Thursday, August 8, 2013

घूँसा

कहानी
घूँसा
ब्रजेश कानूनगो

जब घर छोड़ा था तब सारे बाल काले थे . लगभग बीस बरस का अंतराल कम नहीं होता, जिस प्रकार मेरी देह और जुल्फों में बदलाव आया था वैसा ही कुछ अपने शहर को देखने पर महसूस हो रहा था. बरसों बाद मैं अपने शहर में पैदल भटक  रहा था. बहुत ढूँढने के बाद भी मुझे अपने बचपन का वह प्यारा कस्बा कहीं नजर नहीं आ रहा था. सब कुछ जैसे बदल सा गया था. कई मॉल खुल गए थे, शहर जैसे एक बाजार में बदल गया था. आईटी पार्क स्थापित होने की तैयारियां शुरू हो गईं थी. नई-नई कॉलोनियां बसती नजर आ रहीं थीं. पुराने रहवासियों ने अपने बड़े मकानों में या तो किराएदारों के लिए चालें बनवा ली थीं या फिर उन्हें छोटे-मोटे बाजार में बदल डाला था. नगर पालिका परिषद नगर निगम में बदल चुकी थी.  महानगर निगम बनने में शायद कुछ ही समय बचा होगा ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा था,  नगर की सीमा वहाँ तक बढ़ गई थी जहाँ पहले गाँव और लहलहाते खेत हुआ करते थे.   'फिकर नाट पान भण्डार 'या 'क्या चाहिए मिठाई के लिए सीधे चले आइए ' जैसे बोर्डों के स्थान पर 'गुप्ता कंस्ट्रक्शन' अथवा 'कृष्ण कॉलोनी' जैसे बड़े-बड़े बोर्ड लटके नजर आ रहे थे.

पत्नी का आग्रह था कि बिटिया का विवाह अपने शहर से ही किया जाए. रिश्तेदार और परिचित सब इधर ही हैं . उधर हैदराबाद तो कोई आने से रहा. अपना घर है ही यहाँ . छोटा भाई यहीं रहता है.अगर अपनो के बीच कार्यक्रम होता है तो बहुत अच्छा रहेगा. और हम यहाँ आ गए थे. अपने शहर.

शहर जरूर बदल गया था ,मगर हमारा घर वैसा ही आज तक था जैसा हम छोडकर गए थे.मैंने महसूस किया था वे सब घर वैसे ही थे जहाँ संपत्ति का बटवारा नहीं हुआ था. हालांकि ऐसे घरों की संख्या कम ही थी. हम बाहर थे भाई यहाँ नौकरी में था ,स्थानीय नौकरी थी , इसलिए ट्रांसफर आदि का झमेला नहीं था. अगर बटवारा हो जाता तो अभी तक हमारे घर में भी चार दुकानें निकल आतीं. भला बीस-पच्चीस हजार की मासिक आमदनी कौन छोडता है इस जमाने में. फिर बढता शहर था यह,  लेकिन हम ऐसा नहीं कर पाए थे. दुनियादार लोग भले ही मूर्ख समझते रहे ,लेकिन शायद हमने बटवारे की बजाए  घाटा उठाते हुए रिश्तों की रक्षा करने को अधिक महत्त्व दे डाला था. मुझे मालूम था शहर में फ़ैली यह महामारी अब हमारे घर को भी नहीं छोडेगी.लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता था कि यह सब बिटिया के विवाह के बाद ही होगा.

हमारे घर के अलावा नहीं बदला था तो मेरा स्कूल-आनंद भवन प्राथमिक पाठशाला . स्कूल का  यह भवन आज चालीस बरस बाद भी वैसा ही नजर आ रहा था जैसा पहले नजर आता था. भवन को अब  गोबर और पीली मिट्टी से तो नहीं लीपा जाता होगा  लेकिन  देखकर लगता था कि गुरुकुल परम्परा का पालन हमारे वक्त की तरह ही हो रहा है . जब टाटपट्टी बिछाने पर धूल उडती थी. ज्ञान गंगा में नहाने से पहले बच्चे धूल गंगा में स्नान कर लेते थे.अब भी ऐसा ही दिखाई देता  था. अब तो हमारे  स्कूल में  कुछ गरीब बस्ती के बच्चों को ही जाते देख रहा था ,जबकि उस समय शाला में हर वर्ग और हर स्तर के परिवार के बच्चे साथ-साथ बैठकर पढा करते थे. सेठ धर्मदास का सुपुत्र टाट पट्टी पर बैठकर पढ़ता था, तो ठेलागाड़ी चलानेवाले निसार का बेटा अब्दुल भी हमारे पास बैठता था. पुरोहित वृंदावनलाल का बेटा वंशी भी उसी स्कूल में पढ़ता था वहीं मै भी नंगे पैर, कपडे का बना बस्ता लटकाए ,स्कूल की ओर दौड पडता था. स्कूल प्रवेश  के समय पिताजी के   एक चांटे के प्रसाद के कारण कभी स्कूल न जाने का विचार मन में नहीं आया. बस्ते का बोझ दौडने में कभी बाधक नहीं बना , उस समय बहुत सारी पुस्तकें कंधे पर लादकर भी नहीं ले जाना पडती थीं.  मेरा बस्ता मेरी माँ द्वारा हर वर्ष नया सिल कर दिया जाता था. पिताजी का पुराना पैंट पूरी तरह घिसकर जब रिटायर्ड हो जाता तब उसकी तीन चीजें बनती थी . बाजार से सब्जियां,सामान वगैरह लाने के लिए एक थैला,दादी माँ के लिए ठण्ड में पहनने के लिए पूरी आस्तिनों वाला पोलका और मेरे लिए एक बस्ता,जिसे पाकर मैं बहुत खुश हो जाता था.

हर शनिवार को हमारे स्कूल में 'बाल सभा' होती थी. बाल सभा होने के पहले साप्ताहिक टेस्ट होता था. जो लडके फेल हो जाते थे ,उन्हें उस दिन कक्षा की लिपाई करनी होती थी और जो पास हो जाते थे वे 'बाल सभा' में कवितायें, कहानियां  और चुटकुलों का आनंद उठाते थे. अब्दुल और वंशी को कभी बालसभा में रूचि नहीं रही,वे अक्सर कक्षा की लिपाई ही करते थे. 'बाल सभा' समाप्त होती तो सब बच्चे रविवार की छुट्टी के आकर्षण में दौड़ते हुए स्कूल से बाहर निकलते . नीली आँखों वाला बद्री प्रसाद मुझसे पूछता-'कल क्या है ?' मैं खुशी से चहकता 'कल छुट्टी है.' तब बद्रीप्रसाद तुक मिलाते हुए मुझे चिढाता-'तेरी दादी बुड्ढी है.' मुझे बहुत दुःख होता. घर पहुंचकर रोता और दादी को यह बात बताता तो वे मुस्करा देतीं.उनके कुल तीन दाँत थे,वे भी अपनी पकड़ छोड़ बैठे थे.वे मुस्करातीं तो उनमे से एक दाँत लटककर और बाहर निकल आता. वे इस रूप में मुझे और भी ममतामयी लगतीं थीं. वे कहतीं-'बद्री ठीक ही तो कहता है,मैं बुढिया ही तो हूँ..' मैं उनकी गोद में सर रखकर सब कुछ भूल जाता.
कक्षा में बद्रीप्रसाद और मै पास-पास ही बैठते थे. बद्री मुझसे ढाई गुना मोटा था.बद्री के पिताजी शहर के जाने-माने पहलवान थे.उनके साथ बद्री भी कसरत वगैरह किया करता था. बद्री की नीली आँखें उसके कसरती बदन में चार चाँद लगाती थीं. बद्री हमेशा दूसरे सहपाठियों से मेरी रक्षा किया करता था. वह मेरा बहुत अच्छा मित्र था. लेकिन एक छोटी सी घटना ने हमारी मित्रता पर पानी फेर  दिया. मास्टरजी ने हमें कुछ शब्दार्थ याद करके लाने को कहा था. वे एक के बाद एक बच्चे से अर्थ पूछते जा रहे थे.जो बच्चा गलत जवाब देता ,उसे सजा मिलती. उसे पास बैठे सहपाठी का घूँसा खाना पडता था. हालांकि मास्टरजी इसे धौल ज़माना ही कहते थे लेकिन बच्चे पडौसी की पिटाई बड़े जोरदार ढंग से ही किया करते थे. बल्कि हरेक को इंतज़ार रहता था कि कब अपना पड़ोसी गलती करे. जब एक बार मेरी बारी आई तो मास्टर जी ने पूछा-'बताओ रघुवीर 'शक्तिशाली' यानी क्या?' और मैं बगलें झांकने लगा. पास में ही बद्री पहलवान बैठे थे. इशारा होते ही मुझे लगा कि मेरी पीठ से कोई वजनदार चीज टकराई है, और पेट में जैसे कोई गड्ढा सा गहराता जा रहा है.   आँखों के सामने सितारे उभर आए. मै गिर पढ़ा.मास्टर साहब मेरे पास आए, बद्री खुद दौडकर पानी लाया  और मुझ पर छींटे मारे,मुझे पानी पिलाया गया. मै तो ठीक हो गया ,लेकिन इसके साथ ही  मास्टर जी की उस पिटाई परम्परा का भी अंत हो गया. बाद में मैंने बद्री प्रसाद से सदा के लिए बोलचाल बंद कर दी  .फिर कभी हम एक दूसरे से नहीं बोले.मैं उससे दूर इस्माइल के पास बैठने लग गया.

बचपन की यादों में डूबा मै हमारे स्कूल से लगे बाजार में जहाँ खडा  था,उसके ठीक सामने बर्तनों की दूकान थी. मेहमानों को  बिदाई में उपहार स्वरूप स्टील की प्लेंटे देने की योजना थी.मैं दूकान में चढ गया.'भैया ज़रा स्टील की प्लेंटे दिखाना.' मैंने कहा. 'जरूर देखिए साहब.' दुकानदार ने पलटकर कहा. हमारी आँखें मिली. दुकानदार की शक्ल मेरी जानी-पहचानी सी लग रही थी.बरबस मेरा हाथ मेरी पीठ की तरफ गया.दुकानदार ने मुझे पहचान लिया था.-'तुम रघुवीर ही हो ना.' वह काउंटर छोडकर बाहर आ गया था और मेरे गले में उसकी बाहें हार बनकर अपने शहर में मेरा स्वागत कर रहीं थीं.  

ब्रजेश कानूनगो
503 ,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18
मो.न. .09893944294



1 comment:

  1. बहुत कुछ बदल गया है किंतु अभी भी बहुत कुछ वही है

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