करती।दूसरी नारी की दो भिन्न पहलुओ को दर्शित रोचक कहानी।तीसरी में लेखक/लेखिका क्या कहना चाहती हैं समझ नही पाई

अर्चना चाव: : Dusari katha...jwalant kataksh.....sheershak ..bhi satik. Prathm me bhookh ke aage kuchh nahi...Ashok ji se sahmtTeesree ko aur spasht kiya jana tha ...mere vichaar se

स्वाती श्रोत्रिय मेरे खयाल से लेखक या लेखिका छोटीसी बालिका को अपनों से होने वाले खतरों से बचाना चाहता हो

अशोक जैन: दूसरी कहानी:च्युंगम प्रथम तो एक घृणित दुर्घटना का टी वी संचार माध्यमों के द्वारा बाजार वाद के तहत गंदे तरीके से प्रसारण। पीड़िता का पहले एक बार पांच बदमाशों द्वारा और फिर दूसरी बार टी वी संवाददाता द्वारा मानसिक और शारीरिक अत्याचार। निंदनीय।
किंतु कथा के दूसरे पक्ष में अभिनेत्री का साबुन का विज्ञापन । इस संदर्भ में क्षमा सहित कहना चाहूँगा कि नारी सदैव आकर्षण की केंद्र रही है। इतिहास में इस बात के उदाहरण भरे पड़े हैं। मेनका और विश्वामित्र की कथा सर्वविदित है। अजंता के चित्र देख लीजिये। फिर यहाँ विज्ञापन स्वेच्छा से हो रहा है। नारी का बाजारवाद में उपयोग नहीं होना चाहिए । इस बात का मैं भी समर्थक हूँ। पर यह सदियों से होता आ रहा है और इस भौतिकवाद के युग में बंद होना असम्भव है। हाँ इसे नियंत्रित करना चाहिए।
तीसरी कथा: सभ्यता: दिल को छू गई। यह आधुनिकता कुशिक्षा और टी वी के दुष्परिणाम हैं। पहले स्कूलों में एक विषय नैतिक शिक्षा का चलता था। वह पता नहीं कहाँ गायब हो गया पर सात साल की बच्चीगुड़ियों से खेलने की उम्र में यह सीख गई कि पिता तुल्य व्यक्ति के चरण स्पर्श नहीं करना और अगर उन्होंने ने पीठ पर हाथ फैर कर आशीर्वाद दिया है तो वह गलत नीयत से दिया होगा। हमारी आने वाली पीढ़ी पता नहीं कहाँ जा रही है?


अलकनंदा साने:  पहली कहानी में कुछ भी नया नहीं है । इस विषय पर और इस तरीके की अनेक कहानियां मिल जाएंगी । दूसरी कहानी का व्यंग्यात्मक कहन अच्छा हैपर इसी तरह की कहानी इसी समूह पर कुछ दिन पहलेशायद निधि जैन की पढी थी । तीसरी कहानी झिंझोडती है । रिश्तों में अविश्वास का यह चरम स्वरूप है । इस कहानी को पढते हुए दो दिन पहले की एक खबर याद आ गई । एक महिला नौकरी पर जाते समय अपनी अठारह माह की बेटी को अपने पिता के पास छोड जाती थी और वह विकृत प्रवृत्ति का नाना उस अबोध से दुष्कर्म करता था । रिश्तों का यह वीभत्स स्वरूप है और इसीलिए आजकल मां हर रिश्तेदार से दूर रहने की सलाह देती है । यह कहानी उसीका प्रतिबिंब है ।
लेखक/लेखिका की भाषा संतुलित और सधी हुई है । शिल्प भी बेहतरीन है ।

फरहत:  तीनों कहानियों के भाव पक्ष बेहद मज़बूत हैं। हालाँकि कला पक्ष उतना मज़बूत नहीं लगा। जगह जगह तरमीम की गुंजाईश नज़र आती है।
पहली कहानी में कुछ 'छोटेलोगों द्वारा भव्य समारोह का विरोध करना समझ नहीं आयाअमूमन तो ऐसा देखने में नहीं आता फिर आख़िर किस वजह से ऐसा किया जा रहा था?
दूसरी कहानी में लेखक ने अपनी बात बा-ख़ूबी कह दी।
लेकिन तीसरी कहानी के बारे में प्रज्ञा जी से सहमत हूँ। इसमें लेखक की आधी बात ही समझ में आईकेवल इतना ही समझ में आ सका कि लेखक बता रहे/रही हैं कि बच्चों के संस्कार और उनकी मासूमियत हमारी तथाकथित प्रगतिशीलता की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। 
लेकिन ताऊजी के भाव समझ नहीं आयेउनको केक ख़ुशी-ख़ुशी खा लेना चाहिए था। :)

कविता वर्मा: आज की लघु कथाएं श्री ब्रजेश कानूनगो जी की हैं। तीनो कहानियों पर विस्तृत चर्चा हुई।पहली कहानी जहाँ वर्ग भेद और असमान वस्तु वितरण  को इंगित करती है वहीँ छोटे लोगों द्वारा विरोध के कारन को स्पष्ट नहीं करती। लघुकथा में हर वाक्य हर शब्द की अहमियत होती है और बात जितनी सटीक और विषय केंद्रित हो उतना प्रभाव छोड़ती है। एक कथा के माध्यम से कई कोणों को छूने की कोशिश कथा को लम्बा और विषय से भटकने वाला बना सकती है। दूसरी कहानी में शीर्षक चुइंगम डबल रोटी का टुकड़ा और कुतर कुतर कर सारी रात चबाना में सटीक तारतम्य नहीं बैठ पा रहा है ऐसा मुझे लगा। अगर इसे जुगाली कहा जाता .. या सिर्फ चुइंगम से बिम्बित किया जाता तो ज्यादा ठीक लगता। तीसरी कहानी भी एक साथ दो बातों को दर्शाते हुए थोड़ी भटक गई है। एक सात वर्षीय बच्ची माता पिता या स्कूल में सिखाये सावधानी के पाठ को अपने पराये सही गलत के बीच परिभाषित नहीं कर पाई ये ठीक है लेकिन 

 'ताऊजी को प्रणाम करो बेटा !पारुल की मम्मी ने जब उससे कहा तो उसके चेहरे के भाव बदल से गए। शायद यह एक अनपेक्षित आदेश था उसके लिए ।
संस्कारों के लिए उस बच्ची में उपेक्षा भाव इस कहानी के भाव पक्ष को दुविधा में डालता है। इसे लेकर दोनों पक्षों को प्रस्तुत करती दो बढ़िया कहानियां लिखी जा सकती हैं। कहानियों की भाषा संतुलित है।

ब्रजेश कानूनगो (रचनाकार का वक्तव्य)
मित्रोंबहुत आभारी हूँ कि आज समूह में मेरी तीन लघुकथाओं पर चर्चा की गई।
ख़ुशी है कि कहानियों के जरिये जो बात मैं कहना चाहता था वह पाठकों तक पहुंचाने में सफल हुआ।
घुलती पृथ्वी मेरी प्रारंभिक लघुकथाओं में से एक है जो 35 वर्ष पूर्व लिखी गई थी।कई जगह प्रकाशित है।लघुकथा संग्रहों में भी संगृहीत की गई है।नई दुनिया के दीपावली विशेषांक में भी आई थी। मुम्बई के हीरा व्यापारी द्वारा आयोजित भव्य समारोह के विरोध में लिखी गई थी।तब वैसी शादियां धर्मयुग सहित अन्य पत्रिकाओं में टिप्पणी का विषय बना करती  थी। अब तो आम हैं ऐसे भव्य विवाह।
: 2 चुइंगम कहानी नईदुनिया के नायिका परिशिष्ट में  प्रकाशित है। इस कहानी के सन्दर्भ में मुझे वरिष्ठ आलोचक व  लघुकथाकार श्री सतीश दुबे ने बहुत अच्छी प्रतिक्रया देकर प्रोत्साहित किया था। उनका कहना था लघुकथा के पारंपरिक घिसे पिटे विषयों से अलग यह नए विषयों की और लघुकथा को लेजाने का प्रयास है ।बाद में इसे एक समीक्षात्मक लेख की मुख्य लघुकथा के रूप में रखकर लागुकथाओं पर व्यापक बातचीत की गयी थी. 

तीसरी कहानी सभ्यता समाज में आये भटकाव की ही कहानी है।छोटी बच्ची को पालक जामाने के चलन के मुताबिक़ ही आगे बढ़ा रहे हैं मगर समाज में घट रही घटनाओं से चिंतित भी रहते हैं। अपने बच्चों को जीवन में अच्छे बुरे के बारे में सीख भी देना चाहते हैं लेकिन यह भी चाहते हैं की वे अपने संस्कार भी न छोड़ें।
बुजुर्ग प्रोफ़ेसर छोटी बच्ची को छोटी बच्ची ही समझते हैं।मगर समाज में आई गन्दगी से न सिर्फ पालक बल्कि पाठक भी पूर्वाग्रह से पीड़ित है।जिसका शिकार प्रोफ़ेसर ताउजी हो रहे हैं।कहानी में भी और समाज में भी।हरेक ताऊ आसाराम नहीं होता।
कहानी तो यही रहने वाली है हमेशा। बदलाव  तो समाज में ही लाना अपेक्षित है। देखें कब ऐसा होगा। जब ताउजी को ताउजी की तरह ही देखने की दृष्टि हम पा सकेंगे। लघुकथा  नयी दुनिया में प्रकाशित है। संग्रह में लाने से पूर्व इसे और प्रभावी बनाने की कोशिश करूंगा। यद्यपि मेरा अनुरोध है कि तीसरी कहानी 'सभ्यताको अब एक बार अकेले फिर से पढ़ा जाए।सभी साथियों का बहुत आभार और धन्यवाद।

प्रज्ञा रोहिणी :  बधाई बृजेश जी।
फरहतशुक्रिया बृजेश जी।

सही बात है कि कभी कभी कहानी को एक बार पढ़कर सारी बातें साफ़ नहीं हो पातींऐसे में हर नुक़्ता समझने के लिए दोबारा पढ़ना आवश्यक हो जाता है।

ब्रजेश कानूनगो:कई बार यह भी होता है पहली प्रतिक्रिया आने के बाद पाठक एक राह पकड़ लेता है।नए कोण और बिम्ब उसको देख भी नहीं पाता फरहत भाई। केवल रचना पढ़कर अपनी बात कुछ अलग कही जा सकती है।यह बहुत आम है।
फरहत:  जी। बेशक असर पड़ता है।

ब्रजेश कानूनगो दरअसल तीनो लघुकथाओं के पीछे कुछ सत्य घटनाएं रहीं हैं।मुम्बई के हीरा व्यापारी की बेटी के विवाह का भव्य आयोजन कोई 30/35 बरस पहले हुआ था जिसका आम मध्यवर्गीय लोगों द्वारा विरोध हुआ था। प्रदर्शन भी हुए थे।मगर बहुत निम्न वर्गीय छीतू की समझ से यह बिलकुल बाहर था।ऐसा होता था ।अब भी होता है । पर अब हमारी संवेदनाओं की दिशा और विषयों में अंतर आया है।यह मैंने आपकी जिज्ञासा के उत्तर में कह रहा हूँ।विमर्श के बाद। फरहत जी।
फरहत जी। अब मुझे समझ आ गयी ये बात। शुक्रिया।
यानी ये बात काफ़ी पुरानी हैजब प्लेटें सजाई जाती थीं खाने के लिए।
आजकल तो खड़े होकर खाना आम बात हो गयी है और शादी में बेतहाशा ख़र्च करना भी।

ब्रजेश कानूनगो: 24 घंटे चैनल का पेट भरने के लिये डबल रोटी हो या चुइंगम।कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।उनकी मजबूरी ।[5/21/2015, 8:30 PM] +91 94 10 010363:  सही।

ब्रजेश कानूनगो खबर को रबर की तरह खींचना और मिठास समाप्त हो जाने के बावजूद चिंगम की तरह खबर को चलाने की वजह से दूसरी लघुकथा का शीर्षक में वह बिम्ब रचा गया है। कविता जी।

बाजार ने नारी को एक वास्तु की तरह प्रस्तुत किया है अशोक जैन जी।यह तो अब पुरानी बात हो गई है।बाजार अब इससे भी आगे बढ़ गया है।शीतल पेय का विज्ञापन हो या बाइक का।साबुन का हो या शेविंग क्रीम अथवा टेल्कम पाउडर का।सारे विज्ञापन का संगीत और प्रस्तुति देखिये लगता है कंडोम सेक्स टॉयज का विज्ञापन किया जा रहा हो। चॉकलेट और चॉकलेट फ्लेवर के कंडोम के विज्ञापनों में अब कोई अंतर दिखाई नहीं देता।
हमारे सामने बहुत ज्वलन्त विषयों की भरमार पड़ी है।बस लिखा जाना शेष है। शुरुआत हो भी चुकी है। अशोक जैन साहब।

निधि जैनअच्छी कहानियाँ हैं पर लघुकथाओं के मानक पर खरी नही उतरती हैं।
ब्रजेश कानूनगो   जी।
मैंने अपने संग्रह में इन्हें छोटी बड़ी कहानिया ही कहा है निधि जी।
विधा नहीं मेरे लिए विषय वास्तु और विरोध जरूरी रहा है।
हमेशा से।


अशोक जैन आप सत्य कह रहे हैं । यह सब गलत है किंतु इन सबकी नीति निर्धारण करने वालों की नजर में यह सब गलत नहीं है और दुर्भाग्य से कई जगह नीति निर्धारण में महिलायें भी हैं।  इस सम्बंध में बहुत लिखा जा चुका हैलिखा जा रहा और लिखा जायेगा। किंतु यह तो घटने के बजाय बढ़ रहा है।

ब्रजेश कानूनगो यही चिंता की बात है जैन साहब लेखक बस कह भर सकता है।
अशोक जैन:  तीनों कथायें श्रेष्ठ हैं किंतु हर व्यक्ति की अपनी अपनी सोच और दृष्टि होती है। कई बार यह भी देखा है कि लेखक ने एक दृष्टिकोण को लेकर रचना लिखी और पाठक को उससे बेहतर दृष्टिकोण नजर आता है।

ब्रजेश कानूनगोइसका रास्ता ही अच्छा आलोचक दिखाता है।वह पाठक और लेखक के बीच सेतु का काम करता है।

अशोक जैन ब्रजेश जी अपनी बात तो कहते ही रहना चाहिए। पाठक के अंतर्मन पर कुछ न कुछ छाप तो पड़ती है और फिर कुछ नहीं तो स्वांत सुखाय तो है ही।

ब्रजेश कानूनगो रचना का हर पाठ उसका नया कोण पाठक के लिए खोलता है जैन साब।
विशेषकर कविता में तो यह बहुतायत से होता है।

निधि जैन: जी ब्रजेश जी 
आपकी कहानियां प्रभावी हैं.इन्हें कहानी कहना ही उपयुक्त होगा

मीना राणा शाह ब्रजेश जी बढ़िया कहानी हैं ...पेट की मज़बूरी ,चैनलों पर ख़बरों की दुर्गति और रिश्तों पर हो रहे अविश्वास का अच्छा उदाहरण हैं ये कहानियाँ...जहाँ तक लघु कथा का सवाल है तो मापदंड कहीं तय नहीं हो पाते हैं ...अभी एक पत्रकार महोदय लप्रेस (लघु प्रेम कथा ) लिख रहे हैं ये भी तो लेखन का एक नया रूप आ रहा है ...बहर हाल कहानियाँ अच्छी हैं


डॉ गरिमा: आज प्रकाशित तीन अच्छी और चुटीली लघुकथाएँ हैं।देखन में छोटे लगें,घाव करें गंभीर...कम शब्दों में कहनी ही लघुकथा का गुण है।यह कहानी की सबसे नजदीकी विधा है।लेकिन कहानी का सार नहीं। लघुकथा में सामयिक समस्याओं  को केंद्र में रखा जाता है। अक्सर लेखक समाधान देता है ,न भी दे तो किसी समस्या के सबसे चुटीले पक्ष को संकेत से उजागर करना ,यानि पाठक का ध्यान उस और आकृष्ट कर पाना भी पर्याप्त है।"भारत का हिंदी लघुकथा संसार "_राजकुमार घोकड़ की पुस्तक इस दृष्टि से एक अच्छा शोध है।हिंदी में माधवराव सप्रे की "एक टोकरी भर मिट्टी"से इस विधा की शुरुआत होती है।कई पत्रिकाएं ऐसी हैं जो सिर्फ लघुकथाएँ ही छापती हैं । हंस और पाखी में भी लघुकथाओं को स्थान दिया जाता है।

आभा जी आखिरी कहानी बहुत प्रभावी लगी। रिश्तों में पैदा हुए अविश्वास और समाज में बढ़ रही पाशविकता को बहुत ही ठोस तरीके से पेश करती। तीनों ही कहानियाँ संक्षिप्त और सटीक हैं।

अर्चना चोव:  Kisi bhi saty ghatna de pterit rachnae jyasfs prabhaav yb faalti hai jb paathk kp is ghatna ko jaankaari ho ....mujhe ye srrkhne ko mila
: Seekhane*

ब्रजेश कानूनगो:  लेकिन वह घटना बस प्रेरणा तक ही सीमित होना चाहिए।कहानी अपने आप में स्वतन्त्र रूप से प्रभावित करे ।यह बहुत जरूरी है। अर्चना जी।

ब्रजेश कानूनगोयथार्थ के साथ कल्पना और सुन्दर और ठीक बुनावट रचना को प्रभावी बनाती है।
अर्चना चोव: Aap likhe khuda baanche type lilhne par bhi aap samjh paae...aabhaari hoo.....mob. Me hindi nahi ho paya hai kshama
[5/21/2015, 10:56 PM] +91 98 93 944294:  इच्छा हो तो सब समझा जा सकता है।आप रात 10.53 पर साहित्य पर बात कर रही हैं  ये क्या कम है।

( बिजूका समूह की साथी सुश्री कविता वर्मा जी के तकनिकी सहयोग के लिए आभार सहित)
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