Friday, September 9, 2011

रिंगटोन


कहानी
रिंगटोन
ब्रजेश कानूनगो


समीर पुणे मे प्रबंधन की पढ़ाई कर रहा था। तब हमारे यहाँ टेलीफोन नही था। मोबाइल फोन भी किसी किसी के पास ही होता था। ले दे कर सार्वजनिक टेलीफोन बूथ पर एसटीडी सुविधा होती थी।फिर जब घर बदला तो पड़ौसी के यहाँ जरूर टेलीफोन कनेकशन था।शर्माजी भले आदमी थे,समीर को उनका टेलीफोन नम्बर दे रखा था।अक्सर वह रविवार को शर्माजी के यहाँ फोन लगाकर हमसे बातचीत कर लिया करता था।

जब भी रविवार आता माँ सुबह से ही समीर के फोन का इंतजार करने लगती।हम उनकी इस अधीरता का मजा लिया करते। वह कहती-'हाँ इंतजार तो रहता ही है,मूल से प्यारा जो होता है ब्याज।'

शर्माजी के घर में रविवार को सुबह जब टेलीफोन की घंटी बजती थी तो पत्नी रसोई में गैस पर रखे कुकर को नीचे उतार लेती थी,माँ के कान चौकन्ने हो जाते थे।हम सब शर्माजी की आवाज का बेसब्री से इंतजार करने लगते,थोडी देर ही में वहाँ से कोई कहता-'फोन आया है पूना से,बात कर लीजिए।'
माँ सबसे पहले दौड़ पडती थी पोते के हालचाल जानने के लिये । वह रविवार मुझे अब तक याद है जब माँ की बैचेनी मुझ से देखी न गई थी। शर्माजी किसी शादी में गए हुए थे,उनके घर के दरवाजे पर ताला पड़ा हुआ था,अंदर टेलीफोन की घंटी घनघना रही थी।बंद दरवाजों के पीछे से समीर जैसे बहुत देर तक पुकारता रहा था हमें।

फिर एकाएक समय बहुत तेजी से बदल गया।देश में संचार क्रांति हो गई। मोबाइल फोन तो जैसे शरीर का हिस्सा हो गये।बैंक की नौकरी के चलते हर तीसरे साल तबादला हो जाता था।माँ भी नए शहर और नए घर में हमारे साथ ही होती थी।कोर्स पूरा होते ही समीर का भी कैम्पस सिलेवक्शन हो गया। अब वह नौकरी के कारण दिल्ली पहुँच गया था।उसके पास अपना मोबाइल था,जब चाहता हमसे बात कर लिया करता ।लेकिन बात करने में अब वह बात नहीं रही जो शर्माजी के लेंडलाइन फोन में होती थी।

हर तीन साल में बैंक से मुझे नया हेंडसेट मिलता था। पुराने हेंडसेट पत्नी बेटी को हस्तान्तरित होते गए। बाद में एक और नया हेंडसेट मिला , कुछ दिनों तक तो वैसे ही पड़ा रहा फिर नई सिम डलवाकर माँ को दे दिया।बेटी ने माँ के बहुत से परिचितों रिश्तेदारों के नंबर उनके सेट मे सेव कर दिए तथा डाइलिंग के लिए सरलीकृत  व्यवस्था कर दी।  एक नम्बर दबाने पर मामाजी का,दो पर मेरा,तीन से समीर का ,चार से बुआजी का नम्बर आसानी से डायल हो जाता था।अपना फोन मिल जाने से माँ में विशेष आत्मविश्वास दिखाई देने लगा।अपने फोन को वह बड़े जतन से सम्भाल कर रखतीँ ।अंपने हाथों से उन्होने फोन का एक कवर भी बनाया। मिलने जुलने वालों को वे बड़े गर्व से बतातीं कि अंब उनके पास भी अपना मोबाइल फोन है,वे उन्हे सीधे फोन लगा सकते हैं।शुरु शुरु मे तो माँ को बहुत फोन आए। वह भी अपने मोबाइल से भाइयों,देवरानी आदि से बातें कर लिया करतीं।हालचाल जाननें के साथ-साथ उनका समय भी कट जाता,मन बहल जाता और उसके बाद स्मृतियों के संसार मे वे घंटों खोई रहतीं।महीने दो महिनों तक ही चल सका यह सिलसिला। फिर कम हो गए माँ को फोन आना। माँ का मोबाइल ज्यादातर खामोश रहने लगा।

पिताजी की तस्वीर के पास अक्सर माँ का चश्मा और मोबाइल रखा होता था।कभी रिंगटोन बजती तो माँ फोन कान से लगाती हुई गुडहल के पेड़ के समीप आकर सुनने लगती। बहुत देर तक फोन चलता रहता। बात समाप्त होने पर मोबाइल पिताजी की तस्वीर के पास रखकर फिर अपने कामकाज में जुट जाती।

बहुत दिनों तक तो हम यही समझते रहे कि समीर माँ को फोन करता होगा,लेकिन फोन सुनने के बाद उनके  चेहरे के भावों से ऐसा नही लगता था कि पोते से बात हुई है। मैं उनसे पूछता कि किससे बात हुई है तो वे अक्स टाल जातीं,बताती नहीं कि किसका फोन था। पत्नी-बेटी ने भी पूछकर देख लिया,लेकिन सफलता नही मिली।अब हमारे लिए यह जिज्ञासा नही रही बल्कि माँ को आनेवाला फोन काल हमारे लिए चिन्ता की बात हो गई थी। बुजुर्गों को ठगने लूटने की घटनाएँ आम हो गर्ईं हैं,हमारी परेशानी स्वाभाविक थी।कहीं कोई बदमाश माँ को परेशान तो नहीं कर रहा इसलिए थोड़ा गुस्सा जताते हुए मैने जब इस बारे में जोर देकर पूछा तो माँ ने चिढ़कर कहा-'रतन टाटा का फोन आता है मेरे पास,बोल क्या कहना है।'


माँ के इस तरह चिढ़ जाने से मैं चुप हो गया और घूमने के लिए घर से बाहर निकल गया।उस दिन बात यहीं समाप्त हो गई।

माँ के मोबाइल पर कभी दो बार फोन आता फिर दिन मे एकबार ही आने लगा। हाँ,मेसेजेस तो बहुत आते थे जिन्हे बेटी डिलिट कर दिया करती थी।हर दिन आनेवाले फोन को माँ हमेशा सुनती। फोन सुनकर फिर पिताजी के चित्र के पास रख देती।भागवत कथा आदि में जब जातीं तो अपना मोबाइल ले जाना नहीं भूलतीं। हम लोगों ने भी कह रखा था कि अपना मोबाइल सदैव पास रखे ताकि जरूरत पड़ने पर हमसे संपर्क हो सके

उस दिन वे अपना मोबाइल वहीं पिताजी की तस्वीर के पास ही भूलकर पडौस में हो रहे भजन-कीर्तन में चली गर्ईं थीं। मैं बैंक से लौटा ही था।नब्वे साल पुराने हमारे बैंक का बड़े बैंक में विलय हो गया था इसलिए मन में खिन्नता और उदासी थी,अखबार सामनें फैला रखा था लेकिन दिमाग कहीं और लगा था।तभी माँ के मोबाइल की रिंगटोन गूंज उठी-'भूल न जाना तुम से कहूँ तो- - -' माँ को फोन तो दे दिया था लेकिन रिंगटोन वही पुरानी बजती थी। पत्नी ने कई बार कहा था कि इसे बदलकर कोई भजन या आरती की टोन डाल दूँ लेकिन मैं अब तक यह नहीं कर पाया था। मैंने माँ का मोबाइल फोन उठाया,कान से लगाया,देखें माँ के रतन टाटा क्या कह रहे हैं। सामने से आवाज आ रही थी-' इस गाने को रिंगटोन बनाने के लिए कृपया एक दबाएँ---गाना बज रहा था,मैंने एक गाना सुना फिर दूसरा सुना,--कुल आठ लोकप्रिय गीतों के मुखड़े रतन टाटा ने सुनाए।

माँ के मित्र ने मेरी उदासी भी कुछ देर के लिए दूर कर दी थी।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,
कनाडिया रोड,इंदौर 18

2 comments:

  1. ek vastvik -kahani-badhai!-----omprakash sharma ,vidisha

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  2. मन को अन्दर तक छू गयी... शुक्रिया !

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