Tuesday, November 8, 2011

गुझिया का बनना


रम्य रचना
गुझिया का बनना
ब्रजेश कानूनगो

दीपावली आई तो समझ लीजिए घर मे गुझिया का बनना तय है। जैसे सर्दी पडती है तो स्वेटर बनना शुरू हो जाते हैं वैसे ही त्यौहार आता है तो गुझिया बनना निश्चित है। सर्दी है तो जर्सी है, बरसात है तो भजिया है ऐसे ही दिवाली है तो गुझिया है। गुझिया बनी है तो समझ लो त्यौहार है या त्यौहार की तैयारी है। गुझिया बनी है तो आस पडोस को भी पता चलना चाहिए कि गुझिया बनी है, सो पडोसिने बाकायदा गुझिया के पैकेट पहुँचाकर सन्देश भिजवाने लगतीं हैं कि गुझिया बन चुकी है। पैकेट एक घर से दूसरे, फिर घरों घर पहुँचाए जाने लगते हैं। गुझिया चर्चा का मुख्य विषय बन जाती है। ‘शर्मा जी के यहाँ तो इस बार बहुत अच्छी गुझिया बनी है भाई।’ ‘वर्माजी के यहाँ कुछ ज्यादा ही तला गईं, कडक हो गई उनकी तरह।’  ‘माथुर साहब के यहाँ की गुझिया में तो बहुत मेवे डाले गए हैं , क्यों न डालें बेटा जो अमेरिका मे डॉक्टर है।’ ‘जैन साहब की ऊपरी कमाई इस बार उनके यहाँ की गुझिया मे भी ठूस ठूस कर भरी गई है।’  गुझिया की उत्कृष्टता परिवार के स्टेटस,स्तर का पैमाना बन जाता है। इसीलिए गृहस्वामिनियाँ दाल बघारने मे एक बार लापरवाही बरत सकतीं हैं लेकिन गुझिया पूरे मन और अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए बनातीं हैं। 

गुझिया का बनना , त्यौहार का आधा मन जाना होता है। दीपावली आई तो मुझे वह सब सामग्री बाजार से लाकर देने का आदेश हुआ जिससे गुझिया बनती है। सामग्री लाकर देने के बाद गुझिया बनने का इंतजार करने लगा बल्कि यों कहिए कि गुझिया के बनाए जाने मे पूरी तरह सहयोग करने लगा। प्राय: देखा गया है कि गुझिया की कटिंग का भार पति पर ही पडता है, अगर पति गृह कार्य मे दक्ष हुआ तो ‘मुझे तो घी तेल से एलर्जी है या आप तो बहुत बढिया तल लेते हैं’ आदि शब्दों के वाक्यों मे प्रयोग से पत्नियाँ बडी चतुराई से पतियों को फुसला लेतीं हैं और उन्हे आसानी से गुझिया तलने के कार्य मे जोत देती हैं। सो मैने भी गुझिया काटी और गुलाबी होने तक तली, यह कार्य मेरे लिए कोई नया तो था नही।

गुझिया बहुत अच्छी बनी थी। श्रीमतीजी ने इस बात पर खुश होकर नई जुराबें खरीद कर देने का वायदा किया। यह अलग बात है कि जब जुराबें खरीदने बाजार गईं तो बार बार के चक्कर से बचने के लिए दो साडियाँ भी लेतीं आईं। खैर गुझिया बनी और पूरी कॉलोनी मे पहुँचाई गई। फिर शुरू हुआ गुझिया परोसने का सिलसिला। जो भी मिलने आता उसे गुझिया अवश्य खिलाई जाती। खानेवाला तारीफ करता तो श्रीमतीजी खिल जातीं। अपने घर की गुझिया खत्म हो गी तो पडोसी के यहाँ की आयातित गुझिया परोसी जाने लगी। मेहमान तो तारीफ करते ही,श्रीमतीजी भी यह कदापि नही बतातीं कि गुझिया पडोसी के यहाँ की हैं।
उल्टे गर्व से कहतीं ‘ अब की बार तो बहुत रुचि से बनाई है हमने, तली भी बहुत बढिया है इन्होने।’ मै भी अपनी प्रशंसा सुनकर गुब्बारे की तरह फूल जाता।
जो फूलता है, वह फूटता है। दूसरों की मेहनत पर हम फूल रहे थे, इसलिए हमारी हवा निकल जाना निश्चित था। मल्होत्राजी गुझिया खाते जा रहे थे और तारीफ किए जारहे थे ‘बहुत खूब, क्या बढिया गुझिया बनाई है भाभी आपने, बिल्कुल पप्पू की मम्मी की तरह।’ अचानक वे उदास हो गए बोले ‘अबकी बार त्यौहार का मजा ही किरकिरा हो गया।’ ‘क्यों भला?’ मैने पूछा।
‘पप्पू की मम्मी की अँगूठी गुम हो गई, खाने पीने का मजा ही चला गया।’ मल्होत्राजी ने गुझिया का आखिरी हिस्सा मुँह मे रखते हुए कहा।               
तभी मल्होत्राजी ने दूसरी गुझिया तोडी तो उसकी भरावन स्टफिंग से एक अँगूठी बाहर निकल आई। अँगूठी निकली तो हमारी हवा भी निकल गई। मल्होत्राजी के यहाँ की गुझिया हम अपनी बताकर उन्ही को खिला रहे थे।
बहरहाल, जो होना था,  वह तो होचुका था,लेकिन भविष्य के लिए सबक भी मिल गया कि आयातित गुझिया न तो किसी को खिलानी चाहिए और न ही किसी के यहाँ भिजवानी चाहिए। गुझिया अपने घर की ही सबसे अच्छी होती है।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-18

3 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  2. ब्रजेश जी एक अर्से से आपके कवि-स्वरूप ने आपके व्यंग्यकार को पीछे छोड़ रखा था....प्रसन्नता हुई कि आपने उस व्यंग्यकार को पुन: प्रस्तुत किया...बहुत दिनों के बाद किया लेकिन अद्भुत तरीक़े से किया....एक उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई...

    ReplyDelete
  3. padha , अच्छा लगा , अब तो भविष्य में किसी के यहाँ जाना हुआ और उसने गुझिया खाने को दी तो उससे कहेंगे भाई हम तो घर जाकर खायेंगे

    ReplyDelete