व्रत
करती स्त्री
प्यासी रहती है
दिनभर
और उडेल देती है
ढेर सारा जल शिवलिंग के ऊपर
पत्थर पर न्यौछावर
कर देती है जंगल की सारी वनस्पति
बनाकर मिट्टी का
पुतला
नहला देती है उसे
लाल पीले रंगों से
लपेटती जाती है सूत
का लम्बा धागा
पुराने पीपल की
छाती पर
करती है परिक्रमा
पवित्र नदी की
और लगा लेती है
चन्दन का लेप
पैरों के घावों पर
सरावलों में उगाकर
हरे जवारे
प्रवाहित करती है
सरोवर में उन्हे
क्षयित चन्द्रमा को
चलनी की आड से निहारते हुए
पति के अक्षत जीवन
की कामना करती है व्रत करती स्त्री
एक आबंध की खातिर
सम्बन्धों की बहुत
बडी डोर बुन रही है
जैसे बाँध लेना
चाहती है धरती-आकाश ।
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