Friday, November 25, 2011

लूट


लघुकथा
लूट
ब्रजेश कानूनगो 

'पुराने अंखबार की रद्दी क्या भाव लोगे भैया ?'  सडक से गुजरते पुराना सामान खरीदने वाले की आवाज सुनकर मैडम ने पुकारा ।

'चार रुपये किलो ले लेंगें मैडम ।' अटालेवाले ने कहा ।

'यह तो बडी लूट है भैया । बडे शॉपिंग मॉल वाले तो पच्चीस रुपये किलो में खरीद रहें हैं ,और बदले में डिस्काउँट कूपन भी दे रहें हैं ।'

'बहनजी, वहां आपको चार गुना अधिक कीमत का सामान भी तो खरीदना पडता है । हमें तो बच्चे भी पालना हैं, झूठ नहीं बोलेंगें, एक किलो की रद्दी पर केवल पचास पैसे बचते हैं । अटालेवाले नें स्पष्ट किया ।

'तो जाने दो भैया, रद्दी नहीं है अभी ।'

शाम को मैडम पच्चीस किलो पुराने अखबार कार में भरकर एक लीटर पेट्रोल फूंककर बडे शॉपिंग मॉल में बेच आर्ईं। बदले में चार हजार रुपयों का बहुत सारा सामान खरीद लार्ईं जिसकी अभी फिलहाल कोई आवश्यकता ही नहीं थी ।

मैडम को इस बात से कोई लेना देना नहीं था कि अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिये अटाले वाले को उस दिन कितनी अधिक कॉलोनियों  में कितनी अधिक फेरियाँ लगानी पडी थीं ।

दूसरे दिन किटी पार्टी में अन्य मैडमों को बडे गर्व से उन्होनें बताया कि किस तरह कल उन्होंने बडा किफायती सौदा किया और रद्दी के भाव बाजार लूट लिया ।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-18

Tuesday, November 22, 2011

सभ्यता


लघुकथा
सभ्यता

पारुल किसी परी सी लग रही थी अपने सातवें जन्म दिन की पार्टी में ।  बहुत मन से ढूंढ कर खरीद कर लाई थी मम्मी सफेद बर्थ-डे ड्रेस उसके  लिए । बुटिक वाली आंटी ने बताया था ठीक ऐसी ही ड्रेस प्रियंका चौपड़ा ने फिल्म ‘फैशन' में पहनी थी।

पारुल के ताऊजी प्रोफेसर सूर्यप्रकाश जैसे ही आए, पारुल के मम्मी-पापा ने उनके चरण स्पर्श किए।  'ताऊजी को प्रणाम करो बेटा !' पारुल की मम्मी ने जब उससे कहा तो उसके  चेहरे के भाव बदल से गए। शायद यह एक अनपेक्षित आदेश था उसके लिए ।
बेमन से उसने चेहरे और पीठ दोनों मे बल लाते हुए ताऊजी के चरणों को छुआ। सूर्यप्रकाशजी ने आत्मीय भाव से उसकी पीठ थपथपाई- 'खुश रहो,जीते रहो बेटे!'
'बेड मैनर्स ताऊजी़ ।' पीठ सीधी कर खडे होते ही पारुल गुस्सा करते हुए बोल पड़ी।
क्यों क्या हुआ बेटा ?'  सूर्यप्रकाशजी अचकचा गए।
'लड़कियों की पीठ पर हाथ नहीं रखना चाहिए !'  कहते हुए पारुल अपने दोस्तों के झुंड की ओर दौड़ गई।
सूर्यप्रकाशजी हतप्रभ रह गए । उन्हे लगा जैसे उन्होने अपनी भतीजी को आशीर्वाद न देकर किसी युवती के साथ कोई अभद्रता कर दी हो।

जन्म दिन का कैक खाते हुए उनका मुंह कसैला हो रहा था।

ब्रजेश कानूनगो  
503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18 मोबाइल़ न-09893944294 

Tuesday, November 8, 2011

गुझिया का बनना


रम्य रचना
गुझिया का बनना
ब्रजेश कानूनगो

दीपावली आई तो समझ लीजिए घर मे गुझिया का बनना तय है। जैसे सर्दी पडती है तो स्वेटर बनना शुरू हो जाते हैं वैसे ही त्यौहार आता है तो गुझिया बनना निश्चित है। सर्दी है तो जर्सी है, बरसात है तो भजिया है ऐसे ही दिवाली है तो गुझिया है। गुझिया बनी है तो समझ लो त्यौहार है या त्यौहार की तैयारी है। गुझिया बनी है तो आस पडोस को भी पता चलना चाहिए कि गुझिया बनी है, सो पडोसिने बाकायदा गुझिया के पैकेट पहुँचाकर सन्देश भिजवाने लगतीं हैं कि गुझिया बन चुकी है। पैकेट एक घर से दूसरे, फिर घरों घर पहुँचाए जाने लगते हैं। गुझिया चर्चा का मुख्य विषय बन जाती है। ‘शर्मा जी के यहाँ तो इस बार बहुत अच्छी गुझिया बनी है भाई।’ ‘वर्माजी के यहाँ कुछ ज्यादा ही तला गईं, कडक हो गई उनकी तरह।’  ‘माथुर साहब के यहाँ की गुझिया में तो बहुत मेवे डाले गए हैं , क्यों न डालें बेटा जो अमेरिका मे डॉक्टर है।’ ‘जैन साहब की ऊपरी कमाई इस बार उनके यहाँ की गुझिया मे भी ठूस ठूस कर भरी गई है।’  गुझिया की उत्कृष्टता परिवार के स्टेटस,स्तर का पैमाना बन जाता है। इसीलिए गृहस्वामिनियाँ दाल बघारने मे एक बार लापरवाही बरत सकतीं हैं लेकिन गुझिया पूरे मन और अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए बनातीं हैं। 

गुझिया का बनना , त्यौहार का आधा मन जाना होता है। दीपावली आई तो मुझे वह सब सामग्री बाजार से लाकर देने का आदेश हुआ जिससे गुझिया बनती है। सामग्री लाकर देने के बाद गुझिया बनने का इंतजार करने लगा बल्कि यों कहिए कि गुझिया के बनाए जाने मे पूरी तरह सहयोग करने लगा। प्राय: देखा गया है कि गुझिया की कटिंग का भार पति पर ही पडता है, अगर पति गृह कार्य मे दक्ष हुआ तो ‘मुझे तो घी तेल से एलर्जी है या आप तो बहुत बढिया तल लेते हैं’ आदि शब्दों के वाक्यों मे प्रयोग से पत्नियाँ बडी चतुराई से पतियों को फुसला लेतीं हैं और उन्हे आसानी से गुझिया तलने के कार्य मे जोत देती हैं। सो मैने भी गुझिया काटी और गुलाबी होने तक तली, यह कार्य मेरे लिए कोई नया तो था नही।

गुझिया बहुत अच्छी बनी थी। श्रीमतीजी ने इस बात पर खुश होकर नई जुराबें खरीद कर देने का वायदा किया। यह अलग बात है कि जब जुराबें खरीदने बाजार गईं तो बार बार के चक्कर से बचने के लिए दो साडियाँ भी लेतीं आईं। खैर गुझिया बनी और पूरी कॉलोनी मे पहुँचाई गई। फिर शुरू हुआ गुझिया परोसने का सिलसिला। जो भी मिलने आता उसे गुझिया अवश्य खिलाई जाती। खानेवाला तारीफ करता तो श्रीमतीजी खिल जातीं। अपने घर की गुझिया खत्म हो गी तो पडोसी के यहाँ की आयातित गुझिया परोसी जाने लगी। मेहमान तो तारीफ करते ही,श्रीमतीजी भी यह कदापि नही बतातीं कि गुझिया पडोसी के यहाँ की हैं।
उल्टे गर्व से कहतीं ‘ अब की बार तो बहुत रुचि से बनाई है हमने, तली भी बहुत बढिया है इन्होने।’ मै भी अपनी प्रशंसा सुनकर गुब्बारे की तरह फूल जाता।
जो फूलता है, वह फूटता है। दूसरों की मेहनत पर हम फूल रहे थे, इसलिए हमारी हवा निकल जाना निश्चित था। मल्होत्राजी गुझिया खाते जा रहे थे और तारीफ किए जारहे थे ‘बहुत खूब, क्या बढिया गुझिया बनाई है भाभी आपने, बिल्कुल पप्पू की मम्मी की तरह।’ अचानक वे उदास हो गए बोले ‘अबकी बार त्यौहार का मजा ही किरकिरा हो गया।’ ‘क्यों भला?’ मैने पूछा।
‘पप्पू की मम्मी की अँगूठी गुम हो गई, खाने पीने का मजा ही चला गया।’ मल्होत्राजी ने गुझिया का आखिरी हिस्सा मुँह मे रखते हुए कहा।               
तभी मल्होत्राजी ने दूसरी गुझिया तोडी तो उसकी भरावन स्टफिंग से एक अँगूठी बाहर निकल आई। अँगूठी निकली तो हमारी हवा भी निकल गई। मल्होत्राजी के यहाँ की गुझिया हम अपनी बताकर उन्ही को खिला रहे थे।
बहरहाल, जो होना था,  वह तो होचुका था,लेकिन भविष्य के लिए सबक भी मिल गया कि आयातित गुझिया न तो किसी को खिलानी चाहिए और न ही किसी के यहाँ भिजवानी चाहिए। गुझिया अपने घर की ही सबसे अच्छी होती है।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-18