उत्तर कोरोना काल में
कृषि की ओर लौटेंगे ग्रामीण युवा
ब्रजेश कानूनगो
पिछले कुछ वर्षों में कृषि भूमि स्वामियों की सबसे विकट समस्या जो आमतौर से उनसे सुनने को मिलती रही है, वह खेती करने में युवा श्रमिकों की कमी होना होती है।
भरपूर मजदूरी देने के उपरांत खेतों में काम करने वाले युवा मजदूर उपलब्ध नहीं होते हैं। ग्रामीण युवकों का कृषि इतर रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन इसके पीछे बड़ा कारण माना जा सकता है।
उधर सरकारी नीतियों में युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करने से वे कृषि कार्य के अलावा स्वयं का छोटा मोटा व्यवसाय शुरू कर गांव में दुकान खोलकर बैठ जाते हैं। बाद में न तो उनका व्यवसाय उस तरह सफल हो पाता है जिस तरह अपने पुश्तैनी कार्य से मुक्त होकर फायदे की उम्मीद पाल बैठते हैं। स्वरोजगार योजनाओं के तहत बैंकों को ऋण स्वीकृत करने के अनाप शनाप लक्ष्य आबंटित की वजह से पात्र अपात्र हितग्राहियों के चयन में अक्सर गुणवत्ता प्राथमिकता में नहीं रह पाती। परिणामतः छोटे से गांव में अनेक युवक बैंकों से सरकारी ऋण योजनाओं का लाभ लेकर असफल व्यवसाय का भार ढोते हुए ऋण माफी या किसी समझौता योजना के इंतजार में मजबूर और निष्क्रिय से हो जाते हैं।
ग्रामीण क्षेत्र के श्रमिकों को मनरेगा एवं उसी तरह की अन्य योजनाओं में भी तय दिनों का रोजगार और राशि मिलने से भी ग्रामीण युवाओं की कृषि श्रम में भागीदारी घटती गई है। अनेक अन्य कारण भी होते ही हैं जिनसे ग्रामीण क्षेत्रों के युवकों ने न सिर्फ अपने परंपरागत कृषि कार्य,गांव, प्रदेश तक से पलायन किया है बल्कि खेतों में काम करने की उनकी क्षमता और रुचि में भी चिंताजनक कमी आई है। ऐसा केवल खेती के संदर्भ में ही नहीं हुआ है बल्कि प्रत्येक ग्रामीण कुटीर उद्योग, हस्तकला, चर्म उद्योग,हथकरघा, जूता निर्माण आदि जैसे बुनियादी कामधन्धों पर ग्रामीण युवकों के शहरों और महानगरों की ओर पलायन का बुरा असर पड़ा है। विकास और प्रगति के तथाकथित महान ध्येय के नाम पर इस पर कोई ध्यानाकर्षण टिप्पणी करना या सुधार का मशवरा दिया जाना वर्तमान समय में असंभव तो नहीं मगर जोखिम भरा अवश्य हो जाता है।
कोरोना महामारी के इस असाधारण समय में बिना पूर्व तैयारी के लॉकडाउन जैसे उपायों से प्रभावित श्रमिकों के बड़ी संख्या में अपने गांवों की ओर वापिस लौटने की घटनाएं भी असाधारण ही हैं। आज के हालात में तो तमाम मुश्किलों के बीच उनके मन में बस किसी भी कीमत पर अपने पुश्तैनी घर,गांव लौटना ही नजर आता रहा है। ऐसे में नए कामधंधों की बात सोचना तो बहुत दूर की बात नजर आती है।
अब इस विकट परिस्थिति में राज्य सरकारों की नीतियां क्या रहेंगी इस पर सबकी नजर रहेगी। देखना होगा कि अपने घर प्रदेश लौटने वाले श्रमिकों के लिए कौनसी नई योजनाएं लाई जाती हैं जिससे वे अपनी मातृभूमि में ही रहकर रोजगार के साथ अपने परिवार का जीवन सुखमय बना सकें।
विशेषज्ञ तो यही कह रहे कि कोरोना जनित परिस्थितियों से देश की दशा और अर्थव्यवस्था कई वर्षों पीछे चली जायेगी। तो क्या यह माना जाना चाहिए कि कोरोना काल के बाद बीती सदी के समय की जीवन शैली के साथ साथ हमारे बुनियादी काम धन्धों की चमक पुनः लौट सकेगी? प्रश्न यह भी है कि क्या उत्तरकोरोना समय में खेतों, सड़कों,रेल पटरियों, खदानों, वस्त्र निर्माण आदि में मशीनों की बजाए मानवीय श्रम को महत्व मिल सकेगा? शहरों, कस्बों में बंद पड़े कारखानों और कपड़ा मिलों में पिछली सदी की तरह चौबीसों घंटे उत्पादन प्रक्रिया शुरू होगी और क्षेत्र के युवा बेरोजगारों के हुनर को स्थानीय स्तर पर ही मौक़ा मिल सकेगा? जिससे अन्य प्रदेशों में पलायन करने की विवशता उनके समक्ष उपस्थित न हो सके। कारखानों के सायरन की आवाज से आत्मनिर्भरता का उद्घोष हो सकेगा। इन प्रश्नों के उत्तर निश्चित ही अभी आने वाले समय के गर्भ में हैं।
अभी कुछ भी कहा जाना थोड़ा मुश्किल भी है। सबसे पहली चिंता और चुनौती तो इस वैश्विक कोरोना प्रकोप से देश प्रदेश के नागरिकों को स्वस्थ और सुरक्षित रखते हुए जन जीवन को पुनः पटरी पर लाने की ही होगी। फिर भी गाँवों की ओर लौटे हमारे इन भूमिपुत्र भाइयों के कल्याण और अर्थव्यवस्था में पूर्व की तरह उनके योगदान को सुनिश्चित करने के लिए विचार करना तो अभी से शुरू कर दिया जाना चाहिए।
ब्रजेश कानूनगो
कृषि की ओर लौटेंगे ग्रामीण युवा
ब्रजेश कानूनगो
पिछले कुछ वर्षों में कृषि भूमि स्वामियों की सबसे विकट समस्या जो आमतौर से उनसे सुनने को मिलती रही है, वह खेती करने में युवा श्रमिकों की कमी होना होती है।
भरपूर मजदूरी देने के उपरांत खेतों में काम करने वाले युवा मजदूर उपलब्ध नहीं होते हैं। ग्रामीण युवकों का कृषि इतर रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन इसके पीछे बड़ा कारण माना जा सकता है।
उधर सरकारी नीतियों में युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करने से वे कृषि कार्य के अलावा स्वयं का छोटा मोटा व्यवसाय शुरू कर गांव में दुकान खोलकर बैठ जाते हैं। बाद में न तो उनका व्यवसाय उस तरह सफल हो पाता है जिस तरह अपने पुश्तैनी कार्य से मुक्त होकर फायदे की उम्मीद पाल बैठते हैं। स्वरोजगार योजनाओं के तहत बैंकों को ऋण स्वीकृत करने के अनाप शनाप लक्ष्य आबंटित की वजह से पात्र अपात्र हितग्राहियों के चयन में अक्सर गुणवत्ता प्राथमिकता में नहीं रह पाती। परिणामतः छोटे से गांव में अनेक युवक बैंकों से सरकारी ऋण योजनाओं का लाभ लेकर असफल व्यवसाय का भार ढोते हुए ऋण माफी या किसी समझौता योजना के इंतजार में मजबूर और निष्क्रिय से हो जाते हैं।
ग्रामीण क्षेत्र के श्रमिकों को मनरेगा एवं उसी तरह की अन्य योजनाओं में भी तय दिनों का रोजगार और राशि मिलने से भी ग्रामीण युवाओं की कृषि श्रम में भागीदारी घटती गई है। अनेक अन्य कारण भी होते ही हैं जिनसे ग्रामीण क्षेत्रों के युवकों ने न सिर्फ अपने परंपरागत कृषि कार्य,गांव, प्रदेश तक से पलायन किया है बल्कि खेतों में काम करने की उनकी क्षमता और रुचि में भी चिंताजनक कमी आई है। ऐसा केवल खेती के संदर्भ में ही नहीं हुआ है बल्कि प्रत्येक ग्रामीण कुटीर उद्योग, हस्तकला, चर्म उद्योग,हथकरघा, जूता निर्माण आदि जैसे बुनियादी कामधन्धों पर ग्रामीण युवकों के शहरों और महानगरों की ओर पलायन का बुरा असर पड़ा है। विकास और प्रगति के तथाकथित महान ध्येय के नाम पर इस पर कोई ध्यानाकर्षण टिप्पणी करना या सुधार का मशवरा दिया जाना वर्तमान समय में असंभव तो नहीं मगर जोखिम भरा अवश्य हो जाता है।
कोरोना महामारी के इस असाधारण समय में बिना पूर्व तैयारी के लॉकडाउन जैसे उपायों से प्रभावित श्रमिकों के बड़ी संख्या में अपने गांवों की ओर वापिस लौटने की घटनाएं भी असाधारण ही हैं। आज के हालात में तो तमाम मुश्किलों के बीच उनके मन में बस किसी भी कीमत पर अपने पुश्तैनी घर,गांव लौटना ही नजर आता रहा है। ऐसे में नए कामधंधों की बात सोचना तो बहुत दूर की बात नजर आती है।
अब इस विकट परिस्थिति में राज्य सरकारों की नीतियां क्या रहेंगी इस पर सबकी नजर रहेगी। देखना होगा कि अपने घर प्रदेश लौटने वाले श्रमिकों के लिए कौनसी नई योजनाएं लाई जाती हैं जिससे वे अपनी मातृभूमि में ही रहकर रोजगार के साथ अपने परिवार का जीवन सुखमय बना सकें।
विशेषज्ञ तो यही कह रहे कि कोरोना जनित परिस्थितियों से देश की दशा और अर्थव्यवस्था कई वर्षों पीछे चली जायेगी। तो क्या यह माना जाना चाहिए कि कोरोना काल के बाद बीती सदी के समय की जीवन शैली के साथ साथ हमारे बुनियादी काम धन्धों की चमक पुनः लौट सकेगी? प्रश्न यह भी है कि क्या उत्तरकोरोना समय में खेतों, सड़कों,रेल पटरियों, खदानों, वस्त्र निर्माण आदि में मशीनों की बजाए मानवीय श्रम को महत्व मिल सकेगा? शहरों, कस्बों में बंद पड़े कारखानों और कपड़ा मिलों में पिछली सदी की तरह चौबीसों घंटे उत्पादन प्रक्रिया शुरू होगी और क्षेत्र के युवा बेरोजगारों के हुनर को स्थानीय स्तर पर ही मौक़ा मिल सकेगा? जिससे अन्य प्रदेशों में पलायन करने की विवशता उनके समक्ष उपस्थित न हो सके। कारखानों के सायरन की आवाज से आत्मनिर्भरता का उद्घोष हो सकेगा। इन प्रश्नों के उत्तर निश्चित ही अभी आने वाले समय के गर्भ में हैं।
अभी कुछ भी कहा जाना थोड़ा मुश्किल भी है। सबसे पहली चिंता और चुनौती तो इस वैश्विक कोरोना प्रकोप से देश प्रदेश के नागरिकों को स्वस्थ और सुरक्षित रखते हुए जन जीवन को पुनः पटरी पर लाने की ही होगी। फिर भी गाँवों की ओर लौटे हमारे इन भूमिपुत्र भाइयों के कल्याण और अर्थव्यवस्था में पूर्व की तरह उनके योगदान को सुनिश्चित करने के लिए विचार करना तो अभी से शुरू कर दिया जाना चाहिए।
ब्रजेश कानूनगो
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