‘इस गणराज्य में’
जीवन के स्वीकार की कविताएँ
ओम वर्मा
हाल ही
में व्यंग्यकार व स्तंभकार ब्रजेश
कानूनगो का कविता संग्रह 'इस गणराज्य में' दखल प्रकाशन दिल्ली से आया है। कविता से गद्य की और
जानेवाले अनेक रचनाकार देखे जा सकते हैं। लेकिन जब व्यंग्य लिखते-लिखते कोई
कविताएँ लिखने लगता है तो यह एक निश्चित ही ध्यान देनेवाली घटना कही जा सकती है।
एक व्यंग्य सग्रह 'पुनः
पधारें' के बाद
कविता संग्रह 'इस
गणराज्य में' की कविताएँ
पढ़कर समकालीन कविता के मूल प्रवाह में रहकर लिखने वाले कवि की रचनाओं के माध्यम से
इस समय के मूल प्रश्नों से मुठभेड़ की जा सकती है। जो प्रासंगिक भी है। इन
कविताओं का वस्तुतत्व वही है जो हमारे आस-पास ,बहुत निकट घट रहा है। ये कविताएँ एक और
जहाँ कवि की दृष्टि और विचारधारा को स्पष्ट करती हैं,वहीं उनकी अनुभूतियों,चिंताओं के साथ कवि के कोमल मन और
संबंधों की ऊष्मा से भी हमें रूबरू करातीं हैं। इन कविताओं में यथार्थ के धरातल पर
घटित घटनाओं पर कवि की विशिष्ठ और कहीं कहीं व्यंग्यात्मक दृष्टि हमारे समय
से साक्षात्कार कराती हैं। इन कविताओं को पढ़कर महसूस होता है कि कवि का
रचनात्मक फलक बहुत व्यापक है। उसका एक छोर हमारे नगरीय मध्यवर्ग में है तो दूसरा
छोर उस जातीय/ग्रामीण/जनपदीय जीवन में है ,जहां जीवन की सुन्दरता के अनेक
स्रोत आज भी प्रवाहित हैं। कवि मनुष्य के सौंदर्य की नहीं बल्कि मनुष्यता के
सौंदर्य की तलाश करता है। शायद इसीलिए उनकी कजरी सौंदर्य प्रतियोगिता में शामिल
नहीं है। 'छुप जाओ
कजरी/सावधान कजरी/ तुम्हे सुंदरी घोषित करने का षडयंत्र प्रारम्भ हो गया है/छुप
जाओ कहीं ऐसी जगह/जहां सौदागरों की दृष्टि न पहुंचे।'
कवि की
दृष्टि अपने बहुत निकट घट रही छोटी-छोटी गतिविधियों पर भी सदैव बनी रहती है
यहां तक कि मनुष्यों
के मन पर भी ,जिसमें
पिता, पत्नी, पड़ोसी और पालतू प्राणी ;जिप्सी' के साथ-साथ व्रत करती स्त्री का मन भी शामिल होता है जो संबंधों के धरती-आकाश को एक करता है। मनुष्य का मन बहुत विचित्र
है। वह अज्ञानता और अंध विश्वावासों के कुटिल मार्गों से भी सम्बन्ध
भावना की सरल मंजिलों तक पहुँचाने की कोशिश करता है। खुशियों का इन्द्रधनुष, टेलीफोन की घंटी ,नक़्शे में कैलिफोर्निया खोजता पिता,बंटी की मम्मी आदि कविताएँ इसी सम्बन्ध
भाव के विस्तृत आयाम हैं। 'पड़ोसी के घर में बज रही है घंटी/ शायद बेटे का फोन होगा/ पड़ोसी के घर पर
पड़ा है आज ताला /और बंद घर
में गूँज रही है बेटे की आवाज'। एक सशक्त रचना है।
'इस
गणराज्य में' की
कविताएँ जीवन के स्वीकार की कविताएँ है। कवि ने निषेध और नकार से हटकर जीवन के
चित्रों को उकेरकर दुनिया के कागज़ पर जीवन की तस्वीर बनाने की कोशिश की है। 'बच्चे का चित्र' में देखिए- 'निकल पड़े हैं कुछ लोग कुदाली फावड़ा
लिए/ निकाल लाएंगे अब शायद सूरज को बाहर/ पहाड़ियों को खोदते हुए/ चढ़ जाएंगे खजूर
के पेड़ के ऊपर/और बिखेर देंगे धरती पर मिठास के दाने/ नन्हा बच्चा बना रहा है
चित्र/ जैसे बनती है जीवन की तस्वीर/दुनिया के कागज़ पर।
रेल गाड़ी
के वातानुकूलित डिब्बे में बैठे लोग,मनी प्लांट की छाया,इस गणराज्य में आजादी,ग्लोबल प्रोडक्ट गांधी मार्ग, और सुबह जैसी कविताएँ कवि की विचारधारा
को स्पष्ट करती हैं। धूल और धुएं के परदे में सुनाई पड़ती है झाड़ूओं की आवाज जैसी पंक्तियों में कवि 'सुबह' को अलग दृष्टि से देखता है,जहां महापुरुषों की प्रतिमाओं के नीचे
जमी धूल भी
बुहारनेवालों को परखता है और उनके गुनगुनाने के साथ चिड़ियों की चहचहाट सुनता है।
अस्पताल
की खिड़की से कवि का मन जहां मंदिर,दीपस्तंभ,घंटे और नगाड़ों की परम्परागत दुनिया
में पहुंचता है तो वहीं रोड रोलर के इंजीन के शोर के बीच बबूल की छाया में बंधी
झोली में सोये बच्चे की नींद में भी उतरता है। कवितायेँ कवि के सामाजिक
सरोकारों और कलात्मक दृष्टि से परिचित कराती हैं। कुल मिलाकर यह संग्रह
कविताओं में ब्रजेश कानूनगो से सकारात्मक उम्मीद जगाता है।
(पुस्तक- इस गणराज्य में, कवि-ब्रजेश
कानूनगो, मूल्य- रु.100/, प्रकाशक-
दखल प्रकाशन,104, नवनीति सोसायटी,प्लॉट
न.51,आई.पी.एक्सटेंशन,पटपडगंज, दिल्ली-110092)
प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteshaakuntalam.blogspot.in
धन्यवाद शकुंतला जी !
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