Monday, June 23, 2014

शकर का शोर

व्यंग्य
शकर का शोर
ब्रजेश कानूनगो

जैसे कोई अफसर बोतल खुलते ही खुलने लगता है, जैसे कोई मिनिस्टर कडकनाथ के बाद अपनी कडकता भूलकर ढीला पडने लगता है, जैसे कोई प्रेयसी बादल घिरते ही प्रियतम की याद में बेचैन होने लगती है वैसे ही साधुरामजी में मिठाई देखकर मिठास घुलने लगती है। मीठा उनकी कमजोरी है। लेकिन अब वह जमाना नही रहा कि मेहमान के आगमन पर मोतीचूर के लड्डू या गुलाब जामुन की महक अपने ड्राइंग रूम में फैलाई जा सके। साधुरामजी के पधारने पर अब उनके सत्कार में सिवाय चाय की चोट खाने के अब कोई चारा भी तो नही रह गया है। उनके आते ही मैने बिटिया को आज का अमृत लाने का आदेश दिया और उनसे मुखातिब हुआ- ‘कहिए कैसी चल रही है आपकी नई सरकार? सुना है इनके और उनके फैसलों में कोई अंतर नही दिखाई दे रहा।’

‘हाँ, यह तो है! न उनके पास कोई चमत्कारी छडी थी और न ही ये भी किसी पीसी सरकार के वंशज हैं कि जादू चला के महंगाई के दानव को कबूतर में बदल सकें।’ साधुरामजी ने पीडा व्यक्त की।
तभी चाय बनकर आ गई। चुस्की लेते ही प्रश्न भरी नजरों से मुझे घूरने लगे। प्याली के साथ उनकी यह मुद्रा खबरिया चैनलों के किसी ‘तीखी या सीधी बात’ जैसे कार्यक्रम के शातिर एंकर की तरह दिखाई दे रही थी। मैने भी चाय का स्वाद लिया तो पाया कि जैसे चाय में शकर थी ही नही। मैने पत्नी को पुकारा तो उन्होने बेटी को भेज दिया।
‘बेटे ,चाय में शकर  नही डाली क्या?’ मैने पूछा।
‘डाली तो है पापा, मगर रोज से कम। मम्मी कहती है अब ऐसी ही कम शकर वाली चाय पीना पडेगी।’ कह कर वह भीतर चली गई।
‘ओ-हाँ ,याद आया, साधुरामजी वह क्या है कि अब शकर हमारी औकात से दूर होती जा रही है,हमने सोंचा खुद ही इसके खर्च पर लगाम लगा लें। सरकार का रुख कुछ ठीक नही दिखाई देता।’ मैने संकोचभरी हकलाहट के साथ कहा।

साधुरामजी अपने मुख को थोडा विकृत ज्यामितीय रूप देते हुए बोले- ‘लगता है राजनीति में फिर कुछ न कुछ घटेगा, मँहगाई की मार वैसी ही बनी हुई है जैसी नई सरकार के आने के पहले थी.. और अब यह शकर के दामों का किस्सा.. शकर के कारण लोगों के दिलों में बडती कडुवाहट का मूल्य कहीं सरकार को न चुकाना पड जाएँ, देश की राजनीति पर इसका गहरा असर पड सकता है।’ साधुरामजी के भीतर के नेता को चिंता सताने लगी।
‘लेकिन हमें राजनीति से क्या? हमे तो शकर मिलनी चाहिए सस्ते दामों पर।’ मैने कहा तो उनका सत्ता समर्थित राजतीतिज्ञ जाग गया- ‘क्या शकर का इस्तेमाल इतना जरूरी है तुम्हारे लिए?’ ऐसा लगा जैसे मधुमक्खी गुलाब पर अपनी मिठास की आवश्यकता के लिए प्रश्नचिन्ह  लगा रही हो।
‘हाँ,मिठास भी आवश्यक है मनुष्य के लिए, और अगर आप सोचते हैं कि खाने में हम मिठास को त्याग दें तो चलिए आप हमें अपनी व्यवस्था से, तंत्र से ‘मीठा-व्यवहार’ दिलवाइए। हम शकर का उपयोग छोड देंगे। जब हर तरफ कडुवाहट फैली हुई है तो वहाँ शकर के चन्द दाने कौनसी मिठास घोल देंगे जीवन में। मैं तो कहता हूँ, आप घरेलू बाजार में शकर उपलब्ध ही मत कराओ बल्कि समूची शकर को निर्यात करके कुछ हेलिकाप्टर और तोपें खरीद लो, वक्त बेवक्त आपका और विपक्ष का समय संसद में कट जाया करेगा बहसों में।’ रक्तचाप ग्रसित मेरा चेहरा तमतमा उठा।

‘तुम तो ख्वामखाह नाराज हो गए, मेरा मतलब यह थोडे था। ये तो तात्कालिक स्थितियाँ हैं, कभी प्याज तो कभी तेल, कभी दूध तो कभी शकर, महंगी-सस्ती होती रहती हैं। जरा जीना सीखो। ये छोटे-छोटे अभावों से क्यों प्रभावित होते हो। तुम तो एक महान देश के समझदार और राष्ट्रवादी नागरिक हो। जरा उन अमर क्रांतिकारियों के बलिदान को याद करो, जिन्होने भारी अभावों और कष्टों के बीच देश को आजाद कराया....और आज भी तुम एक नई आजादी के दौर से गुजर रहे हो...।’ साधुरामजी का राजनीतिज्ञ शब्दों में निरंतर शकर घोल रहा था...और हम तुम्हे क्या नही दे रहे.. थोडा-सा इंतजार तो करो..इतना अधीर भी मत बनों..अच्छी चीजें आसानी से नही मिल जाती..यकीन रखो अच्छे दिनों के लिए थोडा-बहुत सेक्रिफाइज और त्याग तो हरेक को करना पडेगा.. तुम भी क्या यह तुच्छ-सा शकर का रोना लेकर बैठ गए।’ 

‘मैं आपकी मीठी-मीठी बातों में आने वाला नही हूँ, साधुरामजी। सरकार को चाहिए कि वह शकर को सस्ते दामों में हमेशा उपलब्ध कराए,बस।’ मैने सीधे-सीधे कहा तो वे क्रोधित हो गए-‘तुम भी अजीब आदमी हो,एक मामूली सी चीज के लिए अड रहे हो, माँगना ही है तो महंगाई भत्ते की किश्त माँगो, जो दिया जा सके वह माँगो।’ इतना कहकर साधुरामजी आँखे लाल किए पैर पटकते लौट गए। मैं सोचने लगा- वास्तव में एक तरफ शकर का उपयोग बन्द करके मधुमेह और मोटापे के डर से निर्भय होकर दूसरी तरफ महंगाई भत्ते की अतिरिक्त किश्त झटक लेने में क्या समझदारी नही होगी?

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-452018




        

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