सुनों कहानी
ब्रजेश कानूनगो
उन्होने जब देश के लोगों को कुछ कहानियाँ सुनाई तो मुझे बहुत अच्छा
लगा। एक परम्परा जो खत्म हो रही थी, आखिर उसे बचाने की पहल तो की गई। सदियों से
हमारे यहाँ कहानियाँ सुनाई जाती रहीं हैं और लोग सुनते भी रहे हैं। कहानी सुनने
सुनाने की परम्परा नई नही है। गुजरात की कहानी सुनाने से पहले बच्चन साहब बच्चों
को शेर की कहानी बडे रोमांचक अन्दाज में सुनाते थे। कहानी सुनने-सुनाने में इसी
दिल्चस्पी का लाभ उन कथावाचको ने भरपूर उठाया है जो अपनी दवाओं और ताबीजों की
बिक्री के लिए टीवी के चैनलों पर लगातार कथा किया करते हैं। लेकिन यहाँ मैं उन
कहानियों की बात कर रहा हूँ जो हमारे दादा-दादी सुनाया करते थे। उन्होने रेडियो पर
कहानी सुनाई तो मुझे यही लगा जैसे मेरे दादाजी फिर लौट आए हैं।
फिल्म इतिहास के शोले काल में भी बच्चा जब रात को रोता था तब माँ उसे
गब्बर सिंह की कहानी सुनाया करती थी। बच्चा परेशान कर रहा हो, जिद कर रहा हो, शोर
किए जा रहा हो तब उस वक्त उसे शांत करने का सफल फार्मूला यह हुआ करता है कि जिद्दी
बच्चे को कहानियाँ सुनाना शुरू कर दो। कहानियों में बडी क्षमता होती है। बच्चा
अपनी जिद छोडकर कहानी में रम जाता है। जिस वस्तु के लिए वह माँग कर रहा होता है,
उस वस्तु को ही भुला बैठता है। कहानी की इसी ताकत को जिसने पहचान लिया समझो बेबात
के झंझट से उसने सहज मुक्ति पा ली।
एक कहानी है- गरीब बालक को
ठंड लग रही थी तो वह माँ से शिकायत करता है कि माँ मुझे ठंड लग रही है। माँ लकडी जलाकर उसकी सर्दी
दूर कर देती है। बालक ठंड को भूल जाता है लेकिन भूख लगने की बात करने लगता है। इस पर
विवश माँ जलती लकडियों की तपन से उसे थोडी दूर ले जाती है। बच्चा भूख को भूलकर फिर
ठंड की शिकायत करने लगता है। आखिर माँ को कहानी का ही सहारा लेना पडता है, वह
बच्चे को तोहफे लुटाने वाली परियों की कहानी सुनाने लगती है। बच्चा धीरे धीरे
स्वप्न लोक की सैर करने लगता है। माँ भी शांति से अपनी नीन्द पूरी कर लेती है।
कभी-कभी जिद और आक्रोश की तीव्रता इतनी अधिक बढ जाती है कि कहानी
सुनाना उतना असरकारी नही हो पाता। समस्या जस की तस बनी रहती है। तब कहानी का उन्नत
स्वरूप आजमाया जा सकता है। नाटक और नौटंकी इसी कार्य को और बेहतर ढंग से कर पाते
हैं। नौटंकियों, रामलीलाओं माँचों आदि के जरिए भी लोग अपने दुख, परेशानियों को
भुलाने का प्रयास करते आए हैं। आज के समय में टीवी के अनेक धारावाहिकों और
कार्यक्रमों ने भी यह काम बखूबी किया है। जब देशवासी परेशान हों, महंगाई
,बेरोजगारी जैसी समस्याओं से दुखी हों तब टीवी माध्यम का विवेकपूर्ण(?) उपयोग जनता
को राहत प्रदान कर सकता है। सुन्दर और उल्लास से परिपूर्ण इवेंटों का प्रबन्धन या
जहाँ कहीं कोई नौटंकी या नाटक चल रहा हो उनका सीधा प्रसारण जनता के हित में एक
बुद्धिमतापूर्ण कदम होगा। अंतत: हमारा उद्देश्य तो यही होना चाहिए कि लोग खुश रहें।
कहानियाँ सुनों, नौटंकिया देखो, नाचो-गाओ-धूम मचाओ, छोडो भी ये फिजूल की चिंता कि
दवाइयाँ क्यों महंगी हो रहीं हैं, टमाटर, आलू और प्याज का कैसा स्वाद होता है,
रेल्वे का टिकिट तत्काल खरीदना क्यों अब हमारे बस में नही रह गया है। स्वाभिमानी
बनों, शेर की कहानी सुनों और शेर सा गौरव अनुभव करो।
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