कविता
रेडियो की स्मृति
ब्रजेश कानूनगो
गुम हो गए हैं रेडियो इन दिनों
बेगम अख्तर और तलत मेहमूद की आवाज की तरह
कबाड मे पडे रेडियो का इतिहास जानकर
फैल जाती है छोटे बच्चे की आँखें
न जाने क्या सुनते रहते हैं
छोटे से डिब्बे से कान सटाए चौधरी काका
जैसे सुन रहा हो नेताजी का सन्देश
आजाद हिन्द फौज का कोई सिपाही
स्मृति मे सुनाई पडता है
पायदानों पर चढता
अमीन सयानी का बिगुल
न जाने किस तिजोरी में कैद है
देवकीनन्दन पांडे की कलदार खनक
हॉकियों पर सवार होकर
मैदान की यात्रा नही करवाते अब जसदेव सिंह
स्टूडियो में गूंजकर रह जाते हैं
फसलों के बचाव के तरीके
माइक्रोफोन को सुनाकर चला आता है कविता
अपने समय का महत्वपूर्ण कवि
सारंगी रोती रहती है अकेली
कोई नही पोंछ्ता उसके आँसू
याद आता है रेडियो
सुनसान देवालय की तरह
मुख्य मन्दिर मे प्रवेश पाना
जब सम्भव नही होता आसानी से
और तब आता है याद
जब मारा गया हो बडा आदमी
वित्त मंत्री देश का भविष्य
निश्चित करने वाले हों संसद के सामनें
परिणाम निकलने वाला हो दान किए अधिकारों की संख्या का
धुएँ के बवंडर के बीच बिछ गईं हों लाशें
फैंकी जाने वाली हो क्रिकेट के घमासान में फैसलेवाली अंतिम गेन्द
और निकल जाए प्राण टेलीविजन के
सूख जाए तारों में दौडता हुआ रक्त
तब आता है याद
कबाड में पडा बैटरी से चलनेवाला
पुराना रेडियो
याद आती है जैसे वर्षों पुरानी स्मृति
जब युवा पिता
इमरती से भरा दौना लिए
दफ्तर से घर लौटते थे।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल,रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-18
...और याद आते हे बी बी सी के रत्नाकर भारतीय जो संगीत लहरियों के साथ "आजकल" कहते हुए अवतरित हुआ करते थे ... !
ReplyDeleteधन्यवाद कुरैशीजी।
Deleteसोनकच्छ की दो ही चीजें आज भी स्मृति में गूँजती हैं रचना शिविर में सुनाई गई आपकी रेडियो वाली कविता और एक दो बार वर्षों पूर्व बस स्टैंड पर खाई गई मावाबाटी ...!
ReplyDeleteधन्यवाद ओमभाई..वे रचना शिविर भुलाए नही जा सकते।
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