Sunday, June 8, 2014

हमारा फुटबॉल दर्द

हमारा फुटबॉल दर्द
ब्रजेश कानूनगो

ग्रंथों मे उल्लेख मिलता है कि भगवान श्रीकृष्ण अपने बचपन में गेन्द खेला करते थे। वह कुछ और नही फुटबॉल ही था। गोविन्द अपने मित्रों के साथ फुटबॉल खेलते थे और यही खेलते हुए एक जबर्दस्त किक खाकर जब गेन्द जमुनाजी में जा गिरी थी तब वह चर्चित पौराणिक प्रसंग उपस्थित हुआ था, जिसमें शेषनाग के सिर पर उस जमाने का होनहार फुटबॉल खिलाडी गोविन्दा ने सवार होकर इतिहास रच दिया था।
हॉकी का विश्व गुरु होने के वर्षों पूर्व भारत दुनिया का फुटबाल गुरु भी हुआ करता था। कालांतर में जिस तरह भारतीय हॉकी का हश्र हुआ उसी तरह फुटबाल में यह परम्परा उससे भी काफी पहले हम निभा चुके थे। प्रतियोगिता में जीत के लिए हमारी ‘पहले आप’ की विनम्र नीति के चलते हम फुटबॉल के मैदान में इतना पिछड गए कि हमारा फुट्बॉल समय की जमुना में सदा के लिए समा गया।
बहरहाल हुआ यह कि फुटबॉल भारत का होकर भी बाहर का हो गया, बेगाना हो गया। ब्राजील,इटली, अर्जेंटीना और स्पेन जैसे देश फुटबॉल खेलते हैं और भारत उन्हे खेलते हुए देखता है। फुटबॉल के जनक होकर भी आज हम फुटबॉल खेलते नही सिर्फ देखते हैं। हमारी नियति ही हो गई है कि हम दूसरों को जीतते हुए देखें। स्पर्धाएँ होती रहतीं हैं और जमुना के देश के लोग फुटबॉल की तरह आँखें फैलाए नजारा देखते रह जाते हैं।

बेशक मैं भी उन्ही में से एक हूँ। जब-जब मैं फुटबॉल देखता हूँ,उसमें डूब जाता हूँ। जब आदमी डूब जाता है तो वह सपने देखने लगता है। मुझे महसूस होने लगता है कि मेरा स्वरूप गोलाकार हो गया है और मैं एक फुटबॉल में तब्दील हो गया हूँ। पूरी व्यवस्था जैसे फ़ुटबॉल का मैदान बन गई है। कोई किक मारकर कहीं भेज देता है तो कोई किसी ओर दिशा मे लतिया देता है जहाँ पहले से ही कोई किक प्रहार के लिए तैयार खडी होती है। मछली पानी से प्यार करती है क्योंकि वह पानी में जीती है, मैं फुटबॉल से प्यार करता हूँ क्योंकि यही मेरा जीवन है।

फुटबॉल और मुझमे काफी समानता है। मुझे यकीन है अपना काम निकलवाने के लिए इधर से उधर धक्के खाते हुए जो अनुभूति मुझे होती है, वही शायद फुटबॉल को भी मैदान के एक छोर से दूसरे छोर के बीच लुडकते हुए होती होगी। मेरा और फुटबॉल का दुख-दर्द, सुख–चैन एक सा है। वह बोल नही सकता, इसलिए उसकी कोई नही सुनता, मैं बोल सकता हूँ फिर भी मेरी व्यथा अनसुनी रह जाती है। वह कुछ नही कर सकता, मैं भी कुछ नही कर सकता। हमारी नियति ही है कि ठोकरें खाते रहें।
बहरहाल, फुटबॉल तो चलता रहेगा लेकिन खेल के आनन्द की यह अनुभूति शायद हमारे भीतर कष्टों से जूझने की असीम शक्ति पैदा करने में सफल हो सके।
ब्रजेश कानूनगो

503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-18 

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