Tuesday, December 10, 2013

रेल में पढाई

रेल में पढाई
ब्रजेश कानूनगो

हम इन्दौर से उदयपुर के लिए रेल से यात्रा कर रहे थे। दिन का सफर था। सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक के सफर को चाहें तो बोरियत मानें या फिर रोमांच। प्राकृतिक वातावरण मुझे हमेशा लुभाता रहा है। यात्राओं के दौरान मैने शायद ही कभी कोई पुस्तक या अखबार समय काटने के लिए खोला होगा। कम्पार्टमेंट के भीतर और खिडकी के बाहर की हलचल और वातावरण से जुडे रहना मुझे सदैव अच्छा लगता रहा है।

एक युवा दम्पत्ति भी हमारे साथ यात्रा कर रहा था और उनके साथ 3-4 वर्ष की उनकी बिटिया भी थी। जैसे ही गाडी ने इन्दौर शहर पार किया, बच्ची की माँ ने अपने बैग से चार लाइनों वाली कॉपी,पेंसिल और एक रबर(इरेजर)  निकालकर बच्ची को थमा दिया। संयोग से उस कम्पार्टमेंट में सीटों के बीच खुलनेवाली छोटी सी टेबल भी थी। बच्ची ने बिना किसी ना-नकुर के अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। उसने न सिर्फ अंग्रेजी की छपाई वाले अल्फाबेट सुन्दर अक्षरों में लिखे बल्कि लिखाई वाली लिपि(रनिंग अल्फाबेट) भी कॉपी पर सुन्दरता से लिख डाली। माता-पिता, 3-4 घंटों तक लगातार अंग्रेजी और गणित का अभ्यास उससे कराते रहे। आश्चर्य की बात यह थी कि वह यह सब अभ्यास पूरी रुचि और गुणवत्तापूर्ण ढंग से तो करती रही लेकिन आसपास की हलचल और खिडकी के बाहर के वातावरण से पूरी तरह बेखबर बनी रही।  जब वह थक गई तो ऊपर की बर्थ पर उसे सुलाकर पति-पत्नी निश्चिंत ताश खेलने लग गए।
पता नही क्यों मुझे यह सब अच्छा नही लग रहा था। मैने युवा दम्पत्ति से कुछ कहना भी चाहा तो मेरी पत्नी ने मुझे रोक दिया,क्योंकि इस बीच वे अपनी प्रतिभाशाली बेटी के बारे में पत्नी से बहुत कुछ कह चुके थे। पत्नी भी उन लोगों में इतनी घुल मिल गईं थीं कि यात्रा के दौरान अपरिचितों का उत्साह कम करके उन्हे दु:ख नही पहुँचाना चाहती थीं।  

मेरा मानना है कि उक्त दम्पत्ति ने यात्रा के दौरान कॉपी,किताब,पेंसिल थमाकर छोटी सी बच्ची को प्रकृति और जनजीवन से सीखने की सहज एवं सार्थक प्रक्रिया से दूर रखकर बिटिया के हित में कोई ठीक काम नही किया था। पढाई लिखाई और अभ्यास के बहुत अवसर होते हैं, लेकिन प्रकृति और जीवन की हलचल से सीखने, समझने के लिए ऐसी यात्राएँ बाल मन पर गहरे से अंकित होती हैं।

डिब्बे में बैठे विभिन्न संस्कारों वाले लोगों की बातचीत, गोबर की गन्ध से सना  खेत से सीधे गाडी में चढा किसान, हरे पत्तों के दोनों में जामुन-बेर बेचती आदिवासी बालिका, चना,चाय बेचते व्यक्ति, बाँसुरी बजाता नेत्रहीन बालक , डिब्बे की सफाई करता विकलांग बच्चा, क्या कुछ नही सिखाते हमारे बच्चों को। इन्हे अनुभव कर उनके अन्दर संवेदंशीलता का अंकुरण सम्भव होता है  माता पिता चाहें तो खेत, खलिहान,पशु पक्षी,नदी, तालाब,   नहरें, पहाड,मजदूर,किसान,सूर्यास्त, गोधुली,वर्षा,इन्द्रधनुष,गाँव,ट्रेक्टर बैलगाडी, विद्युत प्रवाह,कारखाने बहुत कुछ रेलगाडी की खिडकी के बाहर का नजारा दिखा कर बच्चों के मन पर ज्ञान-विज्ञान, लोगों के रहन सहन और समाज को समझने के अमिट अक्षर अंकित कर सकते हैं।

यह सब नही कर पाने  के लिए मैं सहयात्री युवा दम्पत्ति को पूरी तरह दोषी नही मानता। बहुत से आग्रह और आकांक्षाएँ हैं जिनके कारण युवा पालकों की प्राथमिकताएँ बदली हैं। अभी भी भी बटर फ्लाय को तितली, रेनबो को इन्द्रधनुष ,फ्लावर को फूल और स्मेल को गन्ध कहने वाले हम जैसे लोग आज  समझ नही पा रहे हैं कि आखिर गलती कहाँ हो रही है, कहीं हम ही तो भ्रमित नही हैं।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-452018



Saturday, October 5, 2013

भजन-कीर्तन नही हैं ये गीत

भजन-कीर्तन नही हैं ये गीत
ब्रजेश कानूनगो

बस में सफर कर रहा था। ड्रायवर ने पुराने गानों की ऑडियो सीडी चला रखी थी। साठ-सत्तर के दशक के फिल्मी गीत बज रहे थे। सोच रहा था ,कितनी मेहनत करते थे वे संगीतकार। कोई न कोई राग या लोक धुन या उसके समकक्ष की मधुरता बनी रहती थी। शब्दों के अर्थ और संगीत की लय के साथ,बन्द आँखों के बावजूद अभिनेताओं के हाव-भाव की अनुभूति हो रही थी। अचानक मेरे सहयात्री युवकों ने चिल्लाकर बस ड्रायवर से कहा-‘अरे यह क्या ‘भजन-कीर्तन’ लगा रखा है,कोई नई सीडी लगाओ।’

मैं हतप्रभ रह गया। इतने अच्छे मधुर और रोमांटिक गानों को युवक ‘भजन-कीर्तन’ की संज्ञा दे रहे थे। कुछ समय पहले के ही मुकेश,मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के लोकप्रिय गीतों को उन्होने भजन कहा। कम से कम यह संतोष की बात थी कि उन्होने  उन अमर गीतों को बकवास नही कहा। युवकों के चेहरों पर बोरियत के भाव थे तथा उन तथाकथित भजनों को वे सुनना नही चाहते थे। उन्ही गीतों के उटपटांग और आधुनिक संगीत साधनों के साथ बनाए रिमिक्सों और पनर्प्रस्तुतियों पर थिरकने से शायद ही उन्हे कोई आपत्ति होती हो।

आज भी मधुर संगीत आ रहा है,लेकिन कुछ तो है जो उन्हे भजन की संज्ञा नही दिलवाता। गीतों में कोई ताल अथवा लय ऐसी है,जो उनकी मधुरता और साठ-सत्तर के दशक की मधुरता से इन्हे अलग करती है। अपने बचपन में हम देखते थे कि अनेक भजन मंडलियाँ  मन्दिरों में अखंड भजन कीर्तन किया करती थीं।चौबीसों घंटे निबाध। सात-सात दिनों तक मंडलियों के भले ही पहरे(आवृत्ति) बदलते रहते थे,लेकिन कीर्तन सतत जारी रहता था। हम कहते थे भजन हो रहे हैं। बडा मजा आता था। ईश्वर की आराधना में गाए जाने वाले भजनों के अलावा अवतारों की लीलाओं,निगुण भजन,संसार-सार और आध्यात्मिक भजनों की श्रंखलाएँ चला करती थीं।  फिल्मी गीतों की भजन के रूप में पैरोडियाँ भी चलन में थीं। बहुत अच्छे भजन जब फिल्मों में आते थे तो उन्हे भी भजन नही कहा जाता था, फिल्मी गीत या भक्ति रचनाएँ ही कहा जाता था।

कुमार गन्धर्व का गायन हम बरसों साक्षात सुनते रहे हैं। कबीर,सूर,मीरा और मालवा में प्रचलित भजनों को उन्होने खूब गाया। वे भजन गाते तो हमें वे भजन ही नही लगते थे। उनकी सभा में हमें शास्त्रीय संगीत की महान ऊँचाइयों की स्वर साधना की अनुभूति होती थी। उनके गीतों (चाहे वे भजन ही क्यों न हों) से गुजरना हमारी स्मृति की धरोहर है। कानडकर बुआ(प्रसिद्ध मराठी कीर्तनकार) जब कथा समाप्ति के बाद भजन–कीर्तन करते थे तो सैकडों श्रोताओं के साथ भावनात्मक तादात्म्य स्थापित हो जाता था और सबकी आँखों से आँसू बहने लगते थे। वह होता था कीर्तन। लेकिन साथ-सत्तर के दशक के मधुर फिल्मी गीतों को भजन–कीर्तन कहना, कुछ और ही संकेत करता है।
ब्रजेश कानूनगो

503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इन्दौर-452018 

Tuesday, October 1, 2013

सदाचार का टीका

व्यंग्य
सदाचार का टीका
ब्रजेश कानूनगो

साधुरामजी उस दिन बडे परेशान लग रहे थे। कहने लगे ‘देश में यह हो क्या रहा है,जहाँ देखो वहाँ छिपा हुआ कालाधन निकल रहा है, चपरासी,बाबू से लेकर अधिकारियों और बाबाओं से लेकर नेताओं,व्यवसाइयों तक के यहाँ छापे पड रहे हैं और करोडों की राशि बरामद हो रही है। घोटालों के इस महान समय में नैतिकता ,ईमानदारी,सच्चाई,सदाचार,सज्जनता, शालीनता जैसे मूल्य पुराने और कालातीत होते जा रहे हैं, भ्रष्टाचार के  दानव ने मूल्यों को सड़ाकर उसकी सुरा बनाकर उदरस्थ कर ली है।’
‘लेकिन अब हम क्या कर सकते हैं इसके लिए ? हमारे पास कोई ऐसा नुस्खा तो नही है जिससे सबके अन्दर सदाचार के बीज बोए जा सकें।’ मैने कहा।  
‘मैने तो पहले ही चेताया था कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या के समय गिरी उनके खून की बून्दों से सनी मिट्टी की नीलामी रोक कर उसे हम प्राप्त कर लें, लेकिन हमारी सुनता कौन है।’ साधुरामजी बोले। ‘अभी भी समय है जब बापू के रक्त से सनी मिट्टी को वापिस प्राप्त करने की कोशिश की जाए। हमारे लिए वह बहुत उपयोगी हो सकती है।’
‘इससे क्या होगा?’ मैने जानना चाहा।
‘गाँधीजी के खून की इन अंतिम बूंदों का अध्ययन हमारे देश के हालात और चरित्र सुधारने में हमारी मदद कर सकता हैं।’ उन्होने कहा। ‘वह कैसे ?’ मैने जिज्ञासा व्यक्त की।     
‘वैज्ञानिक बापू के खून की बूंद का परीक्षण विश्लेषण करें और पता लगाएँ कि  उनके रक्त में ऐसे कौन से घटक और तत्व थे जिनके  कारण बापू में सच्चाई,ईमानदारी,जुझारूपन तथा दृढ़ता जैसे गुण हुआ करते थे। हिमोग्लोबिन की तरह ऐसा ही क्या  कोई त्व खून में मौजूद था जिसके  कारण अहिंसा और संघर्ष की भावना को विकसित करने वाले रसों और कोशिकाओं का निर्माण होता था। क्या बकरी के  दूध के  सेवन की वजह से उनके  क्त में ऐसे गुणकारी तत्वों का प्रादुर्भाव हुआ था जिससे उन्हे अंतिम आदमी के दुखों की चिन्ता लगी रहती थी। पदयात्राओं के  कारण कहीं उनके  क्त  में स्वदेशी और मानव प्रेम के सकारात्मक जीवाणुओं का विस्तार तो नही हुआ था।’ साधुरामजी किसी चिकित्सा विज्ञानी की तरह बोल रहे थे।
‘इस अध्ययन से क्या मदद मिलेगी समस्या के निदान के सन्दर्भ में?’ मैने उत्सुकता जताई।
‘बापू के रक्त के अध्ययन के निष्कर्षों के आधार पर  वैज्ञानिक ‘नैतिक’ मूल्यों के प्रत्यारोपण के लिए ‘सदाचार के टीके’ का निर्माण करें।’ साधुरामजी ने स्पष्ट किया।
साधुराम जी के सुझाव में मुझे दम दिखाई दिया। भविष्य में शायद वैज्ञानिक सचमुच ऐसा कर दिखाने के प्रयास में जुट जाएँ।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-18




Wednesday, September 18, 2013

मामा लाए खीर खोपरा

मामा लाए खीर खोपरा
ब्रजेश कानूनगो

पिताजी के श्राद्ध के सन्दर्भ में अपने गाँव जाना हुआ तो देखा मोहल्ले के घरों की दीवारों पर संजा माता पूरे ठाट के साथ बिराजमान थीं।

शाम के धुन्धलके के बीच बालिकाओं के कंठों से निकलते लोकधुनों पर आधारित गीतों के स्वर कानों मे मिश्री घोल रहे थे। लोककला की मालवी परम्परा ‘संजामाता’ के सम्मान मे गाए जा रहे गीतों ने मुझे अपने बचपन मे पुन: लौटा दिया।

गोबर से हर रोज विभिन्न आकृतियों को आँगन की दीवार पर बनाया जाता है और उन्हे फूलों, चमकीली पन्नियों से सजाया जाता है। सूरज , चाँद सितारों से शुरू होकर ‘किलाकोट’ और ‘जाडी जसोदा’ के निर्माण तक आते आते आँगन की दीवार कलाकृतियों से ढँक जाती है। ऐसा लगता है, प्रकृति,समाज,प्रशासन,परम्पराएँ,कलाएँ और आध्यात्म एक साथ बच्चों के तन मन से गुजरते हुए दीवार पर उतर आए हों। श्राद्ध पक्ष में भूले बिसरे पितरों को हम याद करते हैं और ‘संजामाता’ के आयोजन से भूली बिसरी  परम्पराओं एवम कलाओं की याद बालिकाएँ दिला रहीं होतीं हैं।

‘घुड घुड गाडी गुडकती जाए, जीमे बैठिया संजाबाई,घागरो घमकाता जाए,चुडैलो चमकाता जाए।’  बच्चों के मुख से गीत की पंक्तियाँ सुनकर मैने सोंचा आज के समय मे हमारे शहरों मे क्या संजाबाई का इसतरह बन-ठन कर गुडकती गाडी में बैठकर सैर किया जाना सुरक्षित रह गया है। चेन खींचकर भाग जानेवाले बदमाश क्या संजाबाई का चैन नही चुरा लेंगे। गीत के बोल कुछ इसतरह भी किए जा सकते है ‘ संजाबाई घर मे देखो ससुराल गेन्दा फूल, गहने-कपडे गाडी वाडी सब कुछ जाओ भूल। ’

एक अन्य गीत का मुखडा है- ‘चाल हो संजा सखी पाँडु लेवा चालाँ,पाँडु लेवाँ चालाँ दरि, मामा घरे चालाँ, मामा लावे खीर खोपरो,मामी लावे मैथी; मैथी से तो माथो दुखे,खीर खोपरो खावाँ।’ इस गीत मे एक सहेली दूसरी से आग्रह कर रही है कि वह उसके साथ मामा के घर चले। जहाँ से वे घर-द्वार की पुताई के लिए पाँडु(खडिया मिट्टी) लेकर आएँगी। वहाँ पर एक ओर जहाँ मामी मैथी की कडवी सब्जी खिलाएगी, वहीं मामा खीर और खोपरा(नारियल) खिलाकर प्यार बरसाएँगे,इसलिए सखी तू मेरे साथ मामा के घर जाने के लिए तैयार हो जा। लेकिन क्या अब मामा महँगाई के इस दौर मे अपनी भानजियों को खीर खोपरा प्रस्तुत करने का सामर्थ्य दिखा सकता है? मामी की मैथी भी क्या किसी भानजी के लिए संतोष की बात नही होगी। न मिले मामा की खीर, मगर मामी की कडवी मैथी भी अगर प्यार से मिल रही हो तो नाहक भानजियों को अपना माथा नही ठनकाना चाहिए।

एक गीत है- ‘संजा तू थारा घरे जा, कि थारी माँ मारेगी कि कूटेगी कि देली पे दचकेगी। चाँद गयो गुजरात, कि हिरण का बडा-बडा दाँत, कि छोरा-छोरी डरपेगा,भई,डरपेगा।’  इस गीत मे संजा सहेली से दूसरी सखी जल्दी घर लौटने को कह रही है अन्यथा उसकी हिरणी जैसी माँ,जिसके गुस्से रूपी दाँत हैं,उसे मार-मार कर हड्डी-पसली तोड डालेगी,वहाँ उसका चाँद जैसा भाई भी नही है जो व्यापार के सिलसिले में गुजरात गया हुआ है। अत: घर जल्दी लौटकर खैर मना। परंतु आज कितनी ऐसी बेटियाँ हैं जो अपनी माँ का इतना खौफ खातीं होंगी। और कितनी माँए होंगी जो बेटियों की इतनी चिंता पालतीं होंगी।

संजा के अर्थ बदले हैं, रूप बदल रहें हैं। बाजार में चमकीली पन्नियों की संजा आकृतियाँ उपलब्ध है,दीवारों पर चिपकाकर परम्पराएँ निभाई जा रहीं हैं। टीवी सीरियलों के जरिए परम्पराएँ और संस्कार हम तक पहुँच रहें हैं। बहुत सम्भव है किसी धारावाहिक में कोई बालिका(वधू) अपनी सखियों के साथ गाती हुई दिखाई दे-‘चाल हो संजा सखी, ब्यूटी पार्लर चालाँ,सर्राफा मे जाकर लाएँ,इमिटेशन की माला।’ 

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इन्दौर-18

Friday, September 13, 2013

हिन्दी और मेरा आलाप

हिन्दी और मेरा आलाप 
ब्रजेश कानूनगो

सितम्बर  है । यही वह महीना है जिसमें सहजता से यह सुविधा उपलब्ध हो जाती है कि हम भी अपना राग आलाप सकें। ऐसा नही है कि जो बात मैं कहना चाह रहा हूँ वह सितम्बर के पहले नही कही जा सकती थी । लेकिन आमतौर पर सितम्बर में मौका भी होता है और दस्तूर भी होता है। यही वह समय होता है जब हर कोई हिन्दी को लेकर चिंतित हो उठता है। इस वक्त हिन्दी की फिक्र करनेवालों के कोरस में अक्सर यह खतरा हमारे सामने  आ खडा होता है कि कहीं हमारी आवाज दब कर न रह जाए। फिर भी मैं राजभाषा के इस राष्ट्र व्यापी देश राग में अपना अक्खड सुर भी लगाना चाहता हूँ।

राजभाषा का मुकुट पहनकर भी हमारी हिन्दी की आज जो दशा है,वह किसी से छुपी नही है। अभी थोडे दिन पहले का किस्सा शायद ही कोई भूला होगा जब देश के कानून मंत्री सीबीआई  रिपोर्ट की अंग्रेजी सुधारने के चक्कर में अपना मंत्री पद गंवा बैठे थे। अब यदि यह रिपोर्ट हिन्दी में आई होती तो भला क्योंकर मंत्रीजी से सुधरवाने की नौबत आती, विभाग का हिन्दी अधिकारी ही उसकी हिन्दी ठीक कर देता। पर होनी को कौन टाल सकता है। अंग्रेजी महारानी का राज ऐसे ही समाप्त थोडे हो जाता है। वर्षों पहले बोए अंग्रेजियत के बीजों के पल्लवित-पुष्पित होकर फल देने का शानदार समय अब आ ही गया है।

यह वह समय है जब हिन्दी स्वयं अंग्रेजी परिधानों में सुसज्जित होकर प्रस्तुत होने को लालायित दिखाई देने लगी है । किसी हिन्दी अखबार या पत्रिका को उठाकर एक पेंसिल से अंग्रेजी शब्दों पर गोले लगाते जाएँ, सच्चाई आपके सामने होगी । जो शब्द चिन्हित होने से बचेंगे  उनमें से भी अधिकतर ऐसे होंगे जिन्हे आपने हिन्दी का समझकर छोड दिया था।

आजाद हिन्दुस्तान में अपनी सुविधा से हिन्दी लिखने की सबको आजादी है। जो थोडा बहुत लिखा जा रहा है, उसमें व्याकरण,वर्तनी की किसी को परवाह नही है। जो चलन में है वही सही है। स्कूली शिक्षकों तक को बतानेवाला कोई नही कि कहाँ अल्पविराम लगेगा और कहाँ अनुस्वार। कम्प्यूटर प्रचालकों ने जो सुविधानुसार टाइप कर दिया, वही प्रचारित होकर मानक बन जाता है। हिन्दी की हर कोई हिन्दी करने पर आमादा है।

सब जानते हैं कि हिन्दी रोजगार की कोई गारंटी नही देती,अन्य कोई भाषा भी नही देती लेकिन यह भी सत्य है कि  अंग्रेजी के ज्ञान के बगैर नौकरी नही मिलती। मीटिंगों-पार्टियों में हिन्दी में बातचीत नही होती। मॉल और होटलों में सैल्सपर्सन और बेयरे स्वयं को अमरीकी,ब्रिटिश या फ्रेंच जतलांने का प्रयास करते नजर आते हैं। कुछ घंटों में,कुछ दिनों में अंग्रेजी सिखानेवालों की सुसज्जित शॉप्स हमारे मुहल्लों में खुल गईं हैं। पहले मजाक में कहा जाता था कि भारतीय व्यक्ति गुस्से और नशे में अंग्रेजी बोलता है, अब उलटा हो गया है, अंग्रेजी नही बोल पाने पर गुस्सा आने लगता है।

स्थिति तो यह है कि घर के बच्चे दादीमाँ के निर्देश पर गाय को रोटी डालने जाते हैं तो आवाज लगाते हैं-‘कॉउ कम..कम..’ और गाय दौडी चली आती है। टीवी पर एक फिल्मी सितारा मुर्गी से हिन्दी में तीन अंडे माँगता है,मुर्गी दो ही अंडे देती है, सितारा मुर्गी को डाटता है,. हिन्दी नही आती क्या? आय से थ्री.. और मुर्गी आसानी से अंग्रेजी समझकर तुरंत तीन अंडे प्रस्तुत कर देती है। गाय और मुर्गी तक ने समय के अनुसार अपने को ढाल लिया है.. अब हम जैसे हेकड लोगों को भी शायद हिन्दी का हठ छोड ही देना चाहिए। क्या खयाल है आपका।

ब्रजेश कानूनगो

503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-452018 

Saturday, September 7, 2013

व्रत करती स्त्री

व्रत करती स्त्री

प्यासी रहती है दिनभर
और उडेल देती है ढेर सारा जल शिवलिंग के ऊपर

पत्थर पर न्यौछावर कर देती है जंगल की सारी वनस्पति

बनाकर मिट्टी का पुतला
नहला देती है उसे लाल पीले रंगों से

लपेटती जाती है सूत का लम्बा धागा
पुराने पीपल की छाती पर
करती है परिक्रमा पवित्र नदी की
और लगा लेती है चन्दन का लेप
पैरों के घावों पर

सरावलों में उगाकर हरे जवारे
प्रवाहित करती है सरोवर में उन्हे

क्षयित चन्द्रमा को चलनी की आड से निहारते हुए
पति के अक्षत जीवन की कामना करती है व्रत करती स्त्री

एक आबंध की खातिर
सम्बन्धों की बहुत बडी डोर बुन रही है

जैसे बाँध लेना चाहती है धरती-आकाश । 

Thursday, August 8, 2013

घूँसा

कहानी
घूँसा
ब्रजेश कानूनगो

जब घर छोड़ा था तब सारे बाल काले थे . लगभग बीस बरस का अंतराल कम नहीं होता, जिस प्रकार मेरी देह और जुल्फों में बदलाव आया था वैसा ही कुछ अपने शहर को देखने पर महसूस हो रहा था. बरसों बाद मैं अपने शहर में पैदल भटक  रहा था. बहुत ढूँढने के बाद भी मुझे अपने बचपन का वह प्यारा कस्बा कहीं नजर नहीं आ रहा था. सब कुछ जैसे बदल सा गया था. कई मॉल खुल गए थे, शहर जैसे एक बाजार में बदल गया था. आईटी पार्क स्थापित होने की तैयारियां शुरू हो गईं थी. नई-नई कॉलोनियां बसती नजर आ रहीं थीं. पुराने रहवासियों ने अपने बड़े मकानों में या तो किराएदारों के लिए चालें बनवा ली थीं या फिर उन्हें छोटे-मोटे बाजार में बदल डाला था. नगर पालिका परिषद नगर निगम में बदल चुकी थी.  महानगर निगम बनने में शायद कुछ ही समय बचा होगा ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा था,  नगर की सीमा वहाँ तक बढ़ गई थी जहाँ पहले गाँव और लहलहाते खेत हुआ करते थे.   'फिकर नाट पान भण्डार 'या 'क्या चाहिए मिठाई के लिए सीधे चले आइए ' जैसे बोर्डों के स्थान पर 'गुप्ता कंस्ट्रक्शन' अथवा 'कृष्ण कॉलोनी' जैसे बड़े-बड़े बोर्ड लटके नजर आ रहे थे.

पत्नी का आग्रह था कि बिटिया का विवाह अपने शहर से ही किया जाए. रिश्तेदार और परिचित सब इधर ही हैं . उधर हैदराबाद तो कोई आने से रहा. अपना घर है ही यहाँ . छोटा भाई यहीं रहता है.अगर अपनो के बीच कार्यक्रम होता है तो बहुत अच्छा रहेगा. और हम यहाँ आ गए थे. अपने शहर.

शहर जरूर बदल गया था ,मगर हमारा घर वैसा ही आज तक था जैसा हम छोडकर गए थे.मैंने महसूस किया था वे सब घर वैसे ही थे जहाँ संपत्ति का बटवारा नहीं हुआ था. हालांकि ऐसे घरों की संख्या कम ही थी. हम बाहर थे भाई यहाँ नौकरी में था ,स्थानीय नौकरी थी , इसलिए ट्रांसफर आदि का झमेला नहीं था. अगर बटवारा हो जाता तो अभी तक हमारे घर में भी चार दुकानें निकल आतीं. भला बीस-पच्चीस हजार की मासिक आमदनी कौन छोडता है इस जमाने में. फिर बढता शहर था यह,  लेकिन हम ऐसा नहीं कर पाए थे. दुनियादार लोग भले ही मूर्ख समझते रहे ,लेकिन शायद हमने बटवारे की बजाए  घाटा उठाते हुए रिश्तों की रक्षा करने को अधिक महत्त्व दे डाला था. मुझे मालूम था शहर में फ़ैली यह महामारी अब हमारे घर को भी नहीं छोडेगी.लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता था कि यह सब बिटिया के विवाह के बाद ही होगा.

हमारे घर के अलावा नहीं बदला था तो मेरा स्कूल-आनंद भवन प्राथमिक पाठशाला . स्कूल का  यह भवन आज चालीस बरस बाद भी वैसा ही नजर आ रहा था जैसा पहले नजर आता था. भवन को अब  गोबर और पीली मिट्टी से तो नहीं लीपा जाता होगा  लेकिन  देखकर लगता था कि गुरुकुल परम्परा का पालन हमारे वक्त की तरह ही हो रहा है . जब टाटपट्टी बिछाने पर धूल उडती थी. ज्ञान गंगा में नहाने से पहले बच्चे धूल गंगा में स्नान कर लेते थे.अब भी ऐसा ही दिखाई देता  था. अब तो हमारे  स्कूल में  कुछ गरीब बस्ती के बच्चों को ही जाते देख रहा था ,जबकि उस समय शाला में हर वर्ग और हर स्तर के परिवार के बच्चे साथ-साथ बैठकर पढा करते थे. सेठ धर्मदास का सुपुत्र टाट पट्टी पर बैठकर पढ़ता था, तो ठेलागाड़ी चलानेवाले निसार का बेटा अब्दुल भी हमारे पास बैठता था. पुरोहित वृंदावनलाल का बेटा वंशी भी उसी स्कूल में पढ़ता था वहीं मै भी नंगे पैर, कपडे का बना बस्ता लटकाए ,स्कूल की ओर दौड पडता था. स्कूल प्रवेश  के समय पिताजी के   एक चांटे के प्रसाद के कारण कभी स्कूल न जाने का विचार मन में नहीं आया. बस्ते का बोझ दौडने में कभी बाधक नहीं बना , उस समय बहुत सारी पुस्तकें कंधे पर लादकर भी नहीं ले जाना पडती थीं.  मेरा बस्ता मेरी माँ द्वारा हर वर्ष नया सिल कर दिया जाता था. पिताजी का पुराना पैंट पूरी तरह घिसकर जब रिटायर्ड हो जाता तब उसकी तीन चीजें बनती थी . बाजार से सब्जियां,सामान वगैरह लाने के लिए एक थैला,दादी माँ के लिए ठण्ड में पहनने के लिए पूरी आस्तिनों वाला पोलका और मेरे लिए एक बस्ता,जिसे पाकर मैं बहुत खुश हो जाता था.

हर शनिवार को हमारे स्कूल में 'बाल सभा' होती थी. बाल सभा होने के पहले साप्ताहिक टेस्ट होता था. जो लडके फेल हो जाते थे ,उन्हें उस दिन कक्षा की लिपाई करनी होती थी और जो पास हो जाते थे वे 'बाल सभा' में कवितायें, कहानियां  और चुटकुलों का आनंद उठाते थे. अब्दुल और वंशी को कभी बालसभा में रूचि नहीं रही,वे अक्सर कक्षा की लिपाई ही करते थे. 'बाल सभा' समाप्त होती तो सब बच्चे रविवार की छुट्टी के आकर्षण में दौड़ते हुए स्कूल से बाहर निकलते . नीली आँखों वाला बद्री प्रसाद मुझसे पूछता-'कल क्या है ?' मैं खुशी से चहकता 'कल छुट्टी है.' तब बद्रीप्रसाद तुक मिलाते हुए मुझे चिढाता-'तेरी दादी बुड्ढी है.' मुझे बहुत दुःख होता. घर पहुंचकर रोता और दादी को यह बात बताता तो वे मुस्करा देतीं.उनके कुल तीन दाँत थे,वे भी अपनी पकड़ छोड़ बैठे थे.वे मुस्करातीं तो उनमे से एक दाँत लटककर और बाहर निकल आता. वे इस रूप में मुझे और भी ममतामयी लगतीं थीं. वे कहतीं-'बद्री ठीक ही तो कहता है,मैं बुढिया ही तो हूँ..' मैं उनकी गोद में सर रखकर सब कुछ भूल जाता.
कक्षा में बद्रीप्रसाद और मै पास-पास ही बैठते थे. बद्री मुझसे ढाई गुना मोटा था.बद्री के पिताजी शहर के जाने-माने पहलवान थे.उनके साथ बद्री भी कसरत वगैरह किया करता था. बद्री की नीली आँखें उसके कसरती बदन में चार चाँद लगाती थीं. बद्री हमेशा दूसरे सहपाठियों से मेरी रक्षा किया करता था. वह मेरा बहुत अच्छा मित्र था. लेकिन एक छोटी सी घटना ने हमारी मित्रता पर पानी फेर  दिया. मास्टरजी ने हमें कुछ शब्दार्थ याद करके लाने को कहा था. वे एक के बाद एक बच्चे से अर्थ पूछते जा रहे थे.जो बच्चा गलत जवाब देता ,उसे सजा मिलती. उसे पास बैठे सहपाठी का घूँसा खाना पडता था. हालांकि मास्टरजी इसे धौल ज़माना ही कहते थे लेकिन बच्चे पडौसी की पिटाई बड़े जोरदार ढंग से ही किया करते थे. बल्कि हरेक को इंतज़ार रहता था कि कब अपना पड़ोसी गलती करे. जब एक बार मेरी बारी आई तो मास्टर जी ने पूछा-'बताओ रघुवीर 'शक्तिशाली' यानी क्या?' और मैं बगलें झांकने लगा. पास में ही बद्री पहलवान बैठे थे. इशारा होते ही मुझे लगा कि मेरी पीठ से कोई वजनदार चीज टकराई है, और पेट में जैसे कोई गड्ढा सा गहराता जा रहा है.   आँखों के सामने सितारे उभर आए. मै गिर पढ़ा.मास्टर साहब मेरे पास आए, बद्री खुद दौडकर पानी लाया  और मुझ पर छींटे मारे,मुझे पानी पिलाया गया. मै तो ठीक हो गया ,लेकिन इसके साथ ही  मास्टर जी की उस पिटाई परम्परा का भी अंत हो गया. बाद में मैंने बद्री प्रसाद से सदा के लिए बोलचाल बंद कर दी  .फिर कभी हम एक दूसरे से नहीं बोले.मैं उससे दूर इस्माइल के पास बैठने लग गया.

बचपन की यादों में डूबा मै हमारे स्कूल से लगे बाजार में जहाँ खडा  था,उसके ठीक सामने बर्तनों की दूकान थी. मेहमानों को  बिदाई में उपहार स्वरूप स्टील की प्लेंटे देने की योजना थी.मैं दूकान में चढ गया.'भैया ज़रा स्टील की प्लेंटे दिखाना.' मैंने कहा. 'जरूर देखिए साहब.' दुकानदार ने पलटकर कहा. हमारी आँखें मिली. दुकानदार की शक्ल मेरी जानी-पहचानी सी लग रही थी.बरबस मेरा हाथ मेरी पीठ की तरफ गया.दुकानदार ने मुझे पहचान लिया था.-'तुम रघुवीर ही हो ना.' वह काउंटर छोडकर बाहर आ गया था और मेरे गले में उसकी बाहें हार बनकर अपने शहर में मेरा स्वागत कर रहीं थीं.  

ब्रजेश कानूनगो
503 ,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18
मो.न. .09893944294



Monday, June 17, 2013

समाचार सूचनाओं को भी बेचा जा रहा है वस्तुओं की तरह


समाचार सूचनाओं को भी बेचा जा रहा है वस्तुओं की तरह
ब्रजेश कानूनगो

छोटे परदे पर इन दिनों समाचार चैनलों की बाढ सी आई हुई है। खबरों की यह बाढ अपने साथ हमारी बुद्धि और समझ को भी अनायास बहाती ले जाती दिखाई दे रही है। एक ओर हमारी रुचि को तो ये चैनल प्रभावित कर ही रहे हैं वहीं इन समाचार चैनलों पर कई बार विवेकहीनता और उतावलापन भी दिखाई देता है। अत्याधुनिक साधनों से सम्पन्न इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता में विचारपक्ष का  अभाव दिखाई देने से कभी-कभी बहुत पीढा होती है। समाचार चैनलों द्वारा चौबीस घंटे लगातार सूचनाओं का मनमाने विश्लेषण के साथ खबरों की गहराई मे जाए बगैर प्रसारित किया जाना किसी भी विचारवान दर्शक/व्यक्ति  के लिए क्षोभ की बात है। समाचार चैनल के लिए खबर एक डबल रोटी के टुकडे की तरह होती है ,चौबीस घंटे चैनल का पेट भरने के लिए पूरी रात चबाते रहना एंकरों की मजबूरी होती है। संवाददाता ने यदि कोई रसीली बाइट भेज दी है तो फिर क्या है लगातार चुइंगम की तरह खबर का रसास्वादन लगातार जारी रहता है। इन्ही अवसरों को भुनाने के चक्कर मे ऐसे-ऐसे कर्यक्रम परोसे जाते हैं कि सिर धुनने के अलावा कोई रास्ता नही दिखाई देता।

अन्धविश्वास और भूतप्रेत सम्बन्धित ऊलजूलूल  कार्यक्रमों की बात छोड भी दें और केवल समाचार आधारित कार्यक्रमों की बात करें तो अधिकाँश चैनल खबर को पूरी तरह खबर बनने के पहले ही उसका विश्लेषण प्रारम्भ कर देते हैं। ज्वालामुखी फूटा नही कि विशेषज्ञों से पूछा जाने लगता है कि लावे का तापमान और उससे निकलने वाली ऊर्जा कितनी होगी? लावा क्या कभी ठन्डा भी होगा या नही? और वह बहता हुआ कहाँ तक जाएगा। भारत के लोगों को इन परिस्थितियों मे क्या-क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए? प्रभावित लोगों के पुनर्वास मे सरकार की क्या भूमिका होगी? ज्वालामुखी के फटने से किन राजनैतिक पार्टियों को लाभ मिलेगा? शेख चिल्ली की कहानी की तरह मूर्खतापूर्ण विश्लेषण घंटों चलता रहता है। किसी मनोरंजक कार्यक्रम की तरह ये चैनल दर्शकों को बान्धे जरूर रखते हैं लेकिन उनके विवेक और विचारशीलता पर ताला डाल देतें हैं। समाचार चैनलों के एंकरों के अपरिपक्व मस्तिष्क सामने बैठे विचारकों,विशेषज्ञों पर आक्रमण करते दिखाई देते हैं। उनके मुँह से अपने शब्द कहलवाने की कोशिश मे कई बार अभद्रता की हद तक पीछे पडे नजर आते हैं। अपने मतलब का एकाध शब्द विशेषज्ञ विचारक की जुबान से फिसलते ही वे उसे लपक लेते हैं तथा उसे पूरी तत्परता के साथ अधिकृत घोषणा में तब्दील कर दिया जाता है।
वस्तुत: पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे विशेषत: टीवी पत्रकारिता को  बाजारवाद की चकाचौन्ध ने अपनी गिरफ्त मे ले लिया है। समाचार सूचना को भी अब चैनलों द्वारा वस्तु की तरह बेचा जा रहा है और इस व्यापार में विचारशीलता, विवेक और सहिष्णुता जैसे मूल्यों-गुणों को बहुत हद तक नजर  अन्दाज करने मे कोई गुरेज नही है। यह स्थिति न सिर्फ इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता के लिए बल्कि हमारे बौद्धिक विकास के लिये भी कुछ ठीक नही कही जा सकती ।


Monday, May 27, 2013

माँई री मैं कापे लिखूँ....


व्यंग्य
माँई री मैं कापे लिखूँ....  
ब्रजेश कानूनगो

उसने अपने घर की सारी खिडकियाँ खोल रखी थीं, हवा का प्रवेश उसके कमरे में भरपूर हो रहा था,फिर भी बैचेनी जैसे कम होने का नाम ही नही ले रही थी। एक द्वन्द्व सा छिडा हुआ था भीतर। घर की खिडकियों के अलावा उसने अपने लेपटॉप में भी बहुत सारी विंडोस ओपन कर रखी थी। एक-दो में कुछ अखबारों के ‘ई’ संसकरण ,एक में ‘फेसबुक’ और एक में नया डाक्यूमेंट खुला हुआ था जिस पर वह  कभी कुछ टाइप करता तो कभी तुरंत उसे डिलिट भी कर देता था।

ऐसी स्थितियाँ  अक्सर उसके सामने आती रहती थीं,विशेषकर तब जब एक साथ दो-तीन ऐसे सामयिक विषय आ खडे होते थे जिन पर वह  अपनी ‘उलटबाँसी’ लिख देना चाहता है।
अखबारों के सम्पादकीय पेज पर ऐसी ‘तिरछी नजरों’और ‘चुटकियों’ की बडी माँग जो निकल आई है इन दिनों। बडी परेशानी तब होती है जब व्यंग्यकार के सामने ‘तोता’ और ‘मामा’ एक साथ चले आते हैं।  जरूरी नही कि तोते या मामा के आने से कोई ज्यादा कष्ट है। ‘हाथी’ और ‘ताउ’ भी आ सकते हैं यह तो एक उदाहरण मात्र है।

तोते पर तीर चलाएँ या मामा का शिकार करें। हाल यह हो जाता है कि जरा सी देर में देश भर के शिकारी तोते की पसलियाँ और मामा का मुरब्बा सम्पादक के पास पहँचा देते हैं। वह जमाना तो रहा नही कि पहले लिखेंगे,फिर टाइप करवाएंगे,फिर लिफाफा बनाकर डाकघर या कूरियर के हवाले करेंगे ,अब यदि वे ऐसा करेंगे तो वही होगा जो रामाजी के साथ हुआ था,लोग कहेंगे ही ‘रामाजी रैग्या ने रेल जाती री..’ इसलिए वे सबसे पहले रेल में चढना चाहते हैं।
अभी मामा भांजे और तोते से निपटते ही हैं कि संजयदत्त और श्रीसंत आ खडे हो जाते हैं। कहते हैं - लो हम आ गए,अब हम पर लिखो। व्यंग्यकार बडा परेशान है। माँई री मैं कापे लिखूँ..अपने जिया में..संजय और श्रीसंत..। 
बडी दुविधा आ खडी होती है स्तम्भकार के सामने। किस पर लिखे बल्कि पहले किस पर लिखे..संजय पर भी बहुत मसाला तैयार..और श्रीसंत भी अपना गाल आगे करने को तत्पर।  अब यदि संजय पर लिखने बैठते हैं और इसबीच जयपुर का कोई जाँबाज या इन्दौर के कोई भियाजी श्रीसंत पर अपना ई-मेल सेंड कर देते हैं तो फिर श्रीसंत के उनके आलेख का क्या होगा? आप जरा समझिए इस व्यंग्यकार की उहापोह को।

ऐसा कहानीकार या कवि के साथ कभी नही होता। कहानीकार किसी साध्वी और स्वामी की प्रेम कथा तत्काल लिखने की हडबडी में नही होता। स्वामी के सन्यास लेने और साध्वी के संसार में वापिस लौट आने तक वह प्रतीक्षा कर सकता है।  कवि चाहे जब ‘चिडिया’ या     ‘पत्थर की घट्टी’  पर कविता लिख सकता है। चिडिया के विलुप्त होने के बाद और पत्थर की घट्टी के पृथ्वी के गर्भ में समा जाने के बाद भी कवि उसकी याद में गीत गा सकता है। व्यंग्यकार के पास यह अवसर नही है, यहाँ तो बडी हडबडी का माहौल बना हुआ है उसे तो अभी का अभी डिस्पेच करना है।  वरना कोई और अपना माल खपा देगा।
यह कितना अन्याय है इस बेचारे लेखक के साथ कि इतनी मेहनत और त्वरित लेखन के बावजूद उसका उचित मूल्यांकन नही हो पा रहा। कुछ उदार हृदय सम्पादक उसके लिखे पर थोडा-बहुत पत्रम-पुष्पम देते हैं तो ज्यादातर अखबार रचना प्रकाशित करके उसका सम्मान फेसबुकीय दोस्तों में बढवाने का पुनीत कार्य करते हैं। यह भी क्या कम है आज के समय में। वे चाहते तो उस स्पेस में कोई विज्ञापन लगाकर हजारों बना सकते हैं,फिर भी साहित्य के लिए उनका यह योगदान बना हुआ है,उसके लिए तो लेखक को उनका कृतज्ञ होना चाहिए।

बहरहाल, अखबारी व्यंग्य लेखक की अपनी परेशानियाँ होती हैं,जिनका मुकाबला उसे खुद ही करना होता है और वह करता भी है। देशभर के अखबारों के हृदयस्थल में जनरुचि के मुद्दों पर रोज प्रतिक्रिया देना कोई आसान काम भी नही है। इनका जुझारूपन प्रणम्य है। नमन करने योग्य है! इस जीव को हम प्रणाम करते हैं।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-452018 

Tuesday, May 21, 2013

शरद जोशी : भाषा के मैदान में शब्दों से खेलना जिनकी आदत थी


शरद जोशी : भाषा के मैदान में शब्दों से खेलना जिनकी आदत थी
ब्रजेश कानूनगो

आजकल खिलाड़ी अपने जूतों पर पर्याप्त ध्यान देते हैं . खेल कैसा भी रहे जूते अच्छे होना चाहिए. व्यंग्यकार शरद जोशी  ऐसे खिलाड़ी थे जो  हमेशा दूसरों के जूतों में छेद ढूंढते रहे. जूता चाहे साहित्य का ,संस्कृति का,व्यवस्था का,राजनीति का या खेल जगत का रहा हो ,जब भी कहीं उन्हें फटा जूता नजर आया उन्होंने अपना रचनात्मक पैर फंसा दिया. उनका लेखन हमेशा ऐसे जूते तलाशता रहता था जिनमें पर्याप्त छेद हों. फटे जूतों की कभी कमी नहीं रही इस देश में .फटे जूते नजर आते रहे ,शरद जी का व्यंग्य समृद्ध होता रहा. जूते में हुए छेदों से यहाँ आशय सिर्फ उन विसंगतियों से है जिसके कारण समाज में विकार पैदा होता है. विसंगतियों पर प्रहार करना व्यंग्य की अनिवार्य शर्त होती है. हर व्यंग्यकार विसंगति पर चोंट करता है किन्तु शरद जोशी के लेखन में एक अलग कलात्मकता होती थी .उनकी रचनाओं की भाषा में एक ऐसी लय होती थी जैसी किसी श्रेष्ठ फ़ुटबाल या हॉकी खिलाड़ी के खेल में होती है. शब्दों की 'ड्रिबलिंग' करते हुए वे सीधे गोल के अंदर पहुँच जाते थे. शब्दों की यही 'ड्रिबलिंग' उनकी अनेक रचनाओं में कई जगह मौजूद है, सच तो यह है कि जिन रचनाओं में वे शब्दों के साथ इस प्रकार खेलें हैं,वे बड़ी ही प्रभावशाली बन पडी हैं. ऐसी कुछ रचनाओं के उल्लेख के साथ मैं अपनी बात कहने की कोशिश यहाँ कर रहा हूँ.

हा-हॉकी रचना में जहाँ वे भारतीय हॉकी की दुर्दशा पर चिंता व्यक्त करते हैं तो वहीं हॉकी शब्द की भी चीर फाड़ कर डालते हैं. हॉकी के हा के सन्दर्भ में वे कहते हैं- इस 'हा' को समझें ,जिसमें '' की मात्रा उतनी नहीं है जितनी 'जा' में होती है, बल्कि उससे कहीं गहरी और लंबी है. हा   ...!   'हा' को आप इस तरह कहें कि ठण्ड के दिनों में मुँह की साँस कोहरे में अटककर भाप की तरह लगे.... मेरा 'हा' वैसा ही है, वही है ! हा ..हॉकी  ! अडतालीस उनचास के वर्षों के ..हा बापू के लेबुल पर . .. देखिए इसे हाय हॉकी कहकर मत टालिए,यह  'हा' है ..यह वह 'हा' है जो किसी देश के इतिहास में एक दशक में एक बार और भारतीय इतिहास में चार पांच बार फूटता हैहा- महसूस कीजिए कि दर्शकों में आप भीष्म पितामह हैं और यह आख़िरी तीर है जो पूरे महाभारत का मजा खत्म होने के बाद आपको लगा है और उसके बाद आप धराशायी  हो जाएँगे. 'हा अंत' शैली में. ..हा व्यंग्य ! माथा ठोकने के लिए जी कर रहा है. तेरी सफलता के लिए इतनी असफलताएँ.... हा हॉकी ! तूने खूब की ..भारी की ..टीम की तो की ही..पूरे देश की की..! 

हा-की रचना में शब्दों की ड्रिबलिंग है ,वही शरद जोशी अपने लेख ' अथवा पर भाषण ' में शब्दों का पूरा फुटबाल ही खेल डालते हैं.  भाषण का ऐसा शाब्दिक खाका ढालकर वे सामनें रख देते हैं  जो किसी भी अवसर पर दिया जा सकता है. बगैर किसी ज्ञान या विषयवस्तु की जानकारी के बिना भाषण झाड देनेवाले महावक्ताओं  पर व्यंग्य का पैनेल्टी कार्नर ठोकने के साथ ही भाषाई फुटबाल का मैच वे बड़ी आसानी से जीत लेते हैंकहते हैं ' आप भाषण देने खड़े हों ऐसे कि आप पर बहुत कुछ लदा है. हाथी की चाल से धीरे-धीरे मंच तक पहुंचें . एक क्षण के लिए उस महापुरुष की हार से टंगी तस्वीर की ओर देखें और फिर उपस्थित श्रोताओं की ओर, फिर  अध्यक्ष को कनखियों से देख धीरे से कहें'अध्यक्ष महोदय,भाइयों और बहिनों !' एक क्षण चुप रहें. थूक निगलें .हाथ पीठ पर बांधें. झुककर अपने पैर के अंगूठे की ओर देखें और कहें कि आज हम एक ऐसे महापुरुष का जन्म दिन (या जो भी दिन हो) मनाने के लिए एकत्र हुए हैं जो आज हमारे बीच नहीं हैं. (जाहिर है तभी यह सभा हुई ,नहीं तो काहे को होती) आपमें   से बहुत से व्यक्तियों ने इस स्वर्गीय आत्मा (हम उसे '' कहेंगे) '' के विषय में पढ़ा है,जाना है, समझा है और प्रेरणा ली है. हमारे देश में अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है-राम,कृष्ण ,महावीर,गाँधी,टैगोर...'' हमारे  इतिहास के एक ऐसे जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं ,जिनकी चमक कभी कम होगी. ..यों तो श्री '' के बारे में अनेक बांतें कही जा सकतीं हैं खासकर उनके जीवन और विचारों को लेकर क्योंकि मै इन सब में विस्तार से नहीं जाकर ....क्योंकि मेरे बाद अनेक वक्ता हैं,जो '' के जीवन पर प्रकाश डालेंगे.....'' के विचारों को समझाने के लिए उन परिस्थितियों को समझना होगा जो उस समय थीं जब '' ने जन्म लिया और उस जीवन को समझना होगा जो '' ने बिताया. (हर महापुरुष के समय देश एक विशेष परिस्थिति से गुजर रहा होता है और महा पुरुष किसी किसी तरह का जीवन तो बिताता ही है.)  इस तरह शरद जोशी एक ऐसा भाषण लिखते हैं जो दो-तीन घंटे तक प्रस्तुत किया जा सकता है.

श्रीमान'' के बारे में जाने बगैर शरद जी का शब्दों से खेलने का यह कौशल उस समय शिखर पर था जब वे मंच से 'बोफोर्स' नामक रचना सुनाते थे. रचना का हर वाक्य 'बोफोर्स' मय होता था.उनका बस चलता तो वे शब्दकोश के सारे शब्दों को एक ही शब्द दे डालते 'बोफोर्स' . जैसे यह शब्द,हर शब्द का पर्यायवाची हो . शरद जोशी ही हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार,कमीशन और बोफोर्स को एकाकार करके रख दिया था,इसे प्रकरणों पर उन्होंने बीसियों लेख लिख डाले . आज जो देश में स्थितियाँ हैं ,उनकी रचनाएँ उतनी ही प्रासंगिक हैं जैसी तब हुआ करतीं थीं.

शब्दों से खिलवाड करने की यही प्रकृति 'नेतृत्व की ताकत ' शीर्षक रचना में भी बहुत अर्थपूर्ण रूप से सामने आती है. 'नेता' शब्द का विश्लेषण करते हुए वे कहते हैंनेता शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है- 'ने' तथा ' ता'....एक दिन ये हुआ कि नेता का 'ता' खो गया. सिर्फ 'ने' रह गया....इतने बड़े नेता और 'ता' गायब...नेता का मतलब होता है नेतृत्व करने की ताकत . ताकत चली गयी सिर्फ नेतृत्व रहा गया. 'ता' के साथ ताकत चली गई.तालियाँ खत्म हो गईं जो 'ता' के कारण बजतीं थीं. जिसका 'ता' चला गया उसकी सुनता कौन है--  नेता ने सेठजी से कहायार हमारा 'ता' गायब है ,अपने 'ताले' में से 'ता' हमें दे दो . सेठ ने कहा कि यह सच है कि 'ले' की मुझे जरूरत रहती है ,क्योंकि 'दे' का तो काम नहीं पडता ,मगर 'ताले' का 'ता' चला गया तो 'लेकर' रखेंगे कहाँ ..?सब इनकमटैक्स वाले ले जाएँगे... तू नेता रहे कि रहे ,मै ताले का 'ता' नहीं दूंगा .'ता' मेरे लिए जरूरी है कभी ' तालेबंदीकरना पडी तोएकदिन उसने अजीब काम किया .कमरा बंद कर 'जूता' में से 'ता' निकाला और 'ने ' से चिपका दिया...फिर 'नेता' बन गया. ..जब भी संकट आएगा ,नेता का 'ता' नहीं रहेगा,लोग निश्चित ही 'जूता' हाथ में लेकर प्रजातंत्र की प्रगति में अपना योगदान देंगे. कितना सही कहा था शरद जोशी ने, जूते द्वारा प्रजातंत्र के योगदान पर आज की कहानियाँ क्या सचमुच उल्लेख करने की यहाँ  जरूरत रह गई  है .

नए शब्द, नए मुहावरे गढने की ललक उनमे सदैव दिखती रही. इसी ललक को वे अपने निबंध 'तलाश कुछ शब्दों की' के जरिए प्रकट करते हैकहते है कुछ ऐसी स्थितियाँ है जो अपने लिए एक शब्द चाहतीं हैं. जैसे आप खाना खाने बैठे हैं .एक कौर मुँह में रख आप क्रोध से पत्नी की ओर देखकर कहते हैं 'यह खाना है? इसे खाना कहते हैं? ' और आप मुँह का कौर थूक देते हैंपत्नी कहती है'मैं क्या करूँ ,आज नौकर नहीं आया. अब जैसा बना है वैसा खा लो.लाओ गरम कर दूँ .' अथवा वह कहेगी..''हाँ,तुम्हे घर का खाना क्यों अच्छा लगेगा ,उस चुड़ैल के यहाँ जो खा कर आते हो.' आदि. मगर प्रश्न यह नहीं है . प्रश्न शब्द का है. पति को परेशानी है उचित शब्द के अभाव कीअर्थात उस भोजन अथवा खाने के लिए जो कदापि सुस्वादु नहीं है, कौनसा शब्द दिया जाए ? फिर वह अपने बुद्धिकोश से एक शब्द लाता है-  'भूसा' और अपनी पत्नी की परोसी थाली पर चस्पा कर देता है ...'मैं भूसा नहीं खाऊँगा.' ....समस्या है शब्द की . अनेक बातें है जिनके लिए आज शब्द नहीं हैं . नींद में दाँत पीसना, बैठे बैठे यह हिसाब लगाना कि पिताजी मरेंगे तो क्रियाकर्म में कितने रूपए खर्च होंगे ..शत्रु की पत्नी की सुंदरता पर प्रशंसा भरी जलन..हिन्दी बड़ी समृद्ध भाषा है ,जिसमें 'सिटपिटाना' जैसे शब्द हैं,मगर बदलते समय के साथ हर भाषा को नयी दुर्दशाओं के अनुकूल शब्दों की आवश्यकता होती है.

आज हमारे बीच शरद जी नहीं हैं इसीलिए हमें भ्रष्टाचार के कारण मंत्रियों के जेल जाने की प्रक्रिया तथा जेल जाने पर अचानक ह्रदय रोग होने की बीमारी के लिए उचित शब्द नहीं मिल पा रहे हैं. शरद जी के बाद  व्यंग्य में भी नए  शब्दों के निर्माण पर मंदी की छाया स्पष्ट दिखाई दे रही है. शरदजी ने ऐसे अनेक विषयों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया जो व्यंग्य के परम्परागत विषयों से बिलकुल अलग रहे. निसंदेह इसके पीछे उनकी तीखी नजर,चुटीली भाषा और शब्दों की बाजीगरी रही है,जिसके कारण वे ऐसा कर सकेभारतीय जीवन दर्शन तक को माध्यम बनाते हुए बड़ी खूबसूरती के साथ अपनी शैली में व्यंग्य करते हुए ओलंपिक खेलों में भातीय टीम के निराशाजनक प्रदर्शन पर दुखी होकर उन्होंने लिखा ...'खेलों में हार जीत तो होती ही रहती है ,असली बात है खेलों में भाग लेना.. हमारा काम है वहाँ तक जाना और अपनी खेल भावना का प्रदर्शन करना ..कि लो , हम आगए.. अब हमें हराओ . गोल्ड मेडल के मोह में हम प्रायः नहीं फंसते . यह भारतीय जीवन दर्शन के विरुद्ध है कि सोना-चांदी  आदि जो भौतिक माया मोह है ,उसके पीछे  हम दीवाने हों ,परेशान हों, इसलिए पदक हमें नहीं मिलते. यह घटियापन हममें नहीं है कि एक सोने के टुकड़े के लिए सबसे आगे दौड रहे हैं. ' शरद जी के  मन की पीड़ा शब्दों के जरिए प्रकट हो कर पाठकों,श्रोताओं को  भीतर तक उद्वेलित कर देती थी.  

व्यंग्य लेखन का यह योद्धा भाषा के मैदान में शब्दों का सार्थक खेल प्रतिदिन खेलता रहा . साहित्य के अखाड़े में भले ही कुछ आयोजकों ने परहेज किया हो लेकिन  उस एकलव्य ने कभी किसी प्रतियोगिता में उतरने की चाह नहीं रखी. जहाँ भी विसंगति का कुत्ता भोंकता नजर आया उसने अपना तरकश खाली कर दिया.


ब्रजेश कानूनगो ,
503 ,गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-18