Sunday, October 12, 2014

सुनों कहानी

सुनों कहानी
ब्रजेश कानूनगो

उन्होने जब देश के लोगों को कुछ कहानियाँ सुनाई तो मुझे बहुत अच्छा लगा। एक परम्परा जो खत्म हो रही थी, आखिर उसे बचाने की पहल तो की गई। सदियों से हमारे यहाँ कहानियाँ सुनाई जाती रहीं हैं और लोग सुनते भी रहे हैं। कहानी सुनने सुनाने की परम्परा नई नही है। गुजरात की कहानी सुनाने से पहले बच्चन साहब बच्चों को शेर की कहानी बडे रोमांचक अन्दाज में सुनाते थे। कहानी सुनने-सुनाने में इसी दिल्चस्पी का लाभ उन कथावाचको ने भरपूर उठाया है जो अपनी दवाओं और ताबीजों की बिक्री के लिए टीवी के चैनलों पर लगातार कथा किया करते हैं। लेकिन यहाँ मैं उन कहानियों की बात कर रहा हूँ जो हमारे दादा-दादी सुनाया करते थे। उन्होने रेडियो पर कहानी सुनाई तो मुझे यही लगा जैसे मेरे दादाजी फिर लौट आए हैं।

फिल्म इतिहास के शोले काल में भी बच्चा जब रात को रोता था तब माँ उसे गब्बर सिंह की कहानी सुनाया करती थी। बच्चा परेशान कर रहा हो, जिद कर रहा हो, शोर किए जा रहा हो तब उस वक्त उसे शांत करने का सफल फार्मूला यह हुआ करता है कि जिद्दी बच्चे को कहानियाँ सुनाना शुरू कर दो। कहानियों में बडी क्षमता होती है। बच्चा अपनी जिद छोडकर कहानी में रम जाता है। जिस वस्तु के लिए वह माँग कर रहा होता है, उस वस्तु को ही भुला बैठता है। कहानी की इसी ताकत को जिसने पहचान लिया समझो बेबात के झंझट से उसने सहज मुक्ति पा ली।

एक कहानी है-  गरीब बालक को ठंड लग रही थी तो वह माँ से शिकायत करता है कि माँ  मुझे ठंड लग रही है। माँ लकडी जलाकर उसकी सर्दी दूर कर देती है। बालक ठंड को भूल जाता है लेकिन भूख लगने की बात करने लगता है। इस पर विवश माँ जलती लकडियों की तपन से उसे थोडी दूर ले जाती है। बच्चा भूख को भूलकर फिर ठंड की शिकायत करने लगता है। आखिर माँ को कहानी का ही सहारा लेना पडता है, वह बच्चे को तोहफे लुटाने वाली परियों की कहानी सुनाने लगती है। बच्चा धीरे धीरे स्वप्न लोक की सैर करने लगता है। माँ भी शांति से अपनी नीन्द पूरी कर लेती है।  

कभी-कभी जिद और आक्रोश की तीव्रता इतनी अधिक बढ जाती है कि कहानी सुनाना उतना असरकारी नही हो पाता। समस्या जस की तस बनी रहती है। तब कहानी का उन्नत स्वरूप आजमाया जा सकता है। नाटक और नौटंकी इसी कार्य को और बेहतर ढंग से कर पाते हैं। नौटंकियों, रामलीलाओं माँचों आदि के जरिए भी लोग अपने दुख, परेशानियों को भुलाने का प्रयास करते आए हैं। आज के समय में टीवी के अनेक धारावाहिकों और कार्यक्रमों ने भी यह काम बखूबी किया है। जब देशवासी परेशान हों, महंगाई ,बेरोजगारी जैसी समस्याओं से दुखी हों तब टीवी माध्यम का विवेकपूर्ण(?) उपयोग जनता को राहत प्रदान कर सकता है। सुन्दर और उल्लास से परिपूर्ण इवेंटों का प्रबन्धन या जहाँ कहीं कोई नौटंकी या नाटक चल रहा हो उनका सीधा प्रसारण जनता के हित में एक बुद्धिमतापूर्ण कदम होगा। अंतत: हमारा उद्देश्य तो यही होना चाहिए कि लोग खुश रहें। कहानियाँ सुनों, नौटंकिया देखो, नाचो-गाओ-धूम मचाओ, छोडो भी ये फिजूल की चिंता कि दवाइयाँ क्यों महंगी हो रहीं हैं, टमाटर, आलू और प्याज का कैसा स्वाद होता है, रेल्वे का टिकिट तत्काल खरीदना क्यों अब हमारे बस में नही रह गया है। स्वाभिमानी बनों, शेर की कहानी सुनों और शेर सा गौरव अनुभव करो।  


Wednesday, October 1, 2014

बाज़ार के विरुद्ध

बाज़ार के विरुद्ध
डा. सुरेन्द्र वर्मा

आजकल हिन्दी साहित्य में, विशेषकर हिन्दी कविता में, बाज़ार के विरोध में एक सुविचारित मुहिम-सी चल गयी है. सतही तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि मानों सभी साहित्यकार बाज़ार के वजूद को ही समाप्त कर देना चाहते हैं. बजाहिरा यह एक नामुमकिन मुहिम है. हर कोई अच्छी तरह से जानता है कि बाज़ार के बिना काम    नहीं चल सकता. हमारी आवश्यकताएं आखिर बाज़ार ही पूरी करता है. छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी, ज़रूरी और गैर-ज़रूरी, आवश्यक आवश्यकताएं, सुविधाप्रदायक आवश्यकताएं और विलासता की वस्तुएं हमें सभी चीजें बाज़ार से ही प्राप्त होती हैं. बाज़ार का उन्मूलन असंभव है. बाज़ार हमारी जीवन-चर्या का एक अंग है. बाज़ार ने हमारी भाषा को भी समृद्ध किया है. न जाने कितने मुहावरे बाज़ार से हमें प्राप्त हुए हैं. हम ‘बाज़ार करते’ हैं, बाज़ार ‘गर्म होता” है, ‘मंदा पड़ता’ है, बाज़ार ‘चढ़ता’ है, बाज़ार “लगता” है. बाज़ार में “आग लग जाती है”, इत्यादि. तरह तरह के बाज़ार हैं, मछली बाज़ार, भिन्डी बाज़ार, शेयर बाज़ार, बाजारे हुस्न. यहाँ तक कि कुछ चीजें, कुछ व्यक्ति “बाजारू”  हो जाते हैं. लोफर, लफंगे बाजारू है. वेश्याएं बाजारू हैं. सच तो यह है कि हम बाज़ार से छुटकारा पाना चाहें तो भी पा नहीं सकते. लेकिन बाज़ार के विरुद्ध मुहिम लगातार जारी रहती है.

     बहुत पहले कबीर लुकाठी हाथ में लेकर बाज़ार में खड़े हो गए थे और उन्होंने ललकारा था जो अपने घर को जला सके वही मेरे साथ आए. सहगल का एक बहुत लोकप्रिय गीत है, ‘बाज़ार से गुज़रा हूँ खरीदार नहीं हूँ – दुनिया का हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ.’ ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है ये सब बाज़ार के विरुद्ध खड़े हैं. उस ज़माने में तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत के बाज़ार में नहीं आईं थीं, फिर बाज़ार के विरोध में ये स्वर क्यों? यदि हम तनिक ध्यान से देखें तो यहाँ बाज़ार का अर्थ हाट-बाज़ार से है ही नहीं. इनका स्वर आध्यात्मिक है. बाज़ार यहाँ दुनिया का प्रतीक है. यह स्वर दुनिया के प्रलोभनों से हमें बचाने की सलाह देता है. यह कहता है कि आप “दृश्य” में शरीक न हों, ‘दृष्टा’ बने रहें. तमाशे का हिस्सा न बनें, बिना किसी लाग-लगाव के बस, दुनिया का तमाशा देखें. ऐसे उदाहरणों की भ्रामक व्याख्या ही हमें बाज़ार की खिलाफत सी लगने लगती है.

     जो दुनियादार है और जो दुनिया में रहना चाहता है उसके लिए तो बाज़ार ज़रूरी है. पूंजी के प्रसार से पहले हाट-बाज़ार एक ऐसा स्थान हुआ करता था जहाँ व्यक्ति अपनी रोज़मर्रा की चीजें खरीदने निकलता था. घी-तेल, अनाज, सब्जी, कपड़ा-लत्ता आदि. लेकिन आज का बाज़ार हमारी आवश्यकताओं को अंधाधुंध बढाने में लगा हुआ है. कुछ व्यक्तियों की क्रयशक्ति भी बढ़ गयी है, व्यक्ति की बढी हुई क्रय शक्ति को बाज़ार पैसा फेंकने के लिए मजबूर कर रहा है. जिनके पास पैसा है उनमें आज हमें दो तरह के लोग दिखाई देते हैं – एक तो वे हैं जो अपने पैसे से ज़रूरत – बेज़रूरत का सामान इकट्ठा करने में पैसा फेंक रहे हैं और इस तरह अपने खुद के खालीपन को भर रहे हैं. ये अपने पैसे का बेहूदा दिखावा करते हैं और दूसरों के सामने स्वयं को अधिक संपन्न दिखा कर अपने झूठे अहम् को पुष्ट करते हैं. दूसरे वे लोग हैं जो अपने पैसे की शक्ति से इतना अविभूत हैं कि वे पैसे को ही सर्वशक्तिमान मानकर पैसा खर्च ही नहीं करते और उसे किसी भी प्रकार अधिक से अधिक बढाने की फ़िक्र में रहते हैं. ज़ाहिर है ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ समाज के लिए हानिकारक हैं. आखिर इन प्रवृत्तियों के लिए ज़िम्मेदार कौन है? इसके लिए ज़िम्मेदार आज की घोर पूंजीवादी व्यवस्था ही है जिसमें बाज़ार का अर्थशास्त्र अनीतिशास्त्र का अर्थशास्त्र बन गया है.
     समृद्ध देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बाज़ार ढूँढ़ने के लिए विकासशील देशों को अपना निशाना बनाती हैं. शुरू शुरू में उन्हें समृद्धि के सपने दिखाती हैं. लेकिन एक बार पैर पसारने के बाद स्थानीय बाज़ार को हड़प  जाती हैं. और खरीदारों को आर्थिक रूप से अपने बाज़ार की चमक-दमक पर पूरी तरह निर्भर कर लेतीं हैं. आज भारत में बाज़ार का अत्यधिक विस्तार हो गया है और वर्त्तमान की अधिकाँश सामाजिक और नैतिक विकृतियों के मूल में बाज़ार का यह विस्तार ही है. पैसे और बाज़ार का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है. जिसके पास पैसा है, वही बाज़ार को सार्थकता प्रदान कर सकता है. बाज़ार उसी को आकर्षित भी करता है. लेकिन जिनके पास काफी पैसा नहीं है, आज का बाज़ार उन्हें भी आकर्षित किए बगैर नहीं रहता. वे इसी बाज़ार के शिकार होने के लिए किसी भी प्रकार से, नैतिक या अनैतिक, पैसा बनाने के लिए बाध्य हो जाते हैं. बाज़ार भी अपनी तरफ से उन्हें लुभाने का कोई तरीका नहीं छोड़ता. वह इंसान की आदिम प्रवृत्तियों को उत्तेजित करने के लिए ‘बाजारूपन’ पर उतर आता है. हर वस्तु को बाजारू बना देता है. आदमी की शर्म, ईमानदारी, गैरत, यहाँ तक कि विद्या तक, सब बिक जाती हैं ताकि बाज़ार फलता-फूलता रहे.

        आज के साहित्यकार ने बाज़ार के इस बाजारूपन को बहुत पैनी नज़र से देखा है और वह इसकी पोल खोलने के लिए शब्दों की मितव्ययता नही करता. बाज़ार की नीचता और उसकी पाशविक ताकत को उसने  भली-भाँति  समझा है और उसे प्रस्तुत करने में कोई कोताही नहीं की है.

          भारत का मध्य-प्रदेश एक बहुत विकसित राज्य नहीं है. लेकिन बाज़ार की चमक-दमक और बाजारवादी प्रवृत्तियों ने वहां भी अपना जाल बिछा लिया है. वहीं के महानगर इंदौर के एक कवि हैं, ब्रजेश कानूनगो. यों तो मुख्यत: उनकी रूचि बाल साहित्य और व्यंग्य लेखन में है, लेकिन उनकी कविताओं का एक संग्रह ‘इस गणराज्य में’ अभी हाल ही में (अगस्त २०१४) आया है. इस संग्रह में जिस प्रकार उन्होंने बाज़ार के बढ़ते वर्चस्व और उसके हानिकारक परिणामो को रेखांकित किया है वह अद्भुत है. उनका कहना है कि आज बाज़ार की गिरफ्त में आया आदमी, ख़ास तौर पर युवा-वर्ग, आदमी न रहकर एक ‘ग्लोबल प्रोडक्ट’ हो गया है, -

भरा होता है उसका बटुआ                                                              जादुई कार्डों की बहुमूल्य संपदा से                                                   दुनिया खरीद लेने का विश्वास                                                          चमकता है उसके चहरे पर                                                             सरकारी करेंसी भी थोड़ी-बहुत होती है उसके पास                                       सत्कार, घूस और डोनेशन में                                                         बड़ी सहूलियत रहती है इससे ...                                                        बहुत पहले से छोड़ दिया है उसने                                                       दकियानूसी पारंपरिक भोजन करना                                                 
फास्ट फूड और बर्गर मिटाते हैं उसकी भूख                                          बहुराष्ट्रीय कम्पनी के प्रमाणित साफ्ट ड्रिंक से                                             बुझाता है अपनी प्यास को....                
और संवेदनशील इतना कि                                           
शेयर मार्केट की तनिक–सी घट-बढ़ से                                                   बढ़ जाती है उसके दिल की धड़कन         (पृष्ठ ७६-७७)

    वस्तुत: युवा मन बाज़ार की बाहरी चमक-दमक से इतना अविभूत हो जाता है कि वह इस चमक के पीछे का मंतव्य समझ ही नहीं पाता.
 ‘सांझ के उजाले और रात के यौवन की पोल / खुलती है सूरज के उजाले में’ लेकिन बाज़ार तो
चलन के मुताबिक़                                                                  सजता है...रात के अँधेरे में                                                            नगरवधुओं की तरह तरोताजा होकर                                                    दु:खों को रोशनी के मेकअप से छिपाते हुए                                                प्रस्तुत होते हैं प्लास्टिक के पेड़.         (पृष्ठ ५८)

     इस बाज़ार में सारा सौन्दर्य ‘सौदागरों की दृष्टि’ पर निर्भर है. भोली-भाली गाँव की सुन्दर कन्या, जो अभी तक ‘सुन्दरता के तमाम (देशज) प्रयासों और गहरे सौन्दर्य बोध के बावजूद’ सौन्दर्य प्रति-योगिता में शामिल नहीं है, को कवि सावधान करता है कि 

‘कजरी तुम्हें सुन्दरी घोषित करने का षडयंत्र प्रारम्भ हो गया है’ अत: यदि तुम बचना ही चाहती हो सौदागरों के चंगुल से तो,

छुप जाओ कजरी किसी ऐसी जगह
जहां सौदागरों की दृष्टि न पहुंचे.       (पृष्ठ ५०)

ब्रजेश कानूनगो कहते हैं इस बाज़ार में सौन्दर्य ही नही ज्ञान का भी यही हाल है -

छोटी सी पगडंडी जाती है इस चमकदार नए बाज़ार में                                       वस्तुओं की तरह जानकारियों का हो रहा है लेन-देन                                        ज्ञान के लेबल लगे खाली कनस्तरों के इस व्यापार में                                       बेच रहे हैं चतुर सौदागर अपना माल                                                    पूरे सलीके के साथ
एक भीड़ है बाज़ार में आँखों पर पट्टी बांधे                                                जो ठगे जाने के बावजूद बजा रही है तालियाँ                                             बार बार लगातार    (पृष्ठ ३७-३८)

     एक संवेदनशील बेचारा पिता कैलीफोर्निया गई अपनी बच्ची को नक़्शे में ढूँढ़ता है. ‘चालीस डिग्री अक्षांश और / एक सौ दस डिग्री देशांतर के बीच में / यहाँ इधर, थोड़ा हटकर, बस यहीं / यही तो है कैलीफोर्निया,नक़्शे की रेखाओं से होता हुआ                                           पहुँच रहा है पिता का हाथ                                                             बेटी के माथे पर.                 (पृष्ठ २९)

     इस बाज़ार में हर चीज़ नीलाम हो रही है, 
‘जाने क्या क्या बिक जाता है चुपचाप’ और मज़ा यह है कि ‘सामान और खरीदार इतने सजे-धजे / कि मुश्किल है उनमें भेद करना.’ पहले भी खरीदी जाने वाली वस्तुओं की नीलामी सरे बाज़ार, बोल कर हुआ करती थी. लेकिन कवि ब्रजेश जी कहते हैं

नीलामी का अब / दिखाई नहीं देता बाज़ार / चिल्ला चिल्लाकर / बोलियाँ नहीं लगाता कोई   खामोशी से नीलाम हो जाते हैं बेटे / सहारों में सजकर / भूखे बच्चों के लिए /                         नीलाम हो जाती हैं विवश माएं / बच नहीं पाते उर्वर पद और शहर /                               गोपनीयता नीलाम हो जाती है गुपचुप / गिरती सरकार को बचा लेते हैं / नीलाम हुए विधायक / अब शोर नहीं होता / नीलामी के अदृश्य बाज़ार में / जाने क्या क्या बिक जाता है चपचाप.      (पृष्ठ 24)

          इसी प्रकार निबंधकार सत्येन्द्र चौधरी ठीक ही कहते हैं कि आजउपभोक्तावादी समाज में चीजों का अधिकतम उत्पादन और उपयोग ही विकास की एक मात्र कसौटी है. लिहाज़ा समाज में वस्तुएं सर्वोपरि होती जा रही हैं और उनपर ज्यादह कब्ज़ा जमाना ही मानव जीवन का उद्देश्य हो जाता है. व्यक्ति किसी भी क़ीमत पर वस्तुओं को पाना चाहता है और उनपर मरना ही उसका जीवन हो जाता है. ...वस्तुओं का महत्त्व ज्यों ज्यों समाज में बढ़ता जाता है वस्तुएं आदमी पर हावी होती जाती हैं. धीरे धीरे आदमी वस्तु का इस्तेमाल नहीं करता, वस्तु आदमी को इस्तेमाल करने लगती है... व्यक्ति के सबसे महत्त्वपूर्ण गुण और विशेषताएं विवेक, बुद्धि, आत्मा आदि, सामग्री में बदल जाते हैं. वे बिक्री के लिए उपलब्ध हैं. उन पर दामों की चिट पडी है. और वे शो-केस में सजे हैं....व्यक्ति में वस्तु तत्व का इजाफा होते जाने के साथ ही उच्चतर मानसिक क्रिया-कलापों के प्रति उसमे एक विराग उपजता है. या उस चेतना का क्षय होता है जो उसमें रूचि ले सके. कला, साहित्य, संगीत उसे सकू नहीं दे पाते, उसके दिमाग के संवेदनशील तंतु कुंद होने लगते हैं.’ (प्राची के स्वर, स्टेट बैंक ऑफ़ इंदौर, २००३)

       यही बात लगभग राज किशोर ने भी अपने निबंध बाज़ार, साहित्य और हिन्दी लेखक’ (प्राची के स्वर) में कही है. वे बत्ताते हैं कि साहित्य मूलत: एक बाज़ार विरोधी घटना है. जिस साहित्य की हम निंदा करना चाहते हैं, उसे बाजारू-साहित्यकहते हैं. बाजारू साहित्य वस्तुत: साहित्य है ही नहीं. वह साहित्य की नक़ल है. कबीर भले ही बाज़ार में खड़े थे लेकिन वे लुकाठी भी लिए हुए थे. कबीर को, राजकिशोर जी कहते हैं, मजबूर होकर बाज़ार में हिस्सेदारी करनी पड़ती थी. वे कपड़ा बुनते थे, वह बाज़ार में ही बिकता था. और उनका कच्चा माल भी बाज़ार से ही आता था. लेकिन यह उनकी विवशता थी. बेशक उनके समय में व्यक्ति और व्यक्ति के सम्बन्ध बाज़ार से निर्धारित नहीं होते थे. फिर भी वे जानते थे कि बाज़ार घरेलू, भावात्मक संबंधों को बिगाड़ता है. इसीलिए उन्होंने केंद्र में ईश्वर रखा और कहा, जो शख्स अपना घर जलाए वह मेरे साथ आए. पर आज मनुष्य को ईश्वर की ज़रूरत नहीं रह गई है. उसके लिए तो लगता है बाज़ार ही ईश्वर हो गया है. ऐसे में एक सच्चे लेखक का उद्देश्य बाज़ार की शक्तियों को नष्ट करके व्यक्तियों के बीच एक घरेलू रिश्ता कायम करना ही हो सकता है.

     लेकिन मुश्किल यह है कि लेखक के नियंत्रण में न तो भौतिक साधन हैं, और न ही वह ऐसा नियंत्रण कायम कर सकता है. फिर भी वह पदार्थ और मनुष्य, और मनुष्य और मनुष्य के रिश्तों को समझना और उनके बेहतर तथा मानवीय रूपों का संधान करना चाहता है. वह रचनाकार होता है, उत्पादक नहीं. अत: वह यही चाह सकता है कि उत्पादन रचनात्मक बने.रचनात्मक उत्पादन मानवीय उत्पादन होता है. उसमें उत्पादक और उपभोक्ता के रिश्ते नहीं होते. मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताओं की मानवीय पूर्ती के रिश्ते होते हैं. इससे बाज़ार की सृष्टि नहीं होती. बल्कि सामाजिक रिश्ते सघन होते हैं. लेखक का लक्ष्य ऐसा ही समाज होता है. हाँ, यह ज़रूर है, जैसा कि राजकिशोर जी आग्रहपूर्वक कहते हैं, लेखक ऐसे समाज का  ‘द्रष्टा है, कार्यकर्ता नही’, सहगल ने यही तो गाया था बाज़ार से गुज़रा हूँ, खरीदार नहीं हूँ – दुनिया का हूँ, दुनिया का तलबगार नहीं हूँ.
     आज का लेखक इसी कोशिश में है. वह मनुष्य की ‘कृत्रिम’ आवश्यकताएं, जो बाजारवाद बढ़ाने में जुटा है, उनके विरुद्ध है, और वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए बाज़ार का आंशिक समर्थन करता है क्योंकि इससे तो सामाजिक रिश्ते किसी कदर मज़बूत ही होते हैं. अत: जब हम कहते हैं कि आज का साहित्य बाज़ार विरुद्ध है तो लेखक वस्तुत: बाज़ार का नहीं, बाजारवाद का विरोधी है, ऐसा समझना चाहिए.

      अक्सर यह भ्रम हो जाता है कि आज का लेखक, साहित्यकार बाजार को ही समाप्त कर देना चाहता है. ऐसा नहीं है. वह बाज़ार को नहीं, बाजारवादी वृत्ति पर काबू चाहता है. वह बाज़ार को सर्वशक्तिमान ताकत बनाने से रोकना चाहता है. वह बाज़ार के ‘बाजारूपन’ पर लगाम चाहता है. उसका एतराज़ बाज़ार का बेहूदा हो जाने पर है. वह बाज़ार को मर्यादित, सीमित करने का इच्छुक है. और इसका अर्थ है की व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं का बाज़ार के इशारे पर अंधाधुंध इजाफा न करे, और वह बाज़ार के नाम पर अपनी मानवीय भावनाओं और मर्यादाओं को अक्षुण्य बना रहने दे,  बाज़ार की बलिवेदी पर वह अपनी नैतिकता की बलि न दे. आज का कवि या साहित्यकार जब बाज़ार का विरोध करता है, बाज़ार की आलोचना या समीक्षा कर रहा होता है, तो उसका आशय यही है कि बाज़ार ज़रूरत की एक वस्तु है और उसे मनुष्य की मानवी ज़रूरतों के दायरे में ही रहना चाहिए. भारतीय चिंतन में मूल्यों के त्रिवर्ग की जो कल्पना की गयी है, उसमे धर्म, अर्थ और काम का उल्लेख है. लेकिन अर्थ और काम मूल्यवान तभी हैं जब वे धर्म से मर्यादित हों. अमर्यादित बाज़ार उस मनुष्य को ही नष्ट कर देता है जिसकी ज़रुरत के लिए वह बना है. बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट ने आज बाज़ार को भस्मासुर बना दिया है. अकूत ताक़त का प्यासा यह राक्षस उस मनुष्य (की मनुष्यता) के सिर पर ही हाथ रखकर उसे ख़त्म करने पर आमादा है जिससे कि उसने यह ताकत प्राप्त की है.

n  डा.सुरेन्द्र वर्मा                                   
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