हिन्दी व्यंग्य के लिए
हरिशंकर परसाई को मेरा जानना और समझना
ब्रजेश कानूनगो
जब मैंने आठवी कक्षा उत्तीर्ण करके मध्य प्रदेश के देवास के नारायण विद्या मंदिर हायर सेकंड्री स्कूल में
प्रवेश लिया तब वह अपने शिक्षण और अपनी समृद्ध लायब्रेरी के लिए भी जाना जाता था.
यह सन 1970 के आसपास का समय था. छात्र
लायब्रेरी से नियमित पुस्तकें जारी करवाते और घर ले जाकर पढ़ा करते थे. उस दौर के
अधिकाँश छात्रों की तरह नई नई पुस्तकों के लिए मैं भी लालायित रहा करता था. जो
पुस्तके उस वक्त बहुत मोहित कर गईं थी उनमें शरद जोशी जी की ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’
श्रीलाल शुक्ल की ‘राग दरबारी’ और हरिशंकर परसाई जी की ‘रानी नागफणी की कहानी’
प्रमुख थीं. यद्यपि रानी ‘नागफनी की कहानी’ को दोबारा पढ़ने का अवसर फिर नहीं आया
लेकिन जहां तक मुझे याद आता है इसी व्यंग्य कथा/उपन्यास के कुछ पात्रों ‘ज्ञानरिपु’
और ‘विद्यादमन’ के भूत नामों से मैंने कुछ पत्र और आलेख आपातकाल के दौरान अखबारों
के स्तंभों में अपने छात्र जीवन में लिखे थे. अब तो कतरने भी उपलब्ध नहीं हैं. इस
बात का उल्लेख करने का उद्देश्य महज यह है कि पढ़ने –लिखने के प्रारम्भिक दौर में
परसाई जी, शरद जी आदि को पढ़ने के कारण कई युवाओं का हिन्दी व्यंग्य लेखन की ओर
रुझान होता रहा है.
फिर कोई दस वर्ष पश्चात् मुझे अपने विवाह में अपने ससुराल की
लायब्रेरी से ‘परसाई रचनावली’ के छहों खंड भेंट स्वरूप प्राप्त हुए. पढ़कर उन्हें
फिर से अन्य परिजनों के लाभार्थ वहीं जमा करवा दिए. परसाई जी से मिलने का कभी मौक़ा
नहीं मिला मगर जो कुछ परसाई जी के बारे में पढ़ा-सुना उससे दृष्टि का बहुत हद तक
साफ़ हो जाना स्वाभाविक है.
हरिशंकर परसाई अपने विपुल लेखन से पाठक को एक सामूहिक वामपंथी चेतना
से संपृक्त करते हैं। एक फुल टाइम लेखक, एक्टिविस्ट, अपने समय के इतिहास के भाष्यकार, भारतीय राजनीति की सूक्ष्म पड़ताल करने वाले, समाज की बीमारियों को समाप्त करने की प्रतिबद्धता के साथ लगातार लिखते
रहने की जिद वाले परसाई हिंदी साहित्य में मील का पत्थर हैं। जिन्होने आजादी के
बाद हिंदुस्तान की वही तस्वीर पेश करने का काम किया जिसे आजादी के पहले प्रेमचंद
ने किया था.
इंदौर से निकलने वाले ‘नईदुनिया’ अखबार का 70-80 के दशकों में बड़ा
महत्त्व हुआ करता था. बल्कि यह अखबार पत्रकारिता, साहित्यिक पत्रकारिता के स्कूल
की तरह भी जाना जाता रहा. हिन्दी के बहुत
महत्वपूर्ण सम्पादक, सर्वश्री राहुल बारपुते, राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, वेद
प्रताप वैदिक, ,अभय छजलानी, यशवंत व्यास आदि यहीं से हिन्दी पत्रकारिता को प्राप्त
हुए हैं. इसी अखबार में परसाईजी ‘सुनो भाई
साधो’ नाम से स्तम्भ लिखते थे. यह व्यंग्य स्तम्भ सचमुच बहुत मारक और चुटीला होता
था. इसके भीतर प्रकाशित व्यंग्य लेखों में परसाई की दृष्टि बहुत प्रभावी रूप से
रेखांकित होती थी. उनके व्यंग्य में कोड़ों की मार भी होती थी लेकिन पाठकों के भीतर
करुणा का भी संचार हो जाता था. व्यंग्य में प्रगतिशील विचारों की दृष्टि और करुणा की
उपस्थिति समकालीन व्यंग्यकारों से उन्हें अलग करती थी.
परसाई जी के समय के बाद समाज और समूचे परिदृश्य में ही काफी परिवर्तन
हुआ है. पाठक की चेतना और उसकी संवेदनशीलता में भी बदलाव हुआ है. पत्र-पत्रिकाओं
से विचार पक्ष पर समाचार पक्ष की प्रमुखता या उसके हावी हो जाने का भी व्यंग्य
कॉलमों की प्रकृति पर प्रभाव पडा है. अब परसाई शैली में लिखा जाना न सिर्फ कठिन है
बल्कि आज के पाठकों के लिए उतना सहज भी शायद न रह सके. अब भी कुछ अखबारों में व्यंग्य
स्तम्भ जरूर चलन में हैं मगर उनमें से
कितनों में व्यंग्य रचनाएं स्थान पा रही हैं यह आसानी से समझा जा सकता है. परसाई
जी की रचनाओं की लम्बाई के हिसाब से अखबार उसे स्पेस देता था, लेकिन अब अखबार में
नियत शब्द संख्या और स्थान कॉलम के लिए निर्धारित होता है. उपलब्ध कपडे में कोट
बनाना विषय-वस्तु के शरीर पर कभी तंग तो कभी ढीला पड़ जाने की संभावना बनी रहती
है..
मेरा मानना है कि आज के समय में व्यंग्य कॉलम लिखना कठिन है. प्रश्न
यहाँ किसी रचनात्मक कौशल का नही है बल्कि रचनाकार के अपने मानस के द्वन्द्व और
उसकी अभिव्यक्ति की कठिनाइयों का है। रोज-रोज समसामयिक विषयों पर लिखने और लिखने
वाले तथाकथित व्यंग्यकारों के बीच प्रतियोगिता की भी है. बहुत सारी योग्य
प्रतिभाओं का समय इसी में जाया हो जाता
है. बहुत कम सार्वकालिक व्यंग्य लेख और रचनाकार सामने आ पा रहे हैं. यह स्थिति एक
तरह से विधा के लिए ठीक नहीं कही जा सकती किन्तु यह भी सही है कि इन्ही में से
हिन्दी व्यंग्य को नया परसाई या शरद जोशी मिल सकेगा.
दरअसल आज व्यंग्यकार की कठिनाई यह है कि जिन बातों और मूल्यहीनता को
रचनाकार विसंगति मानता रहा है, वही समाज की नई संस्कृति और नए मूल्य बन चुके हैं।
ऐसे में जो विरोधाभास व्यंग्य के लिए आवश्यक होता है, वह वहाँ आसानी से उपस्थित
करना बहुत कठिन हो जाता है। झूठ,फरेब,छल,दगाबाजी,दोमुहापन,रिश्वत,दलाली,भ्रष्टाचार
आदि कभी सामाजिक शर्म की बातें हुआ करती थीं लेकिन उपभोक्तावादी और अर्थ आधारित आज
के समकालीन समाज में इन्हे जरूरी और व्यावहारिक आचरण मान लिया गया है। वस्तुओं से
लेकर शरीर और आत्मा तक ऐसा कुछ नही रहा जो बेचा ना जा सके। निजी स्वार्थों और
इच्छाओं की पूर्ति के लिए जायज और नाजायज का कोई फर्क अब नही रह गया है। स्थितियाँ
तो ऐसी होती जा रही हैं कि कल के अनैतिक मानदंडों और आचरणों को विधिक स्वीकृति
प्राप्त हो गई है, सार्वजनिक स्वीकार का कोई प्रतिरोध भी दिखाई नही देता।
परसाई को लेखन में जो आत्मविश्वास और आत्मसुरक्षा मिली है वह उनकी
मानव मूल्यों में गहरी प्रतिबद्धता, शोषितों-पीड़ितों के
प्रति पक्षधरता, मार्क्सवाद की सूक्ष्म दृष्टि व तर्कशील इतिहास
बोध से प्राप्त हुई है।
प्रगतिशील आंदोलन में आम आदमी की शक्ल को गढ़ने वाला लेखक परसाई है। यह परसाई का कन्विक्शन ही है कि उन्होंने बिना कोई समझौता किए मानव विरोधी प्रवृत्तियों पर निर्मम प्रहार किये। तमाम प्रहार झेलने के बाद भी वे स्फूर्ति, शक्ति और साहस से लगातार लिखते रहे। उन्होंने गद्य में नैरेशन की नई विधा का सृजन किया। परसाई का लेखन आत्मतुष्टि एवं आत्मदंभ के विरुद्ध है।
परसाई जी ने अपने कॉलमों के जरिये लोक शिक्षण का जो कार्य किया है
उसकी मिसाल हिन्दी लेखन में कहीं देखने को नहीं मिलाती. रायपुर से प्रकाशित ‘दैनिक
देशबंधु’ में ‘पूछिए परसाई से’ कॉलम में सैकड़ों पाठकों की जिज्ञासा शांत किया करते
थे. परसाई लेखक होने के साथ जबलपुर के तांगे वालों, शिक्षकों, छात्रों, मजदूरों आम लोगों से गहरे जुड़े थे। परसाई की दृष्टि की रेंज अमेरिका
की नीति से लेकर, देश के मसले, भारतीय राजनीति, आंदोलन, सामाजिक समस्याएँ , मनोवृत्तियाँ, प्रवृत्ति, शादी ब्याह तक फैली
हुई है। वे अपने लेखन के जरिए एक राजनीतिक कार्य को अंजाम देते थे। वे उस राजनीति
के पैरोकार थे जो समाज को प्रगतिशीलता के रास्ते पर आगे ले जाती है।
ब्रजेश कानूनगो
No comments:
Post a Comment