लेख
वाद-विवाद ललित कला नहीं है
ब्रजेश कानूनगो
देश-प्रदेश के विश्वविद्यालय हर वर्ष अपने अधीन महाविद्यालयों के
छात्रों के लिए ‘युवा-महोत्सव’ या इसी तरह के समानधर्मी आयोजन करते हैं, जिसमें
अनेक कला गतिविधियाँ और प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं. एक विश्वविद्यालय के
सालाना युवा महोत्सव में वाद विवाद प्रतियोगिता के निर्णायक के रुप में
सम्मिलित होने का अवसर मिला।
दरअसल, यह ऐसा समय है जब अपनी बात को दृढ़ता से रखना और अपने कहे पर
लोगों का विश्वास अर्जित करना बहुत जरूरी हो गया है। अपने विचारों को ठीक से अभिव्यक्त
करना जीवन में सफलता का एक जरूरी गुण कहा जा सकता है। सरल शब्दों में कहें तो हमें
केवल बोलना ही नहीं बल्कि अच्छा और प्रभावी बोलना आना चाहिए। स्कूल, कॉलेजों में होने वाली भाषण और वाद विवाद प्रतियोगिताओं के पीछे भी
यही उद्देश्य होता है कि विद्यार्थी
,जानाकारीन ज्ञान और विचार की प्रक्रिया से गुजर कर अभिव्यक्ति की कला में अपनी युवावस्था में ही प्रवीण
हो सकें।
यद्यपि वाद-विवाद प्रतियोगिता के अधिकाँश प्रतिभागियों ने बहुत तैयारी
की थी और उनकी प्रस्तुति बहुत गुणवत्तापूर्ण रहीं. किन्तु एक निर्णायक के रूप में कुछ
प्रतियोगियों की प्रस्तुति को देखते- सुनते हुए बड़े दिलचस्प अनुभव भी हुए।
जब प्रतियोगी अपने विषय पर पक्ष और विपक्ष में बोलने आए तो मैंने महसूस
किया कि उनमें से कुछ छात्र शायद वाद विवाद प्रतियोगिता का उद्देश्य और प्रयोजन ही
नहीं जानते थे। उनमे से कुछ यही मानकर चल रहे थे कि मंच के डायस पर आकर दिए गए विषय पर कोई आकर्षक प्रस्तुति भर देना है।
उनमें से कुछ ने अपने संबोधन को वक्तव्य कला से अलग करते हुए अभिनय
कला, गायन कला, काव्य कला की किसी प्रस्तुति की तरह सामने रखा।
कुछ भाषण कला की प्रस्तुति करते हुए यह भी भूल गए कि वह किसी चुनावी रैली का
जोशीला उद्बोधन देने खड़े नहीं हुए हैं. मुझे तब बेहद आश्चर्य हुआ जब एक प्रतियोगी
हु-बहू किसी नेताजी की तरह परिधान धारण करके डायस पर पहुंचा. दूसरे ने किसी मंचीय
कवि के लटकों-झटकों के साथ अपनी बात रखी.
हद तो तब हो गयी जब एक अन्य छात्र अपनी आवाज में किसी प्रवचनकार की तरह रस घोलने
लगा. बीच में कोई करूण गीत गाते हुए उसका गला भर आया. मुझे लगा अब मैं शायद रो ही
दूंगा, आँखों से अश्रुओं की धारा बह चलेगी.
अपने उद्बोधन को रोचक बनाने और श्रोताओं के ध्यानाकर्षण हेतु ऐसे थोड़े-बहुत
हथकंडे अपनाए जा सकते हैं लेकिन तब, जब आपके पास विषय पर कुछ कह पाने की सामग्री
भी हो. इनमे से कई दिए गए विषय को मात्र स्पर्श करने के बाद अन्य कलाओं का प्रदर्शन
इतना शानदार तरीके से करने लगे कि सदन में तालियां तक बज गईं। यह दुर्भाग्य ही था
कि तालियों की गूँज की समाप्ति के साथ ही उनका वक्तव्य भी विषयवस्तु के बड़े से शून्य
के साथ समाप्त हो गया.
यहाँ यह समझा जाना आवश्यक है कि वाद-विवाद में बोलने की कला, अभिनय,
गीत संगीत, कविता, कथा वाचक या नेताजी का
चुनावी मंच नहीं है, अपने वक्तव्य में विषय के विविध पक्षों की जानकारी और
विश्लेषण के साथ विचारों को तर्क सहित मजबूती से रखना नितांत जरूरी होता है.
जब भी कोई बहस या वाद-विवाद किया जाता है तब उसके केंद्र में एक ख़ास
‘विषय’ होता है. संदर्भित विषय से सम्बद्ध सारे पक्षों पर विचार करते हुए किसी ऐसे
निर्णय पर पहुंचना होता है जो सर्वजन हिताय हो. देश की संसद इसका सबसे महत्वपूर्ण
उदाहरण है. जहां नियमों ,अधिनियमों को बनाने के लिए ‘बहस’ और ‘विचार’ से उसका का
परीक्षण करके उन्हें अपनाया अथवा खारिज किया जाता है. संसद में होने वाली उद्देश्यपूर्ण
बहसें यदि छात्रों द्वारा गंभीरता से देखी-समझी जाएँ तो शायद वाद-विवाद
प्रतियोगिताओं में ऐसे हास्यास्पद दृश्य नहीं देखे जा सकेंगे.
ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
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