Monday, September 26, 2016

व्यंग्य में पठनीयता

विमर्श
व्यंग्य में  पठनीयता 
ब्रजेश कानूनगो

1 साहित्य का पाठ

जब भी हम कुछ पढ़ते हैं, उसका आनन्द लेते हैं तब क्या सचमुच उस पढ़े जाने को 'पाठ' कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए एक बच्चा चली आ रही परम्परा के अनुसार किसी 'चालीसा' का पाठ करना शुरू करता है।एक छोटी सी पोथी से शुरू करता है। पूरी किताब सहजता से पढ़ डालता है। शब्द शब्द उसे आनन्द से भर देते हैं।शब्दों का संगीत लय सहित गूंजने लगता है। यहां भी पठनीयता तो है मगर क्या यहां सचमुच रचना का पाठ हुआ?

एक मित्र 150 पेजों की किताब मात्र 1 घंटे में पढ़ डालते हैं,वहीँ एक मित्र उसके लिए 1 सप्ताह लेते हैं।किताब वही है, लेकिन उसके पाठ में लगने वाला समय पाठक के ऊपर निर्भर है।पहले मित्र के लिए किताब इतनी पठनीय है कि तुरन्त ग्रहण हो जाती है जबकि दूसरे पाठक तक पहुँचने में ज्यादा समय लेती है।यहां पठनीयता तो वही है,पाठक की ग्रहण क्षमता बदल गयी है।

पठनीयता को भाषिक प्रवाह की तरह देखें तो जैसे कोई चिकनी सड़क की सहजता से मुकाम तक पहुंचा देने की खासियत। लेकिन क्या उस सड़क में यात्रा का रोमांच है? कार के शीशों पर परदे चढा लेने से यात्रा के सुन्दर दृश्य विलुप्त नहीं हो जाते हैं। जो यात्रा दुर्गम अनुभवों के लिए ही की जा रही होगी तो सफर में दचके तो लगेंगे ही। पहाड़ के शिखर को छूने को निकले पाठक को अपने साधन भी थोड़े जुटाना ही होंगें।

व्यंग्य की पठनीयता को चालीसा की पठनीयता से अलग रखकर विचार करना जरूरी होगा।

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2 पठनीयता और शब्द शक्ति

देखा जाए तो पठनीयता का एक सम्बन्ध ख़ास विधा से भी जुड़ता है। यह भी तय है कि बगैर किसी भाषा के हम किसी भी विधा में कैसी भी रचना की कल्पना नहीं कर सकते। और जब भाषा के लिए विचार करते हैं  तो 'शब्द शक्तियों' की बात भी सहज है।

अभिधा,लक्षणा और व्यंजना ,ये तीन ऐसी शब्द शक्तियां हैं जिनमे हम अपने कथन को व्यक्त करते हैं। कोई भी संप्रेषण साधारणतः अभिधा के अंतर्गत होता है, सामान्य सूचनात्मक लेख, रिपोर्टिंग आदि जिनमें सीधे से विषयवस्तु अभिव्यक्त होती है, किंतु जब साहित्य की किसी विधा में रचना आती है तब अभिधा के अलावा,लक्षणा और व्यंजना शक्ति का विवेकपूर्ण  उपयोग उसे प्रभावी बनाता है, गुणवत्ता में बेहतरी लाता है।

शब्द शक्तियों का उपयोग रचना को  दुरूह बनाकर उसमें बाधक नहीं बनता बल्कि उसे थोड़ा अधिक स्वीकार्य और रचना में कलात्मकता पैदा करता है। शरीर को सीधे सीधे व्यायाम के लिए हिलाने डुलाने से भी एक्सरसाइज तो होती है,मगर यदि संगीत के साथ एरोबिक्स अथवा योगाभ्यास किया जाए तो वह कुछ अधिक स्वीकार्य और अधिक करने के लिए इच्छा जाग्रत करने वाला हो जाता है।
व्यंग्य में लक्षणा और व्यंजना यही काम करते हैं। जिनके अभाव में कोई भी रचना 'सपाट बयानी' से आरोपित की जा सकती है। व्यंग्य तो वहां भी होगा मगर व्यंग्य का श्रृंगार और ख़ूबसूरती नहीं दिखाई देगी। व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियां व्यंग्य रचना की ताकत कही जा सकती है।
इन शक्तियों के कारण रचना की पठनीयता बढ़ जाती है और आगे पढ़ने को लालायित करती है।

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3 पठनीयता एक निर्बाध सफ़र

कई बार किसी व्यंग्य लेख को पढ़ते हुए कुछ अवरोध या स्पीडब्रेकर भी महसूस किये जा सकते हैं। दरअसल, रचनाकार जब किसी एक विषय पर लिखना चाहता है तो उसका यह प्रयास होता है कि उस विषय से सम्बंधित सारे मुद्दों और पक्षों को वह अपने आलेख में समेट ले।

लेख के हर पेरा में वह कुछ कहता भी है लेकिन अगले पेरा में प्रवेश के साथ ही पाठक भौचक्क रह जाता है कि उसकी बात कहाँ से जम्प लगाती कहाँ आ पहुंची। अयोध्या से सीधे अलीगढ़ पहुँच जाना,कुछ अटपटा सा अनुभव हो जाता है पाठक के लिए। इसे 'कहे खेत की और सुने खलिहान की' जैसा भी माना जा सकता है। खेत से खलिहान तक जो पगडंडी जाती है,उस पर से न गुजरते हुए लेखक लंबी कूद लगा देता है,और सारी  पठनीयता धराशायी हो जाती है।

इसमें लेखक को विषय वस्तु के विभिन्न दृश्यों और पहलुओं के बीच खूबसूरत कपलिंग करना आना चाहिए। एक पटरी से दूसरी पटरी पर आते समय कोण की बजाय कर्व का प्रयोग करना बेहतर हो सकता है। कुशल व्यंग्यकार अपनी रचना की  रेलगाड़ी को आहिस्ता आहिस्ता दिशा परिवर्तित करवाता रहता है। और कुछ ख़ास और अनुभवी लेखक तो पठनीयता बनाये रखने में इतने सिद्धहस्त हो जाते हैं कि पूर्व दिशा में जा रही रेलगाड़ी जब गंतव्य पर रुकती है तो उसका इंजिन पश्चिम की ओर हो जाता है। पाठक को अहसास ही नहीं हो पाता कि दिशा ठीक विपरीत हो चुकी है। कुशल व्यंग्यकार की रचना में पठनीयता कुछ ऐसी ही होती है।

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4 सामयिक सन्दर्भ और पठनीयता

व्यंग्य रचनाओं में इन दिनों सामयिक घटनाओं और प्रसंगों का सन्दर्भ लेने का चलन बढ़ा है। विशेषतः अखबारों में प्रकाशित होनेवाले दैनिक कॉलोमों में ऐसा  कटाक्षपूर्ण या व्यंग्यात्मक अथवा परिहास सहजता से देखा जा सकता है। अखबारों के पाठकों के बीच ये काफी रूचि से पढ़े भी जाते हैं। कुछ तो सबसे पहले इन्हें ही पढ़ना पसंद करते हैं। हर अखबार ऐसे कॉलम इन दिनों जारी रखे है। इस व्यावसायिक समय में साहित्य पृष्ठ भले ही नदारद होते जा रहे हों मगर इन लघु टिप्पणियों की मांग बरकरार है।

इसका एक अर्थ यह भी है कि सामयिक व्यंग्य लेखों की पठनीयता उनके तात्कालिक सन्दर्भों की वजह से अधिक हैं।यह भी सही है कि इनका पाठक भी एक औसत आम पाठक है। कविता की तरह यह तंज यहां लागू नहीं होता कि 'कवि ही कविता पढ़ते हैं और कवि ही कविता लिखते हैं'। यहां इन लेखों को साहित्यकार और व्यंग्यकार पढ़ने में रूचि उतना नहीं लेता जितना उस अखबार का नियमित पाठक वर्ग।

दो बात मुझे इस स्थिति से स्पष्ट होती है एक यह कि सामयिक सन्दर्भों और विषयों पर लिखे गए की पठनीयता आम पाठकों में ज्यादा होती है। कुछ पाठक जो प्रबुद्धता की पैमाने में थोड़े ऊपर उठ जाते हैं, वे इन लेखों में पठनीयता होने के बावजूद बगैर पढ़े छोड़ भी सकते हैं। दूसरी बात यह कि इनका जीवन उतना ही प्रायः रह पाता है जितना किसी अखबार के उस दिन के अंक  का अस्तित्व।

मुझे लगता है एक विवेकी रचनाकार ने ऐसे आलेखों को  'रचना बीज'  की तरह लेकर लेख तो अवश्य लिख लेना चाहिए, छपवा भी लेना चाहिए लेकिन एक अरसा बाद, इनकी पुनः खैर खबर लेना उसके लिए लाभदायक हो सकता है। तात्कालिक घटनाक्रम के आतंक और छपास की आस से मुक्त संपादन और घटना के पीछे की 'प्रवत्ति' को विषय बनाकर नया व्यंग्य तैयार किया जा सकता है, जिसकी उम्र और पठनीयता मुझे लगता है दोनों बेहतर और सर्वकालिक होगी।

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5 पठनीयता में भाषिक प्रयोग

एक प्रश्न अक्सर व्यंग्य में क्षेत्रीय और प्रचलित शब्दों के उपयोग को लेकर भी उठता रहता है। भाषिक प्रयोग किसी भी रचना के सौंदर्य में वृद्धि ही करते हैं। शब्दों के व्यंजनात्मक प्रयोग से रचना खिल उठती है। शब्द फिर क्षेत्रीय भाषा का ही क्यों न हो। इधर तो ठेठ 'इंदौरी' बोली के चौराहे के शब्दों का खूब मजेदार उपयोग होने लगा है। 'भिया', ' क्या केरिये हो' से लेकर 'पेलवान' और 'छरै'  भी खूब चल निकला है। सवाल अंततः विषयवस्तु की गुणवत्ता का ही है। मुम्बइया जुबान में कई बेहतर प्रयोग हुए हैं। कई लेखों और रचनाओं में तथा कथित गालियों का प्रयोग तक होता रहा है।लेकिन वहां केवल वही तो नहीं होता। शुरू में अटपटे लग सकते हैं बोलियों के शब्द,लेकिन फिर तो प्रयोग होते होते सब 'सायोनारा' हो ही जाता है।

मुहावरों और लोकोक्तियों से भी पढ़ने वालों में भरपूर रूचि पैदा होती है। खूब प्रयोग किया गया है इनका। कहावतों का तेल निकालकर भी व्यंग्य रचनाएं मैं खुद लिखता रहा हूँ। मगर अब नए मुहावरे गढ़ने का समय आ गया है।
'गुस्से में आदमी कागज फाड़ता है', 'दाढ़ी के पीछे क्या है', 'हर बात जुमला नहीं होती,' जैसे प्रयोग हुए भी हैं। ओल्ड इस गोल्ड तो होता है मगर नई घडावन और कारीगरी भी जरूरी होगी। बशर्ते वह गहने पर  खूबसूरत लगे। प्रयोग के पूर्व लेखक ही रचना का पहला पाठक होता है,जरा भी कोई बात उसे भद्दा बनाती हो,उसका मोह त्याग कर निर्ममता से उसे हटा दिया जाए  तो पठनीयता पर शायद  कोई ख़ास असर नहीं होगा।

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ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी ,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -452018


Monday, September 19, 2016

वाद-विवाद ललित कला नहीं है

लेख
वाद-विवाद ललित कला नहीं है
ब्रजेश कानूनगो   

देश-प्रदेश के विश्वविद्यालय हर वर्ष अपने अधीन महाविद्यालयों के छात्रों के लिए ‘युवा-महोत्सव’ या इसी तरह के समानधर्मी आयोजन करते हैं, जिसमें अनेक कला गतिविधियाँ और प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं. एक विश्वविद्यालय के सालाना युवा महोत्सव में वाद विवाद प्रतियोगिता के निर्णायक के रुप में सम्मिलित होने का अवसर मिला।

दरअसल, यह ऐसा समय है जब अपनी बात को दृढ़ता से रखना और अपने कहे पर लोगों का विश्वास अर्जित करना बहुत जरूरी हो गया है। अपने विचारों को ठीक से अभिव्यक्त करना जीवन में सफलता का एक जरूरी गुण कहा जा सकता है। सरल शब्दों में कहें तो हमें केवल बोलना ही नहीं बल्कि अच्छा और प्रभावी बोलना आना चाहिए। स्कूल, कॉलेजों में होने वाली भाषण और वाद विवाद प्रतियोगिताओं के पीछे भी यही उद्देश्य होता है कि विद्यार्थी ,जानाकारीन ज्ञान  और विचार की प्रक्रिया से गुजर कर  अभिव्यक्ति की कला में अपनी युवावस्था में ही प्रवीण हो सकें।

यद्यपि वाद-विवाद प्रतियोगिता के अधिकाँश प्रतिभागियों ने बहुत तैयारी की थी और उनकी प्रस्तुति बहुत गुणवत्तापूर्ण रहीं. किन्तु एक निर्णायक के रूप में कुछ प्रतियोगियों की प्रस्तुति को देखते- सुनते हुए बड़े दिलचस्प अनुभव भी हुए।

जब प्रतियोगी अपने विषय पर पक्ष और विपक्ष में बोलने आए तो मैंने महसूस किया कि उनमें से कुछ छात्र शायद वाद विवाद प्रतियोगिता का उद्देश्य और प्रयोजन ही नहीं जानते थे। उनमे से कुछ यही मानकर चल रहे थे कि मंच के डायस पर आकर  दिए गए  विषय पर कोई आकर्षक प्रस्तुति भर देना है।

उनमें से कुछ ने अपने संबोधन को वक्तव्य कला से अलग करते हुए अभिनय कला, गायन कला, काव्य कला की किसी प्रस्तुति की तरह सामने रखा। कुछ भाषण कला की प्रस्तुति करते हुए यह भी भूल गए कि वह किसी चुनावी रैली का जोशीला उद्बोधन देने खड़े नहीं हुए हैं. मुझे तब बेहद आश्चर्य हुआ जब एक प्रतियोगी हु-बहू किसी नेताजी की तरह परिधान धारण करके डायस पर पहुंचा. दूसरे ने किसी मंचीय कवि के लटकों-झटकों  के साथ अपनी बात रखी. हद तो तब हो गयी जब एक अन्य छात्र अपनी आवाज में किसी प्रवचनकार की तरह रस घोलने लगा. बीच में कोई करूण गीत गाते हुए उसका गला भर आया. मुझे लगा अब मैं शायद रो ही दूंगा, आँखों से अश्रुओं की धारा बह चलेगी.
अपने उद्बोधन को रोचक बनाने और श्रोताओं के ध्यानाकर्षण हेतु ऐसे थोड़े-बहुत हथकंडे अपनाए जा सकते हैं लेकिन तब, जब आपके पास विषय पर कुछ कह पाने की सामग्री भी हो. इनमे से कई दिए गए विषय को मात्र स्पर्श करने के बाद अन्य कलाओं का प्रदर्शन इतना शानदार तरीके से करने लगे कि सदन में तालियां तक बज गईं। यह दुर्भाग्य ही था कि तालियों की गूँज की समाप्ति के साथ ही उनका वक्तव्य भी विषयवस्तु के बड़े से शून्य के साथ समाप्त हो गया.

यहाँ यह समझा जाना आवश्यक है कि वाद-विवाद में बोलने की कला, अभिनय, गीत संगीत, कविता,  कथा वाचक या नेताजी का चुनावी मंच नहीं है, अपने वक्तव्य में विषय के विविध पक्षों की जानकारी और विश्लेषण के साथ विचारों को तर्क सहित मजबूती से रखना नितांत जरूरी होता है.        

जब भी कोई बहस या वाद-विवाद किया जाता है तब उसके केंद्र में एक ख़ास ‘विषय’ होता है. संदर्भित विषय से सम्बद्ध सारे पक्षों पर विचार करते हुए किसी ऐसे निर्णय पर पहुंचना होता है जो सर्वजन हिताय हो. देश की संसद इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है. जहां नियमों ,अधिनियमों को बनाने के लिए ‘बहस’ और ‘विचार’ से उसका का परीक्षण करके उन्हें अपनाया अथवा खारिज किया जाता है. संसद में होने वाली उद्देश्यपूर्ण बहसें यदि छात्रों द्वारा गंभीरता से देखी-समझी जाएँ तो शायद वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में ऐसे हास्यास्पद दृश्य नहीं देखे जा सकेंगे.

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018








Friday, September 9, 2016

विज्ञापन बोर्डों में हिन्दी

विज्ञापन बोर्डों में हिन्दी का हाल
ब्रजेश कानूनगो

भाषा विज्ञान और व्याकरण जहां टकराते हों वहां भाषा की शुद्धता एक बिंदु हो सकता है. स्थापित और निर्धारित प्रणाली के अनुसार शब्दों और सही वर्तनी (मात्राएँ) के उपयोग के व्याकरणीय आग्रह होते हैं, जबकि भाषा विज्ञान के अनुसार जनस्वीकृति और लोगों के प्रयोग से किसी भी भाषा का विकास माना गया है. यद्यपि शब्दों के अपभ्रंश और बदले हुए स्वरूप मानक भाषा में स्वीकार किये जाते रहे हैं. लेकिन शब्दों को भ्रष्ट करने और भाषा को उसकी वैज्ञानिकता से दूर करने के अनायास प्रयास मन को बहुत पीड़ा पहुंचाते हैं.

हिन्दी के बारे में एक बात बहुत महत्वपूर्ण है कि वह जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी भी जाती है या दूसरे शब्दों में कहें तो जैसा हम लिखते हैं वैसा ही हम उच्चारित भी करते हैं. लेकिन स्थिति यह है कि बच्चों को (कुछ हद तक बड़ों को भी) प्रायः स्वरों, व्यंजनों के संकेतों और ध्वनियों का सही-सही ज्ञान ही नहीं होता. उनके लिए ‘मात्र’ और ‘मातृ’ शब्दों में और उनके उच्चारण में कोई अंतर नहीं है. ‘गृह’ और ‘ग्रह’ भी उनके लिए एक ही होते हैं.

दूसरी ओर इस तरह के शब्दों के अर्थ और उनकी वर्तनियों का अंतर समझाने की किसी को चिंता नहीं है. हिन्दी के सामान्य प्रयोग में इतनी अराजकता है कि जिसे जो लगता है , वह लिख देता है. विशेषतः होर्डिंगों, नामपट्टों, साइन बोर्डों, विज्ञापनों में शब्दों को भ्रष्ट करने का उपक्रम लगातार जारी है. यह अच्छी बात है कि हिन्दी का प्रयोग हो रहा है, लेकिन क्या अब इतना और नहीं किया जा सकता कि अंगरेजी की तरह प्रयोग के पूर्व हिन्दी के सही शब्द, वर्तनी और उसके अर्थ को शब्दकोश (कोष नहीं) में देख लिया जाए.

गलत शब्दों, त्रुटिपूर्ण वर्तनी के व्यापक प्रचार-प्रसार से होता यह है कि  देखा-देखी बहुतायत से उन्ही का प्रयोग होने लगता है. हो यह रहा है कि सही शब्दों का स्थान गलत शब्द लेते जा रहे हैं. प्रिंटिंग टेक्नोलोजी और कम्प्यूटर टाइप सेटिंग , ग्राफिक्स आदि का विकास हुआ है लेकिन उस पर काम करने वाले टाइपिस्टों, फ्लेक्स बैनर बनाने वालों और पेंटरों का शब्द और भाषा ज्ञान सीमित ही होता है. केवल काम करवा लेने की हडबडी में विषय-वस्तु की भाषा के साथ खिलवाड़ को अनदेखा करना खतरनाक होगा.

सहज उपलब्ध उदाहरण है- मिठाई और दवाई की दुकानों पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा होता है-‘मिठाईयाँ’, ‘दवाईयां’, जबकि मिठाई और दवाई शब्दों का बहुवचन करने पर ‘ई’ की बड़ी मात्रा छोटी ‘इ’ की मात्रा में बदलती है और सही शब्द बनाते हैं-‘मिठाइयां’ और ‘दवाइयां’.
‘दुग्ध’ को सुधार कर लोग ‘दुध’ कर लेते हैं.जबकि दुग्ध का बदला हुआ सही शब्द ‘दूध’ है जोकि सही ध्वनि के अनुसार है. दूध-डेयरियों पर शायद ही कभी यह सही लिखा जाता होगा, यहाँ तक कि कई दुग्ध संघों के नाम पट्टों पर आसानी से ‘दुध संघ’ पढ़ा जा सकता है.

अपने आस-पास नजर दौडायेंगे तो सैकड़ों ऐसे शब्द दिखाई दे जायेंगे, जिन्हें पढ़ते हुए हिन्दी की थोड़ी–सी समझ रखने वाले किसी भी हिन्दी-प्रेमी को अवश्य दुःख होगा.

ब्रजेश कानूनगो

503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018    

Wednesday, September 7, 2016

‘खाटों’ की लूट ऐतिहासिक उपलब्धि है


‘खाटों’ की लूट ऐतिहासिक उपलब्धि है
ब्रजेश कानूनगो 

बड़ा हंगामा मचा हुआ है कि एक जनसभा के बाद उपस्थित श्रोताओं ने वहां बिछाई गईं ‘खाटो’ को लूट लिया. यह शरम की नहीं बल्कि एक अर्थ में गर्व करने की बात होना चाहिए. मेरे ख़याल से यह दुनिया में पहली और अकेली बात होगी जब हमारे लोगों ने इतनी बड़ी संख्या में खुले आम लूट की महानतम घटना को अंजाम दिया. यह मामूली घटना नहीं है. संख्या के लिहाज से भी और साहस के हिसाब से भी. किसी भी लूट में हजारों की संख्या में लुटेरों ने कभी इतना जोरदार धावा नहीं बोला है. और यह भी एक रिकॉर्ड ही है कि उपस्थित सामान्य लोग अकस्मात् अपराधी बन बैठे और हजारों की संख्या में वहां बिछी हुईं खाटें उठा ले गए. यह हमारी एक बड़ी उपलब्धि है. गिनीज बुक सहित दुनिया की सभी रिकॉर्ड पुस्तकों में इसे दर्ज किया जाना चाहिए.

यह समझा जाना चाहिए कि हिन्दुस्तानी समाज में खटिया की बहुत महवपूर्ण भूमिका रही है. शादी ब्याह में माता पिता द्वारा बच्चों को उपहार में खटिया देने की परम्परा रही है, ‘पलंग बैठनी’ जैसी मांगलिक रस्म होती है जिसमें नव-दंपत्ति साथ-साथ जीने-मरने का संकल्प लेते हैं. घर के बुजुर्गों के अवसान के बाद गाय, छतरी, बिछौने के साथ एक खटिया भी दान की जाती है. ऐसा कहा जाता है कि इससे बड़ा पुण्य मिलता है और मृतात्मा को सीधे स्वर्ग नसीब होता है. 
आज भी जब हम ग्रामीण क्षेत्र में जाते हैं तो सबसे पहले मेजमान आपके लिए खटिया बिछाता है, बैठाता है, फिर जलपान की व्यवस्था करता है. यदि ऐसा नहीं किया जाता तो वह बहुत अपमान जनक माना जाता है , सामने वाला कहता है ’फलां ने तो हमारे लिए खटिया तक नहीं बिछाई!’ राजनीतिक पार्टी ने अपनी रैली में जरूर यही सोंचकर जनता-जनार्दन के लिए खटिया बिछाई होंगी कि वह चुनाओं में उनके निशान वाला बटन दबाकर अपना ‘खटिया धर्म’ निभाएगी. मगर अफसोस , मतदाता खटिया ही ले उड़े.

खाटें ही निशाना क्यों बनीं ? अंततः खाटों में ऐसा क्या था जो वे उन पर टूट पड़े. खाटों के लिए एक दूसरों को घायल तक कर दिया. खाटों को लूटकर वे किसकी ‘खटिया खडी’ करना चाहते थे ? अगर खटिया खडी भी करना चाहते हैं तो वह सीधी खडी करना चाहते हैं या उल्टी खडी करना चाहते हैं. किसी के सिधार जाने के बाद जब खटिया का पैरों के तरफ वाला हिस्सा दीवार पर सटाकर ऊपर की ओर रखकर खडा किया जाता है उसे खटिया को उल्टी खडा करना कहा जाता है. उम्मीद करते हैं लुटरे मतदाता खाटों को घर ले जाकर जरूर सीधा खडा करेंगे, यही सबके हित में होगा. किसी भी राजनीतिक पार्टी के गुजर जाने की आकांक्षा करना प्रजातंत्र की मौत की तरह होगा.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -452018