Saturday, August 11, 2012

श्वेतपत्र का सच


व्यंग्य
श्वेतपत्र का सच
ब्रजेश कानूनगो
सिंगापुर के प्रधानमंत्री सचमुच कलापारखी हैं जिन्हे हमारी सरकार के कालेधन पर जारी श्वेतपत्र में कुछ दिखाई दिया। उन्होने इस पर आपत्ति जताते हुए कहा है कि इस श्वेतपत्र में सिंगापुर का उल्लेख चोरों की पनाहगार की तरह हुआ है। 

दरअसल जो लोग थोडा बहुत रंगों या फोटोग्राफी की समझ रखते होंगे वे ‘कांट्रास्ट’ की अवधारणा को भी समझते होंगे । अब देखिए यदि रात को आसमान की कालिमा और सितारों के बीच कांट्रास्ट नही होता तो क्या हम उस अद्भुत वातावरण और खूबसूरत चान्दनी का आनन्द उठा सकते थे।

कालेधन पर श्वेतपत्र जारी करके सरकार जब कांट्रास्ट का प्रभाव पैदा करती है तब वह कला में उसकी समझ को भी प्रमाणित करता है। चूंकि धन जो है वह काला है, इसलिए उसे उजागर या स्पष्ट करने के लिए सफेद से बेहतर कोई पृष्ठ्भूमि हो ही नही सकती ,इसलिए श्वेतपत्र लाया जाता है ।  रेड पेपर या ब्लेक पेपर भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है ,लेकिन इसमें बडा झमेला खडा हो सकता है । पहले तो ब्लेक पेपर में उतना कांट्रास्ट नही बनता। ब्लेक में ब्लेक मनी का सही सही चित्र उभर नही पाता। जनता को लगता है कि सरकार की नीयत ठीक नही है और वह कालेधन के प्रश्न पर ईमानदार नही है। वैसे भी आधी रात के हंगामें के अनुभव के बाद सरकार कोई काम अन्धेरे में नही करना चाहती है। रेडपेपर प्रस्तुत करने का तो प्रश्न ही पैदा नही होता। बहुत वर्षों तक सुनते रहे थे-‘ये लाल रंग कब मुझे छोडेगा..’ । वर्तमान सरकार का मानना है कि लाल रंग से जितना दूर रहें उतना अच्छा। हंसिया हो या हथौडा, ग्लोबलाइजेशन के दौर में लाल रंग के ऊपर ये निशान सरकार को बडे खतरनाक नजर आते रहे हैं। सो, कालेधन पर श्वेतपत्र लाना ही सरकार की मजबूरी होती है और एकमात्र विकल्प भी।

सरकार विरोधी विशेषज्ञ कहते हैं कि कालेधन पर जो श्वेतपत्र जारी किया गया उसमें  कमियाँ हैं। कांट्रास्ट मे दोष के कारण विषयवस्तु की छबि उभर ही नही पा रही। कुछ का मानना है कि यह एक कोरा कागज है। न तो इसमें कालेधन के स्वामियों के नाम उजागर हुए हैं और नही इन्हे भारत मे वापिस लाने के कोई उपाय सुझाए गए हैं। लोकपाल और लोकायुक्त से कालेधन पर शिकंजा कसने की बात तो कही गई है लेकिन लोकपाल विधेयक के फुटबाल को बडी चतुराई से मैदान के बाहर किक करने के प्रयास हो रहे हैं । सबसे जोरदार प्रतिक्रिया तो यह आई कि यह श्वेतपत्र ‘बिकनी’ की तरह है जो महत्वपूर्ण हिस्सों को छुपाकर कम महत्व की चीजों को उजागर करता है। अब यहाँ बिकनी के बारे में स्पष्ट करना तो शायद पाठकों की समझ के प्रति अन्याय ही होगा। जिस देश में हमारे प्रतिनिधि सदन में स्त्री सौन्दर्य का गहन अध्ययन करते हों वहाँ स्त्रियों की मामूली पौषाख के बारे में बताना उचित नही होगा। मैं तनिक विपक्ष के वरिष्ठ नेता के इस बयान से असहमत हूँ। श्वेतपत्र यदि ‘बिकनी’ की तरह है और महत्वपूर्ण हिस्सों को छुपाकर कम महत्व के हिस्सों को प्रदर्शित करता है तो वह बिकनी की तरह कैसे हुआ? बिकनी में हमारे शरीर के हाथ,पाँव,सिर आदि पूरी तरह दिखाई देते हैं। इसी हाथ में ‘पंजा’ भी होता है।

अब यह बडे संतोष की खबर है कि अंतत: सरकार की कलाकारी और श्वेतपत्र के कांट्रास्ट को सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सिएन लूंग ने ठीक से समझा और अपनी प्रतिक्रिया से मनमोहनसिंहजी को अवगत कराया ।



ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क कनाडिया रोड, इन्दौर-18 

Friday, August 10, 2012

नेताओं के घटिया बयान देने की प्रवृत्ति का सच


नेताओं के  घटिया बयान देने की प्रवृत्ति का सच  
ब्रजेश कानूनगो

बड़े नेताओं के बयानों के गिरते स्तर पर टिप्पणी करने से पहले एक कठिनाई यह भी है कि आखिर बड़े नेता हम किन्हें मानें? केव बड़े पदों पर या बड़ी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाले हमारे प्रतिनिधि क्या सचमुच बड़े कहलाने योग्य रह गए हैं? वर्तमान समय में मुझे तो ऐसा कोई  नेता दिखाई नही दे रहा जिसे हम अपना सच्चा राजनीतिक लीडर कह सकें

नेताओं के घटिया बयान आज सुर्खियों में दिखाई देतें हैं ,यह सब अचानक नही हो गया है। नेता जो बोलते हैं उसके पीछे पतन की एक लंबी डगर रही है। पिछले पाँच दशकों में हमारे समाज में धीरे-धीरे ऐसे परिर्वतन हुए हैं कि सामूहिक आचार-विचार और सहिष्णुता पर स्वार्थ की कालिख नें समझ की रोशनी को धुंधला बना दिया है। सफलता के शार्टकटों की अन्धी  दौड़ ने हमारी सारी रचनात्मक और सामाजिक परंपरा को ही ध्वस्त कर डाला है।

हमारे बुजुर्ग  और गुरुजन एक पूरी पीढ़ी को विचारवान, कर्मवीर तथा सहिष्णु बनाने में सक्षम होते थे, किंतु अब संस्कारों की यह नदी भी सूख सी गई है।मूल्यहीनता हमारे नए संस्कार हो गए हैं। संघर्ष,सच्चाई और ईमानदारी के लंबे रास्ते का चुनाव मूर्खता सिद्ध किया जाने लगा है। कोई पथप्रदर्शक ,चिंतक या कोई आंदोलन गलत के विरोध में खड़ा होता है तो उसको नष्ट करने की सुनियोजित षड़यंत्र शुरू हो जानें में देर नही लगती। आज जो नेता बयानबाजी करते हैं तब उनके  शब्द किसी विचारधारा,नैतिक मूल्यों या सार्वजनिक कल्याण के वैचारिक विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य नही होते बल्कि राजनीतिक स्वार्थ्य और मीडिया में सुर्खियाँ बटोरने की चाहत का नतीजा भी होते हैं। उनका टारगेट वर्ग भी हमारी वही आम जनता होती है जिसकी समझ का विकास भी इसी समाज में इन्ही स्थितियों के बीच हुआ है।

सच तो यह है कि नेताओं के बयानों पर नहीं ,सच्चे नेता गढ़ने की सही प्रक्रिया  और नेतृत्व विकास की संस्थाओं के शुद्धिकरण एवं सार्थकता पर चिंतन होना चाहिए।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क ,कनाडिया रोड,इंदौर-18

Thursday, August 9, 2012

पहला पदक गणराज को


पहला पदक गणराज को
ब्रजेश कानूनगो

पुराणों मे संकेत मिलते हैं कि गणेशजी ओलिम्पिक खेलों के पहले पदक विजेता थे।  दरअसल गणेशजी एक बहुत अच्छे एथेलिट भी थे लेकिन उनका बुद्धिमान होना उनकी ख्याति का प्रमुख कारण बन गया।  यह भारतीय खेलों के लिए ठीक नही कहा जा सकता जब एक खिलाडी की बौद्धिकता उसके व्यक्तित्व पर इस कदर हावी हो गई कि उसके खिलाडी पक्ष का मूल्यांकन ही नही हो पाया। जो थोडा बहुत इस सन्दर्भ में सामने आया है,उससे पता चलता है कि गणराज बडे अच्छे वेट लिफ्टर और बुद्धिमान धावक भी रहे हैं। नि:सन्देह यह प्रश्न खडा हो सकता है कि जब गणेश वेटलिफ्टर थे, तो धावक कैसे हो गए? भारी भरकम शरीर के साथ उनके धावक होने की बात आसानी से गले नही उतरती। परंतु सच्चाई यही है कि वेटलिफ्टर होने के बावजूद पदक उन्हे दौडने के लिए ही मिला था।

शंकरजी के दोनो बेटे खेल-कूद मे बहुत रुचि रखते थे। इधर गणेश वेटलिफ्टिंग का अभ्यास करते उधर कार्तिकेय दौडने की प्रैक्टिस किया करते थे। बच्चों की रुचि को बढावा देने के लिए महादेव ने खेल महोत्सव का आयोजन किया। यह गणेशजी और वेटलिफ्टिंग का दुर्भाग्य था कि गणेशजी के भारवर्ग में कोई अन्य प्रतियोगी ही नही आया, अत: वेट लिफ्टिंग प्रतियोगिता ही रद्द करना पड गई। गणेशजी के पास कोई विकल्प नही था, मजबूरी में उन्हे दौड प्रतियोगिता मे उतरना पडा। कहा जाता है उन दिनों मैराथन के लिए पूरी पृथ्वी की दौडकर परिक्रमा लगानी पडती थी। गणेश अपना सामर्थ्य जानते थे। भारी भरकम शरीर के साथ दौडने की बजाय उन्होने अपनी बुद्धि का उपयोग करना उचित समझा। भगवान शिव और देवी पार्वती प्रतियोगिता के निर्णायक थे। शंकरजी ने डमरू बजाया और धावक दौड पडे। बुद्धिमान गणेशजी ने निर्णायकों की ही परिक्रमा शुरू कर दी। उन दिनों खेलों में कोई नियम वगैरह तो होते नही थे। यह कहीं नही बताया गया था कि पृथ्वी से क्या तात्पर्य है। गणेशजी का तर्क था कि माता-पिता का चक्कर लगाना, पृथ्वी के चक्कर लगाने जितना ही महत्वपूर्ण और प्रभावी है। बुद्धि कौशल में गणेशजी के आगे कौन टिक सकता था। उनका तर्क काल विशेष में अकाट्य था। निर्णायकों को गणेशजी के पक्ष मे निर्णय देना पडा। इस तरह ओलिम्पिक का पहला पदक गणेशजी के नाम हो गया।

पौराणिक ओलिम्पिक में हमारे खिलाडियों ने बडा नाम कमाया है। तीरन्दाजी में अर्जुन और एकलव्य,  भारोत्तोलन और डिस्क थ्रो में श्रीकृष्ण, ऊंची और लम्बी कूद में श्रीहनुमान ,कुश्ती में भीम और दुर्योधन इत्यादि अपने समय के धुरन्धर खिलाडी रह चुके हैं। अर्जुन का तीर मछली की आँख भेद देता था। हनुमान की कूद समुद्र लांघ जाया करती थी। श्रीकृष्ण एक उंगली पर पर्वत उठा लेते थे। उम्मीद तो यही है कि आधुनिक ओलिम्पिक खेलों में भी हमारे खिलाडी इस गौरवशाली परम्परा को जरूर कायम रखेंगे।  

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-18