रेल में पढाई
ब्रजेश कानूनगो
हम इन्दौर से उदयपुर के लिए रेल से यात्रा कर रहे थे। दिन का सफर था।
सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक के सफर को चाहें तो बोरियत मानें या फिर रोमांच।
प्राकृतिक वातावरण मुझे हमेशा लुभाता रहा है। यात्राओं के दौरान मैने शायद ही कभी कोई
पुस्तक या अखबार समय काटने के लिए खोला होगा। कम्पार्टमेंट के भीतर और खिडकी के
बाहर की हलचल और वातावरण से जुडे रहना मुझे सदैव अच्छा लगता रहा है।
एक युवा दम्पत्ति भी हमारे साथ यात्रा कर रहा था और उनके साथ 3-4 वर्ष
की उनकी बिटिया भी थी। जैसे ही गाडी ने इन्दौर शहर पार किया, बच्ची की माँ ने अपने
बैग से चार लाइनों वाली कॉपी,पेंसिल और एक रबर(इरेजर) निकालकर बच्ची को थमा दिया। संयोग से उस
कम्पार्टमेंट में सीटों के बीच खुलनेवाली छोटी सी टेबल भी थी। बच्ची ने बिना किसी
ना-नकुर के अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। उसने न सिर्फ अंग्रेजी की छपाई वाले अल्फाबेट
सुन्दर अक्षरों में लिखे बल्कि लिखाई वाली लिपि(रनिंग अल्फाबेट) भी कॉपी पर
सुन्दरता से लिख डाली। माता-पिता, 3-4 घंटों तक लगातार अंग्रेजी और गणित का अभ्यास
उससे कराते रहे। आश्चर्य की बात यह थी कि वह यह सब अभ्यास पूरी रुचि और गुणवत्तापूर्ण
ढंग से तो करती रही लेकिन आसपास की हलचल और खिडकी के बाहर के वातावरण से पूरी तरह
बेखबर बनी रही। जब वह थक गई तो ऊपर की
बर्थ पर उसे सुलाकर पति-पत्नी निश्चिंत ताश खेलने लग गए।
पता नही क्यों मुझे यह सब अच्छा नही लग रहा था। मैने युवा दम्पत्ति से
कुछ कहना भी चाहा तो मेरी पत्नी ने मुझे रोक दिया,क्योंकि इस बीच वे अपनी
प्रतिभाशाली बेटी के बारे में पत्नी से बहुत कुछ कह चुके थे। पत्नी भी उन लोगों
में इतनी घुल मिल गईं थीं कि यात्रा के दौरान अपरिचितों का उत्साह कम करके उन्हे
दु:ख नही पहुँचाना चाहती थीं।
मेरा मानना है कि उक्त दम्पत्ति ने यात्रा के दौरान कॉपी,किताब,पेंसिल
थमाकर छोटी सी बच्ची को प्रकृति और जनजीवन से सीखने की सहज एवं सार्थक प्रक्रिया
से दूर रखकर बिटिया के हित में कोई ठीक काम नही किया था। पढाई लिखाई और अभ्यास के बहुत
अवसर होते हैं, लेकिन प्रकृति और जीवन की हलचल से सीखने, समझने के लिए ऐसी
यात्राएँ बाल मन पर गहरे से अंकित होती हैं।
डिब्बे में बैठे विभिन्न संस्कारों वाले लोगों की बातचीत, गोबर की
गन्ध से सना खेत से सीधे गाडी में चढा
किसान, हरे पत्तों के दोनों में जामुन-बेर बेचती आदिवासी बालिका, चना,चाय बेचते
व्यक्ति, बाँसुरी बजाता नेत्रहीन बालक , डिब्बे की सफाई करता विकलांग बच्चा, क्या
कुछ नही सिखाते हमारे बच्चों को। इन्हे अनुभव कर उनके अन्दर संवेदंशीलता का अंकुरण
सम्भव होता है माता पिता चाहें तो खेत, खलिहान,पशु
पक्षी,नदी, तालाब, नहरें, पहाड,मजदूर,किसान,सूर्यास्त, गोधुली,वर्षा,इन्द्रधनुष,गाँव,ट्रेक्टर
बैलगाडी, विद्युत प्रवाह,कारखाने बहुत कुछ रेलगाडी की खिडकी के बाहर का नजारा दिखा
कर बच्चों के मन पर ज्ञान-विज्ञान, लोगों के रहन सहन और समाज को समझने के अमिट
अक्षर अंकित कर सकते हैं।
यह सब नही कर पाने के लिए मैं
सहयात्री युवा दम्पत्ति को पूरी तरह दोषी नही मानता। बहुत से आग्रह और आकांक्षाएँ
हैं जिनके कारण युवा पालकों की प्राथमिकताएँ बदली हैं। अभी भी भी बटर फ्लाय को
तितली, रेनबो को इन्द्रधनुष ,फ्लावर को फूल और स्मेल को गन्ध कहने वाले हम जैसे
लोग आज समझ नही पा रहे हैं कि आखिर गलती
कहाँ हो रही है, कहीं हम ही तो भ्रमित नही हैं।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-452018
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