समाचार सूचनाओं को भी बेचा जा रहा है वस्तुओं की तरह
ब्रजेश कानूनगो
छोटे परदे पर इन दिनों समाचार चैनलों की
बाढ सी आई हुई है। खबरों की यह बाढ अपने साथ हमारी बुद्धि और समझ को भी अनायास
बहाती ले जाती दिखाई दे रही है। एक ओर हमारी रुचि को तो ये चैनल प्रभावित कर ही
रहे हैं वहीं इन समाचार चैनलों पर कई बार विवेकहीनता और उतावलापन भी दिखाई देता
है। अत्याधुनिक साधनों से सम्पन्न इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता में विचारपक्ष का अभाव दिखाई देने से कभी-कभी बहुत पीढा होती है।
समाचार चैनलों द्वारा चौबीस घंटे लगातार सूचनाओं का मनमाने विश्लेषण के साथ खबरों
की गहराई मे जाए बगैर प्रसारित किया जाना किसी भी विचारवान दर्शक/व्यक्ति के लिए क्षोभ की बात है। समाचार चैनल के लिए
खबर एक डबल रोटी के टुकडे की तरह होती है ,चौबीस घंटे चैनल का पेट भरने के लिए
पूरी रात चबाते रहना एंकरों की मजबूरी होती है। संवाददाता ने यदि कोई रसीली बाइट
भेज दी है तो फिर क्या है लगातार चुइंगम की तरह खबर का रसास्वादन लगातार जारी रहता
है। इन्ही अवसरों को भुनाने के चक्कर मे ऐसे-ऐसे कर्यक्रम परोसे जाते हैं कि सिर धुनने
के अलावा कोई रास्ता नही दिखाई देता।
अन्धविश्वास और भूतप्रेत सम्बन्धित
ऊलजूलूल कार्यक्रमों की बात छोड भी दें और
केवल समाचार आधारित कार्यक्रमों की बात करें तो अधिकाँश चैनल खबर को पूरी तरह खबर
बनने के पहले ही उसका विश्लेषण प्रारम्भ कर देते हैं। ज्वालामुखी फूटा नही कि
विशेषज्ञों से पूछा जाने लगता है कि लावे का तापमान और उससे निकलने वाली ऊर्जा
कितनी होगी? लावा क्या कभी ठन्डा भी होगा या नही? और वह बहता हुआ कहाँ तक जाएगा।
भारत के लोगों को इन परिस्थितियों मे क्या-क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए? प्रभावित
लोगों के पुनर्वास मे सरकार की क्या भूमिका होगी? ज्वालामुखी के फटने से किन
राजनैतिक पार्टियों को लाभ मिलेगा? शेख चिल्ली की कहानी की तरह मूर्खतापूर्ण
विश्लेषण घंटों चलता रहता है। किसी मनोरंजक कार्यक्रम की तरह ये चैनल दर्शकों को
बान्धे जरूर रखते हैं लेकिन उनके विवेक और विचारशीलता पर ताला डाल देतें हैं। समाचार
चैनलों के एंकरों के अपरिपक्व मस्तिष्क सामने बैठे विचारकों,विशेषज्ञों पर आक्रमण
करते दिखाई देते हैं। उनके मुँह से अपने शब्द कहलवाने की कोशिश मे कई बार अभद्रता की
हद तक पीछे पडे नजर आते हैं। अपने मतलब का एकाध शब्द विशेषज्ञ विचारक की जुबान से
फिसलते ही वे उसे लपक लेते हैं तथा उसे पूरी तत्परता के साथ अधिकृत घोषणा में
तब्दील कर दिया जाता है।
वस्तुत: पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे
विशेषत: टीवी पत्रकारिता को बाजारवाद की
चकाचौन्ध ने अपनी गिरफ्त मे ले लिया है। समाचार सूचना को भी अब चैनलों द्वारा
वस्तु की तरह बेचा जा रहा है और इस व्यापार में विचारशीलता, विवेक और सहिष्णुता
जैसे मूल्यों-गुणों को बहुत हद तक नजर
अन्दाज करने मे कोई गुरेज नही है। यह स्थिति न सिर्फ इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता
के लिए बल्कि हमारे बौद्धिक विकास के लिये भी कुछ ठीक नही कही जा सकती ।
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