आंचलिकता से महकते
क्षेत्रीय अखबारों का दबदबा फिर बढ़ेगा?
ब्रजेश कानूनगो
वैश्वीकरण और
बाजारवाद के आगमन के बाद भारत में जो अनेक परिवर्तन देखे गए उनमें से एक
यह भी था कि जो भाषाई अखबार अपने अंचल के पाठकों के दिलों पर राज करते थे, वे अपने आपको राष्ट्रीय बनाने के चक्कर में विस्तारित तो अवश्य हुए लेकिन
अपनी विशिष्ठ देशज सुगन्ध खोते चले गए.
अनेक
संस्करणों के साथ पृष्ठों की संख्या भी छह आठ पृष्ठों से बढ़ते हुए पहले 12 हुई फिर कुछ अखबार तो 32
पृष्ठों तक के निकलने लगे. बात यहीं तक नहीं
रही. इनके साथ 4 से 8 पृष्ठों तक के
सप्लीमेंट्स भी चलन में आए. इस सब के पीछे अखबारों को
मिलने वाले विज्ञापनों की बहुत बड़ी भूमिका रही है.
जो आंचलिक
अखबार कभी प्रति कॉपी 15 पैसों का मिल जाया करता था उसकी कीमत 3 से लेकर 5
रुपयों तक पहुंच गई. कुछ अखबार तो सप्लीमेंट वाले दिन इससे भी अधिक
कीमत वसूलने लगे. समाचारों से अधिक अखबारों की दिलचस्पी
अधिकाधिक विज्ञापन हासिल करने में रहने लगी. हालांकि इस बीच छपाई
की नई टेक्नोलोजी का भी खूब विकास और उपयोग होने लगा लेकिन अखबारों को होने वाली इस
अतिरिक्त आय का लाभ अखबार के पाठकों को कभी नहीं मिल सका, बल्कि उनकी पाठकीय
सामग्री धीरे धीरे कम होकर उसकी स्पेस सिकुड़ती चली गई. समाचार,विचार सामग्री और
विज्ञापनों की स्पेस का अनुपात गड़बड़ा गया. जो कभी लगभग 60/40 बनाए रखना अपनी जिम्मेदारी मानकर चलते थे व्यावसायिक लाभ की दृष्टि से यह
अनुपात थोड़ा गड़बड़ाने भी लगा. सबसे पहले रचनात्मक सामग्री विस्थापित हुई बाद में विचार
पक्ष भी घटता चला गया.
विश्वव्यापी
कोविद19 महामारी के बीच देश-प्रदेश के शहरों को छोड़कर अपने गांव की तरफ जा रहे मजदूरों
के दिल दहला देने वाले कारुणिक पलायन पर पिछले दिनों एक आलेख लिखा और सोशल मीडिया
पर लगाया तो एक मित्र ने सुझाव दिया कि यह एक बड़ा अच्छा मुद्दा है और मैं इस लेख
को संपादित करके जाने माने बड़े अखबार में प्रेषित कर दूँ. बेशक उन्होंने बड़ी
अच्छी सलाह दी थी लेकिन मुझे लगता है कि अब वे दिन गए जब अखबारों में छपे हमारे
किसी लेख या विचार का यथोचित संज्ञान लिया जाता है. हालांकि मित्र भी ठीक ही सोच रहे
थे कि यदि यह मुद्दा अखबार में छपा तो उन लोगों तक जरूर पहुंचेगा जो नीति
निर्धारित करते हैं क़ानून बनाते हैं और वह इस दिशा में कुछ कर सकेंगे, कुछ योजना
बना सकेंगे तो बेहतर होगा. निसंदेह यह अक्सर हुआ भी करता था कि हमारे समाचार
पत्रों को पढ़कर या उसमें जो विचार लेख के रूप में आते थे, उनसे शासन प्रशासन को
थोड़ी मदद मिल ही जाया करती थी. अब समाचार पत्रों के वे दिन नहीं रहे. अब ज़माना
सोशल मीडिया का है. सोशल मीडिया की ख़बरें और संदेशों के आधार पर लोगों की भावनाएं
और इच्छाएँ सरकारों तक पहुँचने लगी हैं. और यह बड़ा दुखद है कि कई जिम्मेदार लोग
अपने वक्तव्यों में सोशल मीडिया की ख़बरों की बिना सत्यता की छानबीन किए मुख्य आधार
बना लेते हैं. अब यह अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं रहा कि अब बहुत कुछ समाचार पत्रों में जो
छपता है ज्यादातर उसमें वही होता है जो सरकार कर और कह रही होती हैं, इसके अलावा
बहुत कम ऐसा होता है जिसमें सरकार को सलाह दी गई हो. कोई अब कहता ही नहीं कि आप यह
करें या आपने यह गलत किया है. यह वह दौर है जब कई अखबार वही छापना पसंद करते हैं जो
प्रबंधकों को या अखबार को नुकसान न पहुंचाता हो. दूसरे शब्दों में कहें कि अखबारों
के जो कंटेंट हैं, विषय वस्तु है, जो विचार हैं उनके अनुसार सरकारें नहीं चला
करतीं. उनका कोई उपयोग अपनी योजनाओं में भी शायद ही कभी करती हैं बल्कि अब अखबारों
में वह सब छपता है जो प्रशासन और सरकार लोगों तक पहुंचाना चाहती हैं या लोगों को
पढ़वाना चाहती हैं.
जिन राजनीतिक
दलों के पास सत्ता होती है वे अपने पक्ष
में अखबार के पाठकों को अपने वोटर के रूप में बदल डालने की युक्ति में लगे दिखाई
देते हैं. अब वे दिन लद गए जब समाचार पत्र
की अपनी निषपक्षता हुआ करती थी, अब अपवाद स्वरूप ही ऐसा कहीं भले दिख जाए. समाचार पत्रों
की कभी अपनी विशिष्ठ नीति हुआ करती थी, समाज कल्याण के व्यापक उद्देश्य से
लोकतंत्र का यह चौथा खंभा अब उस भूमिका में नहीं है.
हिंदी अखबारों
की बात करें तो मुझे ऐसा लगता है उत्तर कोरोना काल में निश्चित रूप से उनमें भी
बहुत बड़ा परिवर्तन देखा जा सकेगा. आज की परिस्थिति में या आज से पहले इन दिनों से
पहले जब अखबारों का विस्तार हुआ, पृष्ठों की
संख्या 30, 32, 36 तक चली गई थी वह पुनः
4 या 6 पृष्ठों में सिमट आये तो कोइ
आश्चर्य नहीं होगा. कभी ऐसा क्षेत्रीय भाषाई अखबारों में हुआ करता था, जब मात्र 6
पृष्ठों में हमें इतनी पठनीय सामग्री पढ़ने को मिल जाती थी कि दिनभर
की वैचारिक संतुष्टि हो जाती थी. लेकिन बाद में जैसे-जैसे बाजारवाद आया और अखबार धीरे
धीरे व्यावसायिक पेम्पलेट में बदलते गए. अखबारों की स्पेस का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापन
में खपने लगा. हकीकत यह भी थी कि अखबारों के राष्ट्रीय विस्तार और प्रबंधन में जो
लागत आ रही होती है उसका खर्च बड़े संस्थानों, घरानों और सरकारों से विज्ञापनों के
रूप में होनेवाली कमाई से ही उठाया जा सकता है. इस तरह बड़े बड़े अखबारों में
अधिकांश सामग्री विज्ञापनों के रूप में हमारे सामने आती रही हैं या कहें कि जो
खबरें आती हैं वह भी एक तरह से किसी चीज का परोक्ष विज्ञापन ही होता रहा है. मार्केटिंग
का एक साधन अखबार भी बन गए. इतने बड़े लंबे चौड़े अखबार में पठनीय सामग्री के नाम
पर जो कुछ मिलता रहा है उसमें रचनात्मक साहित्य और वैचारिक सामग्री में धीरे-धीरे
कमी सी होती गई और जो हिंदी अखबारों में पूरे के पूरे पृष्ठ पर ऐसी सामग्री हुआ करती
थी. वह खत्म होते गए या एक चौथाई प्रश्नों में सिमट गए या किसी अन्य संस्करण से
कॉपी पेस्ट होने लगे. रचनात्मक व्यक्तियों की आंचलिक भागीदारी सीमित होती गयी.
लेकिन क्या अब
उम्मीद की जा सकती है कि जब सब कुछ बदल रहा है, बीता हुआ कल लौट रहा है, आंचलिकता
की सुगंध लिए छोटे छोटे अखबारों का दौर फिर लौट आयेगा. आज थोड़ा मुश्किल जरूर लगता है लेकिन एक सुखद
कल्पना तो कर ही सकते हैं. पिछले दिनों हमने अभी हाल ही में देखा कि जो बड़े अखबार
हैं धीरे धीरे क्षेत्रीय अखबारों में बदलते रहे हैं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की वजह
से भी थोड़ा बहुत उन्हें अपने को बदलना भी पड़ा है. क्योंकि जो खबरें टीवी चैनलों
पर चौबीसों घंटे पल-पल की मिलती रहती हैं वे सुबह अखबारों में बासी हो जाती हैं. हर
जिले का अलग पेज छापकर वितरित करना अखबारों के आंचलिक अखबारों में बदलते जाने का
संकेत ही नहीं यह एक सुखद विवशता भी कही जा सकती है. यहाँ एक बास्केट में सभी अंडे
रखने वाली कहावत बड़े अखबारों पर भी लागू होती है. कोई माने या न माने मगर आंचलिक और छोटे अखबार सच्ची और ईमानदार पत्रकारिता
की राह सुनिश्चित करते हैं. यदि ऐसा हुआ तो शायद पाठकों का भला ही होगा.
ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर 452018
मो 9893944294
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