Monday, September 26, 2016

व्यंग्य में पठनीयता

विमर्श
व्यंग्य में  पठनीयता 
ब्रजेश कानूनगो

1 साहित्य का पाठ

जब भी हम कुछ पढ़ते हैं, उसका आनन्द लेते हैं तब क्या सचमुच उस पढ़े जाने को 'पाठ' कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए एक बच्चा चली आ रही परम्परा के अनुसार किसी 'चालीसा' का पाठ करना शुरू करता है।एक छोटी सी पोथी से शुरू करता है। पूरी किताब सहजता से पढ़ डालता है। शब्द शब्द उसे आनन्द से भर देते हैं।शब्दों का संगीत लय सहित गूंजने लगता है। यहां भी पठनीयता तो है मगर क्या यहां सचमुच रचना का पाठ हुआ?

एक मित्र 150 पेजों की किताब मात्र 1 घंटे में पढ़ डालते हैं,वहीँ एक मित्र उसके लिए 1 सप्ताह लेते हैं।किताब वही है, लेकिन उसके पाठ में लगने वाला समय पाठक के ऊपर निर्भर है।पहले मित्र के लिए किताब इतनी पठनीय है कि तुरन्त ग्रहण हो जाती है जबकि दूसरे पाठक तक पहुँचने में ज्यादा समय लेती है।यहां पठनीयता तो वही है,पाठक की ग्रहण क्षमता बदल गयी है।

पठनीयता को भाषिक प्रवाह की तरह देखें तो जैसे कोई चिकनी सड़क की सहजता से मुकाम तक पहुंचा देने की खासियत। लेकिन क्या उस सड़क में यात्रा का रोमांच है? कार के शीशों पर परदे चढा लेने से यात्रा के सुन्दर दृश्य विलुप्त नहीं हो जाते हैं। जो यात्रा दुर्गम अनुभवों के लिए ही की जा रही होगी तो सफर में दचके तो लगेंगे ही। पहाड़ के शिखर को छूने को निकले पाठक को अपने साधन भी थोड़े जुटाना ही होंगें।

व्यंग्य की पठनीयता को चालीसा की पठनीयता से अलग रखकर विचार करना जरूरी होगा।

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2 पठनीयता और शब्द शक्ति

देखा जाए तो पठनीयता का एक सम्बन्ध ख़ास विधा से भी जुड़ता है। यह भी तय है कि बगैर किसी भाषा के हम किसी भी विधा में कैसी भी रचना की कल्पना नहीं कर सकते। और जब भाषा के लिए विचार करते हैं  तो 'शब्द शक्तियों' की बात भी सहज है।

अभिधा,लक्षणा और व्यंजना ,ये तीन ऐसी शब्द शक्तियां हैं जिनमे हम अपने कथन को व्यक्त करते हैं। कोई भी संप्रेषण साधारणतः अभिधा के अंतर्गत होता है, सामान्य सूचनात्मक लेख, रिपोर्टिंग आदि जिनमें सीधे से विषयवस्तु अभिव्यक्त होती है, किंतु जब साहित्य की किसी विधा में रचना आती है तब अभिधा के अलावा,लक्षणा और व्यंजना शक्ति का विवेकपूर्ण  उपयोग उसे प्रभावी बनाता है, गुणवत्ता में बेहतरी लाता है।

शब्द शक्तियों का उपयोग रचना को  दुरूह बनाकर उसमें बाधक नहीं बनता बल्कि उसे थोड़ा अधिक स्वीकार्य और रचना में कलात्मकता पैदा करता है। शरीर को सीधे सीधे व्यायाम के लिए हिलाने डुलाने से भी एक्सरसाइज तो होती है,मगर यदि संगीत के साथ एरोबिक्स अथवा योगाभ्यास किया जाए तो वह कुछ अधिक स्वीकार्य और अधिक करने के लिए इच्छा जाग्रत करने वाला हो जाता है।
व्यंग्य में लक्षणा और व्यंजना यही काम करते हैं। जिनके अभाव में कोई भी रचना 'सपाट बयानी' से आरोपित की जा सकती है। व्यंग्य तो वहां भी होगा मगर व्यंग्य का श्रृंगार और ख़ूबसूरती नहीं दिखाई देगी। व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियां व्यंग्य रचना की ताकत कही जा सकती है।
इन शक्तियों के कारण रचना की पठनीयता बढ़ जाती है और आगे पढ़ने को लालायित करती है।

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3 पठनीयता एक निर्बाध सफ़र

कई बार किसी व्यंग्य लेख को पढ़ते हुए कुछ अवरोध या स्पीडब्रेकर भी महसूस किये जा सकते हैं। दरअसल, रचनाकार जब किसी एक विषय पर लिखना चाहता है तो उसका यह प्रयास होता है कि उस विषय से सम्बंधित सारे मुद्दों और पक्षों को वह अपने आलेख में समेट ले।

लेख के हर पेरा में वह कुछ कहता भी है लेकिन अगले पेरा में प्रवेश के साथ ही पाठक भौचक्क रह जाता है कि उसकी बात कहाँ से जम्प लगाती कहाँ आ पहुंची। अयोध्या से सीधे अलीगढ़ पहुँच जाना,कुछ अटपटा सा अनुभव हो जाता है पाठक के लिए। इसे 'कहे खेत की और सुने खलिहान की' जैसा भी माना जा सकता है। खेत से खलिहान तक जो पगडंडी जाती है,उस पर से न गुजरते हुए लेखक लंबी कूद लगा देता है,और सारी  पठनीयता धराशायी हो जाती है।

इसमें लेखक को विषय वस्तु के विभिन्न दृश्यों और पहलुओं के बीच खूबसूरत कपलिंग करना आना चाहिए। एक पटरी से दूसरी पटरी पर आते समय कोण की बजाय कर्व का प्रयोग करना बेहतर हो सकता है। कुशल व्यंग्यकार अपनी रचना की  रेलगाड़ी को आहिस्ता आहिस्ता दिशा परिवर्तित करवाता रहता है। और कुछ ख़ास और अनुभवी लेखक तो पठनीयता बनाये रखने में इतने सिद्धहस्त हो जाते हैं कि पूर्व दिशा में जा रही रेलगाड़ी जब गंतव्य पर रुकती है तो उसका इंजिन पश्चिम की ओर हो जाता है। पाठक को अहसास ही नहीं हो पाता कि दिशा ठीक विपरीत हो चुकी है। कुशल व्यंग्यकार की रचना में पठनीयता कुछ ऐसी ही होती है।

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4 सामयिक सन्दर्भ और पठनीयता

व्यंग्य रचनाओं में इन दिनों सामयिक घटनाओं और प्रसंगों का सन्दर्भ लेने का चलन बढ़ा है। विशेषतः अखबारों में प्रकाशित होनेवाले दैनिक कॉलोमों में ऐसा  कटाक्षपूर्ण या व्यंग्यात्मक अथवा परिहास सहजता से देखा जा सकता है। अखबारों के पाठकों के बीच ये काफी रूचि से पढ़े भी जाते हैं। कुछ तो सबसे पहले इन्हें ही पढ़ना पसंद करते हैं। हर अखबार ऐसे कॉलम इन दिनों जारी रखे है। इस व्यावसायिक समय में साहित्य पृष्ठ भले ही नदारद होते जा रहे हों मगर इन लघु टिप्पणियों की मांग बरकरार है।

इसका एक अर्थ यह भी है कि सामयिक व्यंग्य लेखों की पठनीयता उनके तात्कालिक सन्दर्भों की वजह से अधिक हैं।यह भी सही है कि इनका पाठक भी एक औसत आम पाठक है। कविता की तरह यह तंज यहां लागू नहीं होता कि 'कवि ही कविता पढ़ते हैं और कवि ही कविता लिखते हैं'। यहां इन लेखों को साहित्यकार और व्यंग्यकार पढ़ने में रूचि उतना नहीं लेता जितना उस अखबार का नियमित पाठक वर्ग।

दो बात मुझे इस स्थिति से स्पष्ट होती है एक यह कि सामयिक सन्दर्भों और विषयों पर लिखे गए की पठनीयता आम पाठकों में ज्यादा होती है। कुछ पाठक जो प्रबुद्धता की पैमाने में थोड़े ऊपर उठ जाते हैं, वे इन लेखों में पठनीयता होने के बावजूद बगैर पढ़े छोड़ भी सकते हैं। दूसरी बात यह कि इनका जीवन उतना ही प्रायः रह पाता है जितना किसी अखबार के उस दिन के अंक  का अस्तित्व।

मुझे लगता है एक विवेकी रचनाकार ने ऐसे आलेखों को  'रचना बीज'  की तरह लेकर लेख तो अवश्य लिख लेना चाहिए, छपवा भी लेना चाहिए लेकिन एक अरसा बाद, इनकी पुनः खैर खबर लेना उसके लिए लाभदायक हो सकता है। तात्कालिक घटनाक्रम के आतंक और छपास की आस से मुक्त संपादन और घटना के पीछे की 'प्रवत्ति' को विषय बनाकर नया व्यंग्य तैयार किया जा सकता है, जिसकी उम्र और पठनीयता मुझे लगता है दोनों बेहतर और सर्वकालिक होगी।

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5 पठनीयता में भाषिक प्रयोग

एक प्रश्न अक्सर व्यंग्य में क्षेत्रीय और प्रचलित शब्दों के उपयोग को लेकर भी उठता रहता है। भाषिक प्रयोग किसी भी रचना के सौंदर्य में वृद्धि ही करते हैं। शब्दों के व्यंजनात्मक प्रयोग से रचना खिल उठती है। शब्द फिर क्षेत्रीय भाषा का ही क्यों न हो। इधर तो ठेठ 'इंदौरी' बोली के चौराहे के शब्दों का खूब मजेदार उपयोग होने लगा है। 'भिया', ' क्या केरिये हो' से लेकर 'पेलवान' और 'छरै'  भी खूब चल निकला है। सवाल अंततः विषयवस्तु की गुणवत्ता का ही है। मुम्बइया जुबान में कई बेहतर प्रयोग हुए हैं। कई लेखों और रचनाओं में तथा कथित गालियों का प्रयोग तक होता रहा है।लेकिन वहां केवल वही तो नहीं होता। शुरू में अटपटे लग सकते हैं बोलियों के शब्द,लेकिन फिर तो प्रयोग होते होते सब 'सायोनारा' हो ही जाता है।

मुहावरों और लोकोक्तियों से भी पढ़ने वालों में भरपूर रूचि पैदा होती है। खूब प्रयोग किया गया है इनका। कहावतों का तेल निकालकर भी व्यंग्य रचनाएं मैं खुद लिखता रहा हूँ। मगर अब नए मुहावरे गढ़ने का समय आ गया है।
'गुस्से में आदमी कागज फाड़ता है', 'दाढ़ी के पीछे क्या है', 'हर बात जुमला नहीं होती,' जैसे प्रयोग हुए भी हैं। ओल्ड इस गोल्ड तो होता है मगर नई घडावन और कारीगरी भी जरूरी होगी। बशर्ते वह गहने पर  खूबसूरत लगे। प्रयोग के पूर्व लेखक ही रचना का पहला पाठक होता है,जरा भी कोई बात उसे भद्दा बनाती हो,उसका मोह त्याग कर निर्ममता से उसे हटा दिया जाए  तो पठनीयता पर शायद  कोई ख़ास असर नहीं होगा।

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ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी ,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -452018


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