Monday, April 7, 2014

संस्थाओं का पर्यावरण प्रेम

लेख
संस्थाओं का पर्यावरण प्रेम
ब्रजेश कानूनगो

हमारे संस्थान के ‘डिस्कशन फोरम’ में पिछले दिनों एक सुझाव आया कि संस्थान के विभिन्न कार्यालयों और शाखाओं के परिसरों की खुली छतों पर अनाज के दाने और पानी रखा जाए,ताकि प्यासे पक्षी अपनी भूख-प्यास मिटा सकें।

फोरम के अनेक सदस्यों ने इस पर अपने विचार प्रकट किए। कुछ की चिन्ता थी कि ऐसा करने से छत से पक्षियों का मल और गन्दगी हटाने के लिए अलग से स्टॉफ की व्यवस्था करनी पडेगी। गन्दगी और दुर्गन्ध से पडोसियों को भी परेशानी होगी। एक व्यक्ति का विश्वास था कि पक्षियों को दाना-पानी देना बडा पुण्य का काम है, हो सकता है संस्थान की प्रगति में इससे परोक्ष लाभ मिले। किसी ने कहा कि श्राद्ध पक्ष में अब कौए भी प्रसाद ग्रहण करने छतों पर नही आते हैं। धरती और आकाश में पक्षी दिखाई ही नही देते तो फिर ऐसे प्रयासों का क्या औचित्य होगा। सीमेंट-कांक्रीट के बढते हुए जंगलों के बीच सचमुच अब पक्षियों की घटती संख्या चिंता का विषय है। जल,जंगल और जीव-जंतु का संतुलन पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण घटक होता है।

विकास के नाम पर महानगरों में बहुत कुछ हो रहा है और देखा-देखी छोटे शहरों और कस्बों में भी इसका अन्धानुकरण बिना सोचे-समझे किया जाने लगा है। गिरता भू-जल स्तर,ग्लोबल वार्मिंग,पशु-पक्षियों का लगातार कम होते जाना,पर्यावरण असंतुलन और मानसिक अवसाद जैसी विकृतियाँ प्रकृति के नियमों के विपरीत जा कर किए गए विकास का ही परिणाम हैं।
‘डिस्कशन फोरम’ के एक सदस्य के विचार ध्यान देने योग्य थे। उन्होने कहा कि कार्यालय परिसरों की छतों का इस्तेमाल बरसाती पानी को सहेजने के लिए किया जाना चाहिए। असामान्य और अनियमित मानसून के दौर में जब धरती के भीतर पानी का स्तर लगातार नीचे चला गया है तब रूफ वॉटर हार्वेस्टिंग के महत्व को स्वीकारना ही होगा। देश के सरकारी और संस्थागत दफतरों की इमारतों की छतों के पानी को जमीन के भीतर पहुँचाना अब अनिवार्य कर देना शायद एक सही निर्णय होगा। यह सही है कि नगर निगमों तथा ऐसी संस्थाओं द्वारा यद्यपि भवन निर्माण अनुमति देते समय पर्यावरण हितैषी ऐसी शर्तों का समावेश भी अब किया जाने लगा है। शहरों की आदर्श विकास योजनाओं में ‘ग्रीन-बेल्ट’ की व्यवस्था आवश्यक रूप से रखी जाती है, लेकिन जब उसके कार्यांवयन की बात आती है तो अनेक प्रभावशाली लोग अपने निजी,राजनीतिक अथवा आर्थिक लाभों के चलते हरियाली का हिस्सा कम करा देते हैं। अनियोजित कार्यपद्धति, विभिन्न एजेंसियों में समन्वय का अभाव तथा अतिक्रमणों के स्वार्थपूर्ण संरक्षण के कारण विकसित ग्रीन बेल्ट भी नष्ट होते देखे जा सकते हैं। दूसरी ओर तथाकथित हरियाली के नाम पर जो किया जाता है उसमें भी जल्दी बढने वाले, तुरंत दिखाई देने वाले,कम उम्र वाले पौधे लगाकर औपचारिकताएँ पूरी कर ली जाती हैं। हमारे यहाँ कहावत रही है-‘दादा पेड लगाता है और पोता फल खाता है’। आज तात्कालिक वाह-वाही प्राप्त करने की बजाए आनेवाली पीढी के हितों को ध्यान में रखकर घने,हरे-भरे,फलदार और लम्बीउम्र वाले पेड-पौधे लगाकर हरियाली का स्थायी इंतजाम किया जाना चाहिए।

एक बात और जो इन दिनों छोटे शहरों और कस्बों तक पहुंच गई है, वह है सडकों का सीमेंटीकरण। यह सीमेंटीकरण सडकों तक रहे वहाँ तक तो ठीक है,लेकिन घरों और सडकों के बीच जो दो-चार फिट मिट्टीयुक्त भूमि बचती है उस पर भी टाइल्स लगाकर या सीमेंट लगवाकर बरसाती पानी को जमीन में पहुंचने से रोका जाने लगा है। अपने पैरों पर कुल्हाडी चलाना शायद इसी को कहते हैं। गर्मियों में बोरिंग सूख जाने का एक बडा कारण यह भी है कि बरसात का पानी जमीन के अन्दर नही जा कर सीमेंटीकरण के कारण शहर से दूर बह जाता है। होना तो यह चाहिए कि खुली भूमि पर सोक पिट बनाकर ऐसी व्यवस्था की जाए कि सडक पर बहता पानी रिसकर जमीन के भीतर पहुंच सके।
नागरिकों और सरकारों के अलावा कॉर्पोरेट तथा संस्थागत स्तरों पर भी अपने व्यावसायिक कार्यों के साथ-साथ पर्यावरण,प्रकृति और समाज के लिए सोचा जाना निश्चित ही अच्छा संकेत हो सकता है।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-452018  


2 comments:

  1. सही कह रहे हैं कानूनगो जी, जंगल काट कर गमले रखने से बात नहीं बनेगी। समग्र और अग्रगामी पर्यावरणीय सोच जरूरी है।

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    1. जी सर, कोशिश हमारी यही होनी चाहिए।

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