भूकंप : दो कविताएँ
कविता-1
एक दिन
एक दिन धरती कांपती है
और ढह जाता है हमारा सारा अहँकार
संवाद मूक हो जाते हैं
अनंत की ओर यात्रा के प्रस्थान का अभिनय करते
अचेतन में विलीन हो जाते हैं अभिनेता
रंगमंच की छत के नीचे
धूल में बदल जाता है महानाट्य
स्खलित होने लगती प्रमोद की पहाड़ियाँ
दुःख में उमड़ी नदियों में बह जाती हैं खुशियाँ
और एक दिन
ज़रा-सा मद्दिम संकेत भी
धराशायी हौसलों में उम्मीद का टेका लगाता है
सरगम का सबसे कोमल स्वर फूटता है मिट्टी के भीतर
से अचानक
जैसे बीज की नाभि से कोई नया पत्ता निकला हो
सूखा नहीं था माँ का आँचल
निर्जीव देह की बाहों में सिमटा मासूम
अब भी मुस्कुरा रहा था.
कविता-2
भूकंप
के बाद
भूकंप के बाद
एक और भूकंप आता है हमारे अंदर
विश्वास की चट्टानें
बदलती है अपना स्थान
खिसकने लगती है विचारों की आंतरिक प्लेटें
मन के महासागर में उमड़ती है संवेदनाओं की सुनामी लहरें
तब होता है जन्म कविता का।
भाषा शिल्प और शैली का
नही होता कोई विवाद
मात्राओं की संख्या
और शब्दों के वजन का कोई मापदंड
नहीं बनता बाधक
विधा के अस्तित्व पर नहीं होता कोई प्रश्नचिन्ह्
चिन्ता नहीं होती सृजन के स्वीकार की।
अनपढ़ किसान हो या गरीब मछुआरा
या फिर चमकती दुनिया का दैदीप्य सितारा
रचने लगते हैं कविता।
कविता ही है जो मलबे पर खिलाती है फूल
बिछुड़ गये बच्चों के चेहरों पर लौटाती है मुस्कान
बिखर जाती है नईबस्ती की हवाओं मे
सिकते हुए अन्न की खुशबू।
अंत के बाद
अंकुरण की घोषणा करतीं
पुस्तकों में नहीं
जीवन में बसती है कविताएँ।
ब्रजेश कानूनगो
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