मामा लाए खीर खोपरा
ब्रजेश कानूनगो
पिताजी के श्राद्ध के सन्दर्भ में अपने
गाँव जाना हुआ तो देखा मोहल्ले के घरों की दीवारों पर संजा माता पूरे ठाट के साथ
बिराजमान थीं।
शाम के धुन्धलके के बीच बालिकाओं के
कंठों से निकलते लोकधुनों पर आधारित गीतों के स्वर कानों मे मिश्री घोल रहे थे।
लोककला की मालवी परम्परा ‘संजामाता’ के सम्मान मे गाए जा रहे गीतों ने मुझे अपने
बचपन मे पुन: लौटा दिया।
गोबर से हर रोज विभिन्न आकृतियों को आँगन
की दीवार पर बनाया जाता है और उन्हे फूलों, चमकीली पन्नियों से सजाया जाता है।
सूरज , चाँद सितारों से शुरू होकर ‘किलाकोट’ और ‘जाडी जसोदा’ के निर्माण तक आते
आते आँगन की दीवार कलाकृतियों से ढँक जाती है। ऐसा लगता है,
प्रकृति,समाज,प्रशासन,परम्पराएँ,कलाएँ और आध्यात्म एक साथ बच्चों के तन मन से
गुजरते हुए दीवार पर उतर आए हों। श्राद्ध पक्ष में भूले बिसरे पितरों को हम याद
करते हैं और ‘संजामाता’ के आयोजन से भूली बिसरी
परम्पराओं एवम कलाओं की याद बालिकाएँ दिला रहीं होतीं हैं।
‘घुड घुड गाडी गुडकती जाए, जीमे बैठिया
संजाबाई,घागरो घमकाता जाए,चुडैलो चमकाता जाए।’
बच्चों के मुख से गीत की पंक्तियाँ सुनकर मैने सोंचा आज के समय
मे हमारे शहरों मे क्या संजाबाई का इसतरह बन-ठन कर गुडकती गाडी में बैठकर सैर किया
जाना सुरक्षित रह गया है। चेन खींचकर भाग जानेवाले बदमाश क्या संजाबाई का चैन नही
चुरा लेंगे। गीत के बोल कुछ इसतरह भी किए जा सकते है ‘ संजाबाई घर मे देखो ससुराल गेन्दा
फूल, गहने-कपडे गाडी वाडी सब कुछ जाओ भूल। ’
एक अन्य गीत का मुखडा है- ‘चाल हो संजा
सखी पाँडु लेवा चालाँ,पाँडु लेवाँ चालाँ दरि, मामा घरे चालाँ, मामा लावे खीर
खोपरो,मामी लावे मैथी; मैथी से तो माथो दुखे,खीर खोपरो खावाँ।’ इस गीत मे एक सहेली
दूसरी से आग्रह कर रही है कि वह उसके साथ मामा के घर चले। जहाँ से वे घर-द्वार की
पुताई के लिए पाँडु(खडिया मिट्टी) लेकर आएँगी। वहाँ पर एक ओर जहाँ मामी मैथी की
कडवी सब्जी खिलाएगी, वहीं मामा खीर और खोपरा(नारियल) खिलाकर प्यार बरसाएँगे,इसलिए
सखी तू मेरे साथ मामा के घर जाने के लिए तैयार हो जा। लेकिन क्या अब मामा महँगाई
के इस दौर मे अपनी भानजियों को खीर खोपरा प्रस्तुत करने का सामर्थ्य दिखा सकता है?
मामी की मैथी भी क्या किसी भानजी के लिए संतोष की बात नही होगी। न मिले मामा की
खीर, मगर मामी की कडवी मैथी भी अगर प्यार से मिल रही हो तो नाहक भानजियों को अपना
माथा नही ठनकाना चाहिए।
एक गीत है- ‘संजा तू थारा घरे जा, कि
थारी माँ मारेगी कि कूटेगी कि देली पे दचकेगी। चाँद गयो गुजरात, कि हिरण का
बडा-बडा दाँत, कि छोरा-छोरी डरपेगा,भई,डरपेगा।’
इस गीत मे संजा सहेली से दूसरी सखी जल्दी घर लौटने को कह रही है अन्यथा
उसकी हिरणी जैसी माँ,जिसके गुस्से रूपी दाँत हैं,उसे मार-मार कर हड्डी-पसली तोड
डालेगी,वहाँ उसका चाँद जैसा भाई भी नही है जो व्यापार के सिलसिले में गुजरात गया
हुआ है। अत: घर जल्दी लौटकर खैर मना। परंतु आज कितनी ऐसी बेटियाँ हैं जो अपनी माँ
का इतना खौफ खातीं होंगी। और कितनी माँए होंगी जो बेटियों की इतनी चिंता पालतीं
होंगी।
संजा के अर्थ बदले हैं, रूप बदल रहें
हैं। बाजार में चमकीली पन्नियों की संजा आकृतियाँ उपलब्ध है,दीवारों पर चिपकाकर
परम्पराएँ निभाई जा रहीं हैं। टीवी सीरियलों के जरिए परम्पराएँ और संस्कार हम तक
पहुँच रहें हैं। बहुत सम्भव है किसी धारावाहिक में कोई बालिका(वधू) अपनी सखियों के
साथ गाती हुई दिखाई दे-‘चाल हो संजा सखी, ब्यूटी पार्लर चालाँ,सर्राफा मे जाकर
लाएँ,इमिटेशन की माला।’
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इन्दौर-18
Brajesh Ji...tears rolled...visited Dewas thru your help but also visited my Mama (Born on 2nd Oct) + maiji...both local Udaipurites...one did Bar-at Law from UK while othr reamined a lady of Bhartiyata....& traditions that you mentioned were done by both of them as long as they both lived + loved us all children....
ReplyDeleteशुक्रिया,काका साहब.
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