Sunday, October 2, 2011

यादों की रोशनी में

पुस्तक चर्चा/ समीक्षा
यादों की रोशनी में  
ब्रजेश कानूनगो

किसी पुस्तक पर बात करते समय पहला प्रश्न यह होता है कि पुस्तक को किस विधा का मान कर बात को आगे बढाया जाए। उस समय यह और अधिक परेशानी का कारण बन जाता है जब टिप्पणी करने वाला थोडा बहुत साहित्य से सम्बन्ध भी रखता हो और कुछ पुस्तको की समीक्षाएँ पढ चुका हो।
कामरेड पेरिन दाजी की पुस्तक ‘यादों की रोशनी में’ को पढने के पहले मेरे सामने भी यही प्रश्न आ खडा हुआ था। लेकिन मेरा काम उस वक्त बेहद आसान हो गया जब मैने किताब के पन्ने पलटना शुरू किए। कथ्य मे इतना डूब गया कि विधा का प्रश्न ही गौंण हो गया। यादों की रोशनी को आप कुछ भी कहलें कोई फर्क नही पढेगा। स्ंस्मरण कहलें, दाजी की आत्म कथा या जीवनी कहलें,पेरिन दाजी के स्मृति चित्र कहें, मेरा तो यहाँ तक मानना है कि ‘यादों की रोशनी’ मे यदि थोडा सा और काम हो जाए तो इसे एक उपन्यास और किसी सार्थक फिल्म की स्क्रिप्ट की तरह भी देखा जा सकता है। एक रचनाकार के नाते मुझे ‘यादों की रोशनी में’ से अनेक मार्मिक और सार्थक लघुकथाएँ आतीं हुईं दिखाई दे रहीं हैं।

देर रात तक पढ्ने के बाद, मेरी नीन्द कहीं खो गई थी। गले मे जैसे कुछ अटक सा रहा था। भावुकता इतनी बढ गई थी कि पुस्तक के सम्पादक को एसएमएस करके उनकी भी नीन्द खराब करदी। सम्पादकीय मे एक प्रसंग है- किताब की सामग्री टाइप करते हुए मेरठ से सचिन फोन करके सम्पादक विनीत तिवारी से कहता है कि’मुझसे अब टाइप करते नही बन रहा, टाइप करते करते दो बार रो चुका हूँ।’ विनीत खामोश हो जाते हैं,कुछ कहते नही। लेकिन सचिन पढ लेता है मौन की भाषा-‘रो लो,फिर काम करो!’
और आज किताब हमारे सामने है। यह पेरिन दाजी का हौसला ही था जिसने संवेदनाओं का सैलाब दाजी की रैलियों की तरह उमडा दिया है।
सच ही कहा गया है कि एक प्रसिद्ध व्यक्ति के सार्वजनिक जीवन मे उसकी ख्याति उसके जीवन के अनेक पक्षों पर परदे की तरह पडी होती है। उसके दुख ,दर्द, चिंताएँ, और उसकी खुशियाँ भी, छुपी होतीं हैं ,इन्ही कोनों को छूकर ही हम जान पाते हैं कि कामयाबी के पीछे कितने आँसू और कितना पसीना मिला होता है। ‘यादों की रोशनी में’ दाजी के जीवन के ऐसे ही कुछ कोनों पर पडे परदों को हटाती है। पुस्तक मे ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनमे बालक होमी के कामरेड होमी दाजी बनने और उनके अपने व्यक्तित्व के विकास के सूत्र बिखरे पडे हैं। पिता के संघर्ष,मिल मजदूरों का सेठों द्वारा शोषण, कम उम्र के होमी द्वारा होटल और बार मे कडी मेहनत के साथ पढाई को जारी रखना, स्कूल के दिनों में अंगरेज बच्चों और भारतीय बच्चों के बीच भेदभाव को लेकर दाजी के प्रतिरोध के उभरते स्वरों ने जैसे उनकी मुखरता और शोषण के खिलाफ संघर्षों की घोषणा सी कर दी थी। अपनी पढाई के लिए होमी महँगी किताबें नही खरीद सकते थे,लेकिन आगे जाने के लिए अध्ययन भी जरूरी था। रास्ता होमी को ही ढून्ढना था। एक बुक स्टोर के लिए घर पहुँच पुस्तक बिक्री का काम हाथ मे लिया और बदले में किसी तरह बुक स्टोर पर बैठकर  पुस्तकें पढने की अनुमति स्टोर के मालिक से ले ली। दोस्तों की किताबें रात मे उधार लेकर लेम्प पोस्ट की मद्दिम रोशनी मे भी पढाई की। कालेज की पढाई करते हुए इसी बीच राजनीति का पाठ भी पढते चले गए दाजी। भारत छोडो आन्दोलन मे भाग लिया, मजदूरों के लिए संघर्ष करते रहे। अभावों,परेशानियों से जुझते हुए होमी दाजी किस तरह जिन्दगी की पाठशाला में अनुभवों का पाठ पढ रहे थे, पेरिन दाजी की कलम ने उसे बिलकुल हमारे सामने लाकर खडा कर दिया है।

स्मृतियों और सच्ची लघुकथाओं को बयान करती हुई यह किताब इतिहास बनाने और इतिहास बदलनेवाली घटनाओं का एक मार्मिक आख्यान है। इस आख्यान को पेरिन दाजी ने अठारह आलेखों मे पिरोया है। लेखकीय वक्तव्य में पेरिन इस आख्यान को कहानी नही बल्कि जिन्दगी कहतीं हैं वह भी- ज्यादा उनकी,थोडी अपनी।
दाजी की कहानी है तो निश्चित ही यह उस दौर की कहानी है, जिस दौर मे लोग बदलाव के लिए राजनीति पर भरोसा करते थे,और राजनीति भी जनता की बेहतरी का साधन बनती थी
आज बाजार के सामने राजनीति बेबस दिखाई देती। सही और गलत राजनीति का फर्क करना मुश्किल हो गया है ऐसे में ‘यादों की रोशनी में’ दृश्यांतर करती है।

अनेक पुरानी ब्लेक एंड व्हाइट हिन्दी फिल्में आजादी मिलने के रूपक मे तिरंगे के ऊपर चढते ही एकाएक रंगीन हो जाती थीं। समय और स्थितियों के बदलाव को दिखाने के इस फिल्मी फार्मुले की भाषा मे कहें तो ‘यादों की रोशनी’ आज की रंगीनियों के दौर से हाथ पकडकर हमे अन्धेरे उजाले की उस  दो रंगी दुनिया मे ले जाती है जहाँ जीवन मे दुख दर्द , अन्याय और शोषण के अन्धेरों को सहानुभूति,प्रेम और सहयोग के उजाले से भर देने की कहानियाँ जीवन मे विश्वास और सम्बल पैदा करती हैं।

‘यादों की रोशनी में’ को पढकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि कष्टों के कम्पन और दुखों की सुनामी के बीच अपने इरादों एवम मूल्यों को कैसे बचाया जा सकता है। परेशानियों के पहाडों मे सुराख करके नई हवा का स्वागत करना कितना सहज हो जाता है। बेटे की मौत, स्वयम की बीमारी,बेटी का असमय चले जाना। हरेक विपत्ति मे दाजी परिवार ने धीरज नही खोया,बल्कि दूसरों का हौसला बढाते रहे। असफलताओं और संघर्षों से जल्दी घबरा जाने वाले  युवाओं को इस किताब को जरूर पढना चाहिए। हताशा और निराशा के अन्धेरे मे ‘यादों की रोशनी’ सचमुच रोशनी दिखाती है।
पुस्तक के अंत मे बहुत महत्वपूर्ण परिशिष्ठ भी लगाए गए हैं जिनमे सांसद होमी दाजी द्वारा 1962 मे संसद मे दिया गया वह भाषण भी है जिसकी प्रशंसा स्वयम तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने की थी। आजादी के केवल 15 बरस बाद मात्र 36 वर्षीय युवा सांसद ने जो सवाल संसद के सामने खडे किए थे उनसे कामरेड दाजी की राजनीतिक समझ,उनकी राजनीतिक दृढता और दूरदृष्टि का परिचय मिलता है। उनकी तब कही गई बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। आज के राजनीतिक कार्यकर्ताओं मे ऐसी दृष्टि देखने को कम ही मिलती है। कामरेड होमी दाजी की राजनीतिक सक्रियता पर पेरिन दाजी ने भी कुछ लेखों मे अपनी बात कही है, लेकिन दाजी का यह भाषण किताब मे एक धरोहर और हमारी समझ को बढाने वाला है।
दाजी की ऐसी ही समझ और सक्रियता अंत तक बनी रही।गम्भीर रूप से बीमार दाजी ने 30 अप्रैल2009 को जब अपना खाना पीना छोड दिया तो पेरिन जी चिंतित हो उठीं। वे डर गईं, समझ बैठी कि कहीं दाजी ने परेशान हो कर दुनिया छोडने का मन तो नही बना लिया है। बडी कठिनाई से दाजी ने टूटे शब्दों मे कहा था- मै कोई ऐसे मरने वाला नही हूँ। तुम क्या समझती हो मैने मरने के लिए खाना पीना छोड दिया है? मै एक कम्युनिस्ट हूँ। मै कभी आत्म हत्या नही करूँगा। बाद मे उन्होने पेरिन दाजी को बताया कि नगर निगम द्वारा फेरी वालों तथा सब्जी बेचने वालो पर सडक पर दुकान लगाने पर की गई  कार्यवाही से वे उद्वेलित थे। और गरीबों के समर्थन और निगम की कार्यवाही के खिलाफ उन्होने भूख हडताल कर दी थी। सक्रियता की ऐसी मिसाल दाजी के पास ही मिल सकती थी।
‘यादों की रोशनी’  नए कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण पुस्तक की तरह दाजी के आदर्शों को जीवन मे उतार लेने के लिए जरूरी पाठ पढाने का भी प्रयास करती है।

 ‘यादों की रोशनी में’ एक ऐसी रचना भी है जिसका साहित्यिक महत्व कुछ कम इसलिए नही लगाया जा सकता कि वह लेखिका की पहली कृति है । 82 वर्ष की आयु मे पेरिन दाजी ने जिस शैली और सहज भाषा मे अपनी बात कही है,उसकी सम्प्रेषणीयता इतनी अधिक है कि एक मजदूर से लेकर प्रबुद्ध पाठक के हृदय तक संवेदनाएँ आसानी से पहुँचती हैं। किसी नारे अथवा विचार की घोषणा को लेकर यह नही लिखी गई है बल्कि अपनी प्रतिबद्धता और विचारधारा के साथ चलनेवाले लोगों के जीवन और उनके सार्थक सफर को अभिव्यक्त करते हुए अन्यों को प्रेरित करती है। साहित्य का मूल काम ही बदलाव की दिशा मे लोगों को उद्वेलित करना होता है । लोक कल्याण और संघर्षों का रास्ता जिस साहित्य से हो कर गुजरता है, ‘यादों की रोशनी’ उस कसौटी पर खरी उतरती है। यहाँ यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सृजन केवल रंजन,संवेदनाओं की अभिव्यक्ति अथवा विधागत प्रयोगों के लिए ही नही होता ,लोक कल्याण और मनुष्य की बेहतरी की आकाँक्षा के साथ लिखे गए का साहित्यिक मूल्य कहीं अधिक होता है। पेरिन दाजी ने यह काम अपनी पुस्तक में बखूबी किया है।

यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि पुस्तक को चप्पल जूते सुधारनेवाले एक ऐसे साधारण आदमी को समर्पित किया गया है जिसे दाजी स्नेह से राजाबाबू कहा करते थे। उसी के आग्रह पर पेरिन दाजी ने यह किताब लिखी है लेकिन किताब पूरी होने पर जब वे यह बात राजाबाबू को बताने गईं तब वह यह संसार छोड चुका था। यह घटना भी पेरिन ने बहुत मार्मिकरूप से अभिव्यक्त की है।

सम्पादक विनीत तिवारी ने जो  वामपंथी विचारधारा से प्रतिबद्ध् युवाकवि और कार्यकर्ता भी हैं , सचमुच किताब की बहुत उम्दा ‘रंग पिच्ची’ की है। दाजी के दौर की राजनीतिक विवेकशीलता के खजाने से दुर्लभ मोतियों को खोज निकालने का उनका उपक्रम बहुत ईमानदार दिखाई देता है। कभी कभी अफसोस होता है कि आज के कुछ ऐसे युवक दाजी के समय मे ही युवा क्यों नही हो गए होते।
बहरहाल, कामरेड होमी दाजी की जीवन संगिनी कामरेड पेरिन दाजी की पुस्तक ‘यादों की रोशनी में’ के प्रसंग रोशनी के ऐसे  छोटे छोटे कतरे हैं जो हमारे आज के रास्तों पर गिरते हैं, जिनके उजाले में हम अपनी दिशा, सही राजनीति और सही समाज की मंजिल गाते गाते खोज सकते हैं।
अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल, जमाने के लिए।  
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-18
मो.न.09893944294

3 comments:

  1. bhai sa bahut achchha likha hai aapane.
    vakai yah ek mahatvpurn ghatana hai.
    peri daji se achchha kon likh sakata hai daji par.
    perin daji ne bhi unke sath kandhe se kandh milakar kam kiya.
    is kitab ko padhana apane aapme homi daji ke sangharsh se hokar gujarna hoga.
    kamred ko lal salam.

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  2. सही है कि दाजी के समय ऐसे कामरेड पैदा क्यों नहीं हुए पर अब वो दौर ही खत्म हो गया है फराज ने कहा था "अब नींद से कह दो हमसे सुलह कर ले ए फराज/ वह दौर चला गया जिसके लिए हम जगा करते थे" कामरेड दाजी का जीवन भी ऐसा ही था और पेरिन दाजी की ज़ुबानी तो अभी पढ़ नहीं पाया हूँ पर ब्रजेश भाई मानो पूरा निचोड़ रख दिया है किताब का............बहुत बहुत धन्यवाद.......

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  3. जरूर पढिएगा। अद्भुत किताब है।

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