बाल नोचने की बेला
ब्रजेश कानूनगो
नेताओं के ताजा बयानों को लेकर एक समाचार चैनल पर
बडी जोरदार बहस चल रही थी। एक घंटे के उत्तेजक विमर्श के बाद एंकर का अंतिम जुमला
बहुत दिलचस्प रहा। अपने ही कार्यक्रम की बहस और नेताओं के बयानों पर घटिया तर्कों से
असंतुष्ट होते हुए उन्होने पेनल के एक गंजे विचारक को सम्बोधित करते हुए कहा.. आप
तो श्रीमान चाहते हुए भी अपने बाल नोच नही सकते लेकिन शो देख रहे दर्शक चाहें तो
अपने बाल नोच सकते हैं।
ज्वलंत मुद्दों पर टीवी पर होनेवाली ज्यादातर
बहसों में इन दिनों यही हो रहा है। ईमानदार एंकर जानते हैं कि होना-जाना कुछ नही
है। चैनलों को तो अपना पेट भरना ही है। उन्हे तो ऐसी चुइंगमों की तलाश सदा बनी
रहती है,जिसे वह चौबीसों घंटे चबाते रह सकें। संत हों, नेताजी हों, मंत्रीजी या
पार्टी अध्यक्ष अथवा कोई राजनीतिक प्रवक्ता रहा हो, मीडिया की क्षुधा को शांत करने की ये लोग भरपूर कोशिश करते रहते
हैं।
जहाँ तक दर्शक या आम आदमी की बात है,वह तो हमेशा
से भ्रमित बना रहा है। अपने-अपने पक्ष के समर्थन में जो तर्क या कुतर्क उसके सामने
रखे जाते हैं वह लगभग सब से संतुष्ट होता दिखाई देता है। ‘न हम हारे ,न तुम जीते’
की तर्ज पर उसके मन में कोई मनवांछित धुन गूंजने लग जाती है। लक्ष्मण रेखा लांघने
के बाद सीता हरण की बात भी उसे कुछ-कुछ ठीक लगती है तो पुरुषों के लिए कोई मर्यादा
रेखा न बनाए जाने के तर्क से भी वह सहमत होने का प्रयास करता है। बलात्कारी को भाई
बनाकर अपने आपको बचा ले जाने की कूटनीति के सुझाव पर वह भौचक्का रह जाता है ,वहीं बचपन
से संस्कारों के बीज बोने का विचार उसे भाने लगता है। ‘लिव-इन’ और ‘सहवास’ की नैसर्गिक आवश्यकता के नेताई
बयानों में वह वैज्ञानिकता खोजने लगता है।
बहसों के ये लाइव शो बडी समस्याएँ खडी कर रहे
हैं। इस महान देश की गौरवशाली सांस्कृतिक परम्पराओं के बीच इन दिनों महान बयानों
की कई पवित्र धाराएँ चारों ओर प्रवाहित होती दिखाई दे रही हैं, किस धारा का आचमन
करें लोग। मुश्किल इतनी है कि कुछ समझ नही आ रहा है.. अपने बाल नोचने को मन करता है ।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क,कनाडिया रोड,
इन्दौर-18
सच कहा आपने।
ReplyDeleteकृपया 'वर्ड वेरीफिकेशन' का प्रावधान तत्काल हटाऍं।