नाग-नागिन और सिनेमा
ब्रजेश कानूनगो
नाग देवता पर लोगों के विश्वास और आस्था का लाभ
लेकर देश के फिल्म निर्माता भी अपनी रोटियाँ बहुतायत से सेकते रहे हैं। अभी जब हम
स्मृतियों के सागर में जबरन उतरने को बाध्य किए जा रहे हैं तब वह समय भी याद कीजिए
जब राजेश खन्ना का रोमांटिकवाद खत्म हुआ था और अमिताभ के गुस्सा युग की शुरुआत
होने लगी थी तभी एका-एक फिल्म संसार की निर्माण भेडें बारास्ता स्टंट और फैंटेसी
की कंटीली झाडियों को चरती हुई दर्शकों की समझ को भी चबा गईं। एक के बाद एक ऐसी फिल्में रुपहले परदे पर छाने लगीं जो नाग
देवता, इच्छाधारी साँपों, सपेरों के आतंक, अमरीशपुरियाना ओझाओं की खतरनाक झाड-फूंक
के इर्द-गिर्द नाग नागिनों के प्यार-इकरार की बीन बजाते हुए अपने कथानक का पिटारा
खोलने लगीं। ये फिल्में आज भी बडी
लोकप्रिय बनी हुईं हैं। फिल्म देखते वक्त और उसके बाद भी यह डर बना ही रहता है कि
सामने आने वाला व्यक्ति कोई इच्छाधारी नाग या नागिन तो नही है। नाग नागिनों और
सपेरों व तंत्र मंत्र का देश होने के हमारे गौरव को बनाए रखने का महत्वपूर्ण कार्य
नागवादी फिल्मों ने बडी सफलता के साथ किया है।
अब समय आ गया है जब इन फिल्मों की सफलता और
दर्शकों की भारी रुचि को देखते हुए निर्माता नाग-नागिनों पर आधारित कथानकों पर
सार्थक सिनेमा भी बनाने की शुरुआत कर दें। रैंगनेवाला यह जीव शायद उतना नागपना नही
रखता जितना साँपत्व हमारे समाज में व्याप्त है। कैसे एक सामान्य भोला-भाला संपोला
भारी निराशा ,बेरोजगारी, अन्याय से जूझता हुआ अंत में खतरनाक नाग में बदलकर
फुंफकारने लगता है। कैसे एक सुकोमल नन्ही प्यारी नागकन्या अपने को नागसमाज की
नजरों से सुरक्षित बनाए रखने के लिए
संघर्ष करने को अभिशप्त है। नागतंत्र के सिंहासन तक पहुँचने के लिए महात्वाकांक्षी और घुटे हुओं नेताओं के षडयंत्र
और कुटिलताओं की कहानियाँ ऐसी फिल्मों के कथानक मे सहजता से पिरोई जा सकती हैं। विवेकशील
और जागरुक निर्देशक फिल्म के युवा नाग नायक को जातिवाद, भ्रष्टाचार, पर्यावरण
संरक्षण ,कालेधन आदि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर आवाज उठाते दिखाकर दर्शकों का दिल
जीत सकता है। नायक की हर फुँफकार पर दर्शकों की तालियों का शोर सिनेमा हॉल को
गुंजा देगा।
सिनेमा में नाग-नागिन के प्यार मोहब्बत, बीन और
सपेरों के साथ-साथ यदि अपने भाव प्रवण और
सशक्त अभिनय से कोई नायक इच्छाधारी नाग के रूप में समाज में व्याप्त विसंगतियों पर
चोंट करता है तो इसमें क्या बुराई हो सकती है। माध्यम की सार्थकता इसी में है कि
लोकरंजन और लोककल्याण का मुख्य उद्देश्य कायम रहे। नागकथाओं के सतही मनोरंजन से
ऊपर उठकर यदि भारतीय फिल्मों में कोई
‘सार्थक नाग सिनेमा’ आन्दोलित होता है तो निश्चित ही विश्व सिनेमा मे उसकी चर्चा
होगी। समारोहों में भारतीय पेनोरमा की धूम रहेगी और पुरस्कार हमारी झोली में
होंगे।
हम तो बस सलाह ही दे सकते हैं अंतत: मर्जी तो
इच्छाधारी निर्माताओं की ही चलेगी।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,
इन्दौर-18
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