Sunday, December 30, 2012

शुभारंभ

कविता

शुभारंभ
ब्रजेश कानूनगो

अंजानी पीडा के इंतजार में
निहार रहीं थी लगातार
आभूषणों को उजला बनाते सुनार को
दस और बारह बरस के बीच की
दो लड़कियाँ

चिमनी की लौ को
जेवरों की दिशा में फैँकने में व्यस्त सुनार
नहीं देख पा रहा था उनके  चेहरों के रंग
गहनो से अधिक थे जिन पर
कुतुहल और डर के रंग
आ जा रही थी जहाँ
खुशी की मद्धिम चमक बार-बार

अपनी उम्र का जरा सा अधिक
आत्मविश्वास लिए बड़ी लड़की
रख देती थी अपना हाथ
छोटी के माथे पर
थोड़ी-थोड़ी देर में

इशारा होते ही
दोनो हाथों से गालों को थामकर
छोटी लड़की ने
बंद कर ली अपनी आँखें झटपट
चाँदी के बारीक तार से
छेद दिया सुनार ने सहजता से
उसकी नर्म नाक को

झिलमिलानें लगे पारदर्शी मोती आँखों में भी

खिलखिलाती रहीं दोनो लड़कियाँ
जैसे तालियाँ बजाती रहीं हों बहुत देर तक
किसी शुभारंभ पर।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क ,कनाडिया रोड ,इंदौर-18

Friday, September 21, 2012

तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे


व्यंग्य
तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे
ब्रजेश कानूनगो

समझदार लोग कहते आए हैं कि याद रखना उतना जरूरी नही जितना कि भूल जाना। यदि आप चाहते हैं कि सफर की तमाम मुश्किलों और पथ की दुर्गमता के बावजूद जिन्दगी की गाडी सहज चलती रहे तो जरूरी होगा कि पीछे रह गई बातों को भुलाते जाएँ। हालांकि सभी चाहते हैं कि वे स्वस्थ रहें। तन और मन पर किसी भी पुरानी या गुजरी हुई बात का बोझ विपरीत प्रभाव न डाले इसलिए नई घटनाओं की रोशनी से विटामीन और ऊर्जा प्राप्त करने की भरपूर कोशिश हम करते रहते हैं। सरकार भी यही चाहती रही है। यही कारण है कि एक घोटाले के बाद दूसरा घोटाला कर दिया जाता है ताकि पिछले वाले को जनता भुला सके। कब तक आदर्श, कब तक 2जी, कब तक कोयला, छोडिए भी अब पुराना। नए में मन रमाइए अपना।

भूलने-बिसराने का एक ऐतिहासिक उदाहरण हमारे यहाँ स्मृति कोश में बहुत स्मरणीय स्थान रखता है। प्रणय प्रसंग के बाद सम्राट दुष्यंत अपनी प्रेयसी शकुंतला को बिसरा देते हैं। लेकिन वह मुद्रिका ही थी जिसे देखते ही सम्राट को वन कन्या के साथ बिताए वे मधुर पल दोबारा याद आ जाते हैं।

याद दिलाने के लिए ऐसी मुद्रिकाओ के दर्शन अक्सर हमें करवाए जाते रहे हैं। बोफोर्स भी एक ऐसी ही मुद्रिका है जो जनता द्वारा भुला दिए गए अतीत के प्रसंगों की याद ताजा करती रहती है। कभी विपक्ष इस मुद्रिका को सामने दिखाकर सरकार की स्मृति को दुरुस्त करता है तो कभी खुद गृहमंत्री  मजाक-मजाक में मुद्रिका से खेल बैठते हैं।

बेचारी जनता तो याद रखना ही नही चाहती इन प्रसंगों को लेकिन नेता हैं कि भूलने ही नही देते। बार-बार याद दिला देते हैं कि भाई इस देश में इमर्जेंसी भी लगी थी और मज्जिद भी ध्वस्त की गई थी। गोधरा में जिन्दा जला दिए गए थे इंसान और भोपाल के जहर ने कइयों की जानें और रोशनी छीन ली थी। हम तो चाहते हैं कि जिस तरह बोफोर्स को भूल गए वैसे ही 2जी और कोयला भी भूल जाएँ। कॉमन वेल्थ गेम्स के खेलों और घोटाले के रेकार्ड्स को विस्मृत कर दें। विद्वानों ने तो कई बार दुहराया है कि ‘बीती ताही बिसार दे, आगे की सुधि लेय।’  लेकिन दिल है कि मानता नही। रह रह कर याद की मरोड उठने लगती है। जिन्हे हम भूलना चाहें वे अक्सर याद दिलाए जाते हैं।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-18

Saturday, August 11, 2012

श्वेतपत्र का सच


व्यंग्य
श्वेतपत्र का सच
ब्रजेश कानूनगो
सिंगापुर के प्रधानमंत्री सचमुच कलापारखी हैं जिन्हे हमारी सरकार के कालेधन पर जारी श्वेतपत्र में कुछ दिखाई दिया। उन्होने इस पर आपत्ति जताते हुए कहा है कि इस श्वेतपत्र में सिंगापुर का उल्लेख चोरों की पनाहगार की तरह हुआ है। 

दरअसल जो लोग थोडा बहुत रंगों या फोटोग्राफी की समझ रखते होंगे वे ‘कांट्रास्ट’ की अवधारणा को भी समझते होंगे । अब देखिए यदि रात को आसमान की कालिमा और सितारों के बीच कांट्रास्ट नही होता तो क्या हम उस अद्भुत वातावरण और खूबसूरत चान्दनी का आनन्द उठा सकते थे।

कालेधन पर श्वेतपत्र जारी करके सरकार जब कांट्रास्ट का प्रभाव पैदा करती है तब वह कला में उसकी समझ को भी प्रमाणित करता है। चूंकि धन जो है वह काला है, इसलिए उसे उजागर या स्पष्ट करने के लिए सफेद से बेहतर कोई पृष्ठ्भूमि हो ही नही सकती ,इसलिए श्वेतपत्र लाया जाता है ।  रेड पेपर या ब्लेक पेपर भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है ,लेकिन इसमें बडा झमेला खडा हो सकता है । पहले तो ब्लेक पेपर में उतना कांट्रास्ट नही बनता। ब्लेक में ब्लेक मनी का सही सही चित्र उभर नही पाता। जनता को लगता है कि सरकार की नीयत ठीक नही है और वह कालेधन के प्रश्न पर ईमानदार नही है। वैसे भी आधी रात के हंगामें के अनुभव के बाद सरकार कोई काम अन्धेरे में नही करना चाहती है। रेडपेपर प्रस्तुत करने का तो प्रश्न ही पैदा नही होता। बहुत वर्षों तक सुनते रहे थे-‘ये लाल रंग कब मुझे छोडेगा..’ । वर्तमान सरकार का मानना है कि लाल रंग से जितना दूर रहें उतना अच्छा। हंसिया हो या हथौडा, ग्लोबलाइजेशन के दौर में लाल रंग के ऊपर ये निशान सरकार को बडे खतरनाक नजर आते रहे हैं। सो, कालेधन पर श्वेतपत्र लाना ही सरकार की मजबूरी होती है और एकमात्र विकल्प भी।

सरकार विरोधी विशेषज्ञ कहते हैं कि कालेधन पर जो श्वेतपत्र जारी किया गया उसमें  कमियाँ हैं। कांट्रास्ट मे दोष के कारण विषयवस्तु की छबि उभर ही नही पा रही। कुछ का मानना है कि यह एक कोरा कागज है। न तो इसमें कालेधन के स्वामियों के नाम उजागर हुए हैं और नही इन्हे भारत मे वापिस लाने के कोई उपाय सुझाए गए हैं। लोकपाल और लोकायुक्त से कालेधन पर शिकंजा कसने की बात तो कही गई है लेकिन लोकपाल विधेयक के फुटबाल को बडी चतुराई से मैदान के बाहर किक करने के प्रयास हो रहे हैं । सबसे जोरदार प्रतिक्रिया तो यह आई कि यह श्वेतपत्र ‘बिकनी’ की तरह है जो महत्वपूर्ण हिस्सों को छुपाकर कम महत्व की चीजों को उजागर करता है। अब यहाँ बिकनी के बारे में स्पष्ट करना तो शायद पाठकों की समझ के प्रति अन्याय ही होगा। जिस देश में हमारे प्रतिनिधि सदन में स्त्री सौन्दर्य का गहन अध्ययन करते हों वहाँ स्त्रियों की मामूली पौषाख के बारे में बताना उचित नही होगा। मैं तनिक विपक्ष के वरिष्ठ नेता के इस बयान से असहमत हूँ। श्वेतपत्र यदि ‘बिकनी’ की तरह है और महत्वपूर्ण हिस्सों को छुपाकर कम महत्व के हिस्सों को प्रदर्शित करता है तो वह बिकनी की तरह कैसे हुआ? बिकनी में हमारे शरीर के हाथ,पाँव,सिर आदि पूरी तरह दिखाई देते हैं। इसी हाथ में ‘पंजा’ भी होता है।

अब यह बडे संतोष की खबर है कि अंतत: सरकार की कलाकारी और श्वेतपत्र के कांट्रास्ट को सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सिएन लूंग ने ठीक से समझा और अपनी प्रतिक्रिया से मनमोहनसिंहजी को अवगत कराया ।



ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क कनाडिया रोड, इन्दौर-18 

Friday, August 10, 2012

नेताओं के घटिया बयान देने की प्रवृत्ति का सच


नेताओं के  घटिया बयान देने की प्रवृत्ति का सच  
ब्रजेश कानूनगो

बड़े नेताओं के बयानों के गिरते स्तर पर टिप्पणी करने से पहले एक कठिनाई यह भी है कि आखिर बड़े नेता हम किन्हें मानें? केव बड़े पदों पर या बड़ी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाले हमारे प्रतिनिधि क्या सचमुच बड़े कहलाने योग्य रह गए हैं? वर्तमान समय में मुझे तो ऐसा कोई  नेता दिखाई नही दे रहा जिसे हम अपना सच्चा राजनीतिक लीडर कह सकें

नेताओं के घटिया बयान आज सुर्खियों में दिखाई देतें हैं ,यह सब अचानक नही हो गया है। नेता जो बोलते हैं उसके पीछे पतन की एक लंबी डगर रही है। पिछले पाँच दशकों में हमारे समाज में धीरे-धीरे ऐसे परिर्वतन हुए हैं कि सामूहिक आचार-विचार और सहिष्णुता पर स्वार्थ की कालिख नें समझ की रोशनी को धुंधला बना दिया है। सफलता के शार्टकटों की अन्धी  दौड़ ने हमारी सारी रचनात्मक और सामाजिक परंपरा को ही ध्वस्त कर डाला है।

हमारे बुजुर्ग  और गुरुजन एक पूरी पीढ़ी को विचारवान, कर्मवीर तथा सहिष्णु बनाने में सक्षम होते थे, किंतु अब संस्कारों की यह नदी भी सूख सी गई है।मूल्यहीनता हमारे नए संस्कार हो गए हैं। संघर्ष,सच्चाई और ईमानदारी के लंबे रास्ते का चुनाव मूर्खता सिद्ध किया जाने लगा है। कोई पथप्रदर्शक ,चिंतक या कोई आंदोलन गलत के विरोध में खड़ा होता है तो उसको नष्ट करने की सुनियोजित षड़यंत्र शुरू हो जानें में देर नही लगती। आज जो नेता बयानबाजी करते हैं तब उनके  शब्द किसी विचारधारा,नैतिक मूल्यों या सार्वजनिक कल्याण के वैचारिक विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य नही होते बल्कि राजनीतिक स्वार्थ्य और मीडिया में सुर्खियाँ बटोरने की चाहत का नतीजा भी होते हैं। उनका टारगेट वर्ग भी हमारी वही आम जनता होती है जिसकी समझ का विकास भी इसी समाज में इन्ही स्थितियों के बीच हुआ है।

सच तो यह है कि नेताओं के बयानों पर नहीं ,सच्चे नेता गढ़ने की सही प्रक्रिया  और नेतृत्व विकास की संस्थाओं के शुद्धिकरण एवं सार्थकता पर चिंतन होना चाहिए।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क ,कनाडिया रोड,इंदौर-18

Thursday, August 9, 2012

पहला पदक गणराज को


पहला पदक गणराज को
ब्रजेश कानूनगो

पुराणों मे संकेत मिलते हैं कि गणेशजी ओलिम्पिक खेलों के पहले पदक विजेता थे।  दरअसल गणेशजी एक बहुत अच्छे एथेलिट भी थे लेकिन उनका बुद्धिमान होना उनकी ख्याति का प्रमुख कारण बन गया।  यह भारतीय खेलों के लिए ठीक नही कहा जा सकता जब एक खिलाडी की बौद्धिकता उसके व्यक्तित्व पर इस कदर हावी हो गई कि उसके खिलाडी पक्ष का मूल्यांकन ही नही हो पाया। जो थोडा बहुत इस सन्दर्भ में सामने आया है,उससे पता चलता है कि गणराज बडे अच्छे वेट लिफ्टर और बुद्धिमान धावक भी रहे हैं। नि:सन्देह यह प्रश्न खडा हो सकता है कि जब गणेश वेटलिफ्टर थे, तो धावक कैसे हो गए? भारी भरकम शरीर के साथ उनके धावक होने की बात आसानी से गले नही उतरती। परंतु सच्चाई यही है कि वेटलिफ्टर होने के बावजूद पदक उन्हे दौडने के लिए ही मिला था।

शंकरजी के दोनो बेटे खेल-कूद मे बहुत रुचि रखते थे। इधर गणेश वेटलिफ्टिंग का अभ्यास करते उधर कार्तिकेय दौडने की प्रैक्टिस किया करते थे। बच्चों की रुचि को बढावा देने के लिए महादेव ने खेल महोत्सव का आयोजन किया। यह गणेशजी और वेटलिफ्टिंग का दुर्भाग्य था कि गणेशजी के भारवर्ग में कोई अन्य प्रतियोगी ही नही आया, अत: वेट लिफ्टिंग प्रतियोगिता ही रद्द करना पड गई। गणेशजी के पास कोई विकल्प नही था, मजबूरी में उन्हे दौड प्रतियोगिता मे उतरना पडा। कहा जाता है उन दिनों मैराथन के लिए पूरी पृथ्वी की दौडकर परिक्रमा लगानी पडती थी। गणेश अपना सामर्थ्य जानते थे। भारी भरकम शरीर के साथ दौडने की बजाय उन्होने अपनी बुद्धि का उपयोग करना उचित समझा। भगवान शिव और देवी पार्वती प्रतियोगिता के निर्णायक थे। शंकरजी ने डमरू बजाया और धावक दौड पडे। बुद्धिमान गणेशजी ने निर्णायकों की ही परिक्रमा शुरू कर दी। उन दिनों खेलों में कोई नियम वगैरह तो होते नही थे। यह कहीं नही बताया गया था कि पृथ्वी से क्या तात्पर्य है। गणेशजी का तर्क था कि माता-पिता का चक्कर लगाना, पृथ्वी के चक्कर लगाने जितना ही महत्वपूर्ण और प्रभावी है। बुद्धि कौशल में गणेशजी के आगे कौन टिक सकता था। उनका तर्क काल विशेष में अकाट्य था। निर्णायकों को गणेशजी के पक्ष मे निर्णय देना पडा। इस तरह ओलिम्पिक का पहला पदक गणेशजी के नाम हो गया।

पौराणिक ओलिम्पिक में हमारे खिलाडियों ने बडा नाम कमाया है। तीरन्दाजी में अर्जुन और एकलव्य,  भारोत्तोलन और डिस्क थ्रो में श्रीकृष्ण, ऊंची और लम्बी कूद में श्रीहनुमान ,कुश्ती में भीम और दुर्योधन इत्यादि अपने समय के धुरन्धर खिलाडी रह चुके हैं। अर्जुन का तीर मछली की आँख भेद देता था। हनुमान की कूद समुद्र लांघ जाया करती थी। श्रीकृष्ण एक उंगली पर पर्वत उठा लेते थे। उम्मीद तो यही है कि आधुनिक ओलिम्पिक खेलों में भी हमारे खिलाडी इस गौरवशाली परम्परा को जरूर कायम रखेंगे।  

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-18 

Tuesday, July 31, 2012

विद्युत विहीनता का स्वागत करें


व्यंग्य
विद्युत विहीनता का स्वागत करें
ब्रजेश कानूनगो

मेरा मानना है कि अगर बाँसुरी की धुन कष्टकारी हो तो बाँस की फसल पर  कुल्हाडी चला दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ।
अब समय आ गया है जब बिजली के बंधनो से हमें मुक्त हो जाना चाहिए। इस मुक्ति में ही हमारा कल्याण निहित है। सच तो यह है कि  बगैर बिजली के हम ज्यादा प्राकृतिक हो सकेंगे और अनेक समस्याओं से सहज ही छुटकारा प्राप्त कर लेंगे । सच तो यह है कि अब हमें विद्युत विहीनता की दिशा में कदम बढाने चाहिए।

बिजली नही होने से पानी की टंकी नही भरी जा सकेगी । नल श्रीहीन हो जाएँगे । सूने पनघट फिर आबाद होंगे । घट्टी पीसकर और पनघट यात्रा से महिलाएँ अपने शरीर को स्लिम और आकर्षक बनाने में सफल होंगी । हेल्थ क्लबों और ब्यूटी पार्लरों पर ताले लग जाएँगे । खेतों में मोटरों की घर्र-घर्र की बजाए रेहट का कर्णप्रिय संगीत गूँज उठेगा । किसान का बेटा मस्त होकर गा उठेगा - ' सुनके रेहट की आवाजें यूँ लगे कहीं शहनाई बजे '
विद्युत विहीनता पर्यावरण के हित में होगी । मशीनीकरण  समाप्त होगा । ध्वनि  एवं वायु प्रदूषण से हमें मुक्ति मिल जाएगी । हस्तकला को प्रोत्साहन मिलेगा । बेरोजगारी की राष्ट्रीय समस्या में कमी आएगी । महात्मा गाँधी,जयप्रकाश नारायण और लोहियाजी के सपने साकार होंगे । जुलाहे,बुनकर,चर्मकार,काष्टकार तथा सदियों से पिछडी जातियों और वास्तविक बुनियादी उद्यमियों को रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे । वे ऊपर उठ सकेंगे। अंत्योदय होगा ।

इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि अधिकांश महापुरुष चिमनी अथवा लालटेन की  रोशनी में पढकर ही विद्वता की पराकाष्ठा तक पहुँचे थे । निश्चित ही चिमनी, मोमबत्ती या लालटेन के प्रकाश में वह गुण है जो किसी सामान्य व्यक्ति को प्रतिभावान बनाता है ।

जिस तरह स्वस्थ शरीर के लिए हमें प्रकृति के साथ चलना चाहिए इसी तरह प्राकृतिक स्थितियाँ हमारे मन को निर्मल,पवित्र बनाकर ईश्वर के करीब पहुंचाती हैं। बिजली के बल्बों की कृत्रिम  रोशनी के मोह को त्याग कर हृदय मे आस्था की ज्योत जलाना चाहिए। भीतर के  दिव्यप्रकाश के आगे सरकार की यह दो टकिया दी रोशनी कहाँ लगती है। सुख,समृद्धि और शांति का अनमोल खजाना पाने के लिए विद्युतविहीनता का पुरातन,सनातन और स्वयम्‌ सिद्ध मार्ग ही हमें सत्य के समीप पहुंचा सकता है।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-18 

Sunday, July 22, 2012

नाग-नागिन और सिनेमा


नाग-नागिन और सिनेमा
ब्रजेश कानूनगो

नाग देवता पर लोगों के विश्वास और आस्था का लाभ लेकर देश के फिल्म निर्माता भी अपनी रोटियाँ बहुतायत से सेकते रहे हैं। अभी जब हम स्मृतियों के सागर में जबरन उतरने को बाध्य किए जा रहे हैं तब वह समय भी याद कीजिए जब राजेश खन्ना का रोमांटिकवाद खत्म हुआ था और अमिताभ के गुस्सा युग की शुरुआत होने लगी थी तभी एका-एक फिल्म संसार की निर्माण भेडें बारास्ता स्टंट और फैंटेसी की कंटीली झाडियों को चरती हुई दर्शकों की समझ को भी चबा गईं। एक के बाद एक  ऐसी फिल्में रुपहले परदे पर छाने लगीं जो नाग देवता, इच्छाधारी साँपों, सपेरों के आतंक, अमरीशपुरियाना ओझाओं की खतरनाक झाड-फूंक के इर्द-गिर्द नाग नागिनों के प्यार-इकरार की बीन बजाते हुए अपने कथानक का पिटारा खोलने लगीं।  ये फिल्में आज भी बडी लोकप्रिय बनी हुईं हैं। फिल्म देखते वक्त और उसके बाद भी यह डर बना ही रहता है कि सामने आने वाला व्यक्ति कोई इच्छाधारी नाग या नागिन तो नही है। नाग नागिनों और सपेरों व तंत्र मंत्र का देश होने के हमारे गौरव को बनाए रखने का महत्वपूर्ण कार्य नागवादी फिल्मों ने बडी सफलता के साथ किया है।

अब समय आ गया है जब इन फिल्मों की सफलता और दर्शकों की भारी रुचि को देखते हुए निर्माता नाग-नागिनों पर आधारित कथानकों पर सार्थक सिनेमा भी बनाने की शुरुआत कर दें। रैंगनेवाला यह जीव शायद उतना नागपना नही रखता जितना साँपत्व हमारे समाज में व्याप्त है। कैसे एक सामान्य भोला-भाला संपोला भारी निराशा ,बेरोजगारी, अन्याय से जूझता हुआ अंत में खतरनाक नाग में बदलकर फुंफकारने लगता है। कैसे एक सुकोमल नन्ही प्यारी नागकन्या अपने को नागसमाज की नजरों से  सुरक्षित बनाए रखने के लिए संघर्ष करने को अभिशप्त है। नागतंत्र के सिंहासन तक पहुँचने के लिए  महात्वाकांक्षी और घुटे हुओं नेताओं के षडयंत्र और कुटिलताओं की कहानियाँ ऐसी फिल्मों के कथानक मे सहजता से पिरोई जा सकती हैं। विवेकशील और जागरुक निर्देशक फिल्म के युवा नाग नायक को जातिवाद, भ्रष्टाचार, पर्यावरण संरक्षण ,कालेधन आदि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर आवाज उठाते दिखाकर दर्शकों का दिल जीत सकता है। नायक की हर फुँफकार पर दर्शकों की तालियों का शोर सिनेमा हॉल को गुंजा देगा।
सिनेमा में नाग-नागिन के प्यार मोहब्बत, बीन और सपेरों  के साथ-साथ यदि अपने भाव प्रवण और सशक्त अभिनय से कोई नायक इच्छाधारी नाग के रूप में समाज में व्याप्त विसंगतियों पर चोंट करता है तो इसमें क्या बुराई हो सकती है। माध्यम की सार्थकता इसी में है कि लोकरंजन और लोककल्याण का मुख्य उद्देश्य कायम रहे। नागकथाओं के सतही मनोरंजन से ऊपर उठकर यदि भारतीय फिल्मों  में कोई ‘सार्थक नाग सिनेमा’ आन्दोलित होता है तो निश्चित ही विश्व सिनेमा मे उसकी चर्चा होगी। समारोहों में भारतीय पेनोरमा की धूम रहेगी और पुरस्कार हमारी झोली में होंगे।
हम तो बस सलाह ही दे सकते हैं अंतत: मर्जी तो इच्छाधारी निर्माताओं की ही चलेगी।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-18 

Monday, July 9, 2012

मजे के साथ








मजे के साथ
ब्रजेश कानूनगो

बहुत इच्छा रहती है
जब चाहे छुटि्‌टयाँ मनाने की
मजे के साथ

कांपते हैं जब सूरज के हाथ पाँव
कुहरे को भेदता हुआ
ठंडी हवा के साथ आता है मजा

धूप के साथ गिरता है मजा पीठ पर सर्दियों में

निकलता हूँ मजे के साथ
शुरू होता है जब बूंदों का संगीत
पहुँच जाता हूँ वहाँ
खत्म हो जाते हैं जहाँ कांकरीट के पहाड़
गुलांट खाने के लिए बिछी होती है
हरी मखमली जाजम

फैंकता हूँ जब साधकर पत्थर
कत्तल के साथ उछलता है मजा सतह पर
कूद पड़ती है किनारे की बत्तखें घबराकर
एक के बाद एक पानी में

तैरने लगता है मजा तालाब में
कमल पंखों को गुदगुदाते हुए


बैठ जाता है उड़कर
बिजूके के माथे पर यकायक
हरी हो जाती हैं मजे की आँखें
पकी हुई बालियों की गंध
समा जाती है उसकी देह में


बरसती आग के बीच
आम की छाया में पड़ी खटिया पर
मेरे साथ सुनता है
बड़े मामा से कारनामें


उड़ जाता है न जाने कहाँ
गुलाबी अनंत में चिड़ियों के साथ
छुप जाता है किसी बछड़े की तरह
घर लौटते रेवड़ में

उड़ती हुई धूल के बीच
दिखाई देती है मजे की झलक

बहुत इच्छा रहती है
मजे के साथ छुट्‌टी बिताने की
की-बोर्ड और कम्प्यूटर पर ताला लगाकर
बहुत इच्छा रहती है मजा करने की।

ब्रजेश कानूनगो                                                                                                                                                                         503 ,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18  


Saturday, June 30, 2012

सोयाबीन की फसल


कविता
सोयाबीन की फसल
ब्रजेश कानूनगो

धरती के आँगन में
उम्मीद के कण बिखेरने के बाद
बादलों की तरह आती जाती है चिन्ताएँ

बंगाल की खाडी से उठा चक्रवात
छत्तीसगढ को ही भिगोकर लौट जाए कहीं
उडीसा में बना कम दबाव
हवा हो जाये मालवा तक आते आते

अरब सागर की मेहरबानी से
फट पडे आसमान
बरस जाए प्रलय का पानी
सपनो की नई बस्ती पर
तो क्या होगा सोयाबीन की फसल का

नष्ट करदे आतंकी इल्लियाँ सोयाबीन के परिवार को

सूरज की चमक और आकाश के अंधेरो के साथ
बदलते है हरिया किसान के चेहरे के रंग

बडा ही जीवट वाला है
मौसम के हर मिजाज मे
पिता की तरह पालता है अपनी फसल को

सोयाबीन नही
खुशियों की फसल उगाता है
धरती का  बेटा 

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-18