Wednesday, September 18, 2013

मामा लाए खीर खोपरा

मामा लाए खीर खोपरा
ब्रजेश कानूनगो

पिताजी के श्राद्ध के सन्दर्भ में अपने गाँव जाना हुआ तो देखा मोहल्ले के घरों की दीवारों पर संजा माता पूरे ठाट के साथ बिराजमान थीं।

शाम के धुन्धलके के बीच बालिकाओं के कंठों से निकलते लोकधुनों पर आधारित गीतों के स्वर कानों मे मिश्री घोल रहे थे। लोककला की मालवी परम्परा ‘संजामाता’ के सम्मान मे गाए जा रहे गीतों ने मुझे अपने बचपन मे पुन: लौटा दिया।

गोबर से हर रोज विभिन्न आकृतियों को आँगन की दीवार पर बनाया जाता है और उन्हे फूलों, चमकीली पन्नियों से सजाया जाता है। सूरज , चाँद सितारों से शुरू होकर ‘किलाकोट’ और ‘जाडी जसोदा’ के निर्माण तक आते आते आँगन की दीवार कलाकृतियों से ढँक जाती है। ऐसा लगता है, प्रकृति,समाज,प्रशासन,परम्पराएँ,कलाएँ और आध्यात्म एक साथ बच्चों के तन मन से गुजरते हुए दीवार पर उतर आए हों। श्राद्ध पक्ष में भूले बिसरे पितरों को हम याद करते हैं और ‘संजामाता’ के आयोजन से भूली बिसरी  परम्पराओं एवम कलाओं की याद बालिकाएँ दिला रहीं होतीं हैं।

‘घुड घुड गाडी गुडकती जाए, जीमे बैठिया संजाबाई,घागरो घमकाता जाए,चुडैलो चमकाता जाए।’  बच्चों के मुख से गीत की पंक्तियाँ सुनकर मैने सोंचा आज के समय मे हमारे शहरों मे क्या संजाबाई का इसतरह बन-ठन कर गुडकती गाडी में बैठकर सैर किया जाना सुरक्षित रह गया है। चेन खींचकर भाग जानेवाले बदमाश क्या संजाबाई का चैन नही चुरा लेंगे। गीत के बोल कुछ इसतरह भी किए जा सकते है ‘ संजाबाई घर मे देखो ससुराल गेन्दा फूल, गहने-कपडे गाडी वाडी सब कुछ जाओ भूल। ’

एक अन्य गीत का मुखडा है- ‘चाल हो संजा सखी पाँडु लेवा चालाँ,पाँडु लेवाँ चालाँ दरि, मामा घरे चालाँ, मामा लावे खीर खोपरो,मामी लावे मैथी; मैथी से तो माथो दुखे,खीर खोपरो खावाँ।’ इस गीत मे एक सहेली दूसरी से आग्रह कर रही है कि वह उसके साथ मामा के घर चले। जहाँ से वे घर-द्वार की पुताई के लिए पाँडु(खडिया मिट्टी) लेकर आएँगी। वहाँ पर एक ओर जहाँ मामी मैथी की कडवी सब्जी खिलाएगी, वहीं मामा खीर और खोपरा(नारियल) खिलाकर प्यार बरसाएँगे,इसलिए सखी तू मेरे साथ मामा के घर जाने के लिए तैयार हो जा। लेकिन क्या अब मामा महँगाई के इस दौर मे अपनी भानजियों को खीर खोपरा प्रस्तुत करने का सामर्थ्य दिखा सकता है? मामी की मैथी भी क्या किसी भानजी के लिए संतोष की बात नही होगी। न मिले मामा की खीर, मगर मामी की कडवी मैथी भी अगर प्यार से मिल रही हो तो नाहक भानजियों को अपना माथा नही ठनकाना चाहिए।

एक गीत है- ‘संजा तू थारा घरे जा, कि थारी माँ मारेगी कि कूटेगी कि देली पे दचकेगी। चाँद गयो गुजरात, कि हिरण का बडा-बडा दाँत, कि छोरा-छोरी डरपेगा,भई,डरपेगा।’  इस गीत मे संजा सहेली से दूसरी सखी जल्दी घर लौटने को कह रही है अन्यथा उसकी हिरणी जैसी माँ,जिसके गुस्से रूपी दाँत हैं,उसे मार-मार कर हड्डी-पसली तोड डालेगी,वहाँ उसका चाँद जैसा भाई भी नही है जो व्यापार के सिलसिले में गुजरात गया हुआ है। अत: घर जल्दी लौटकर खैर मना। परंतु आज कितनी ऐसी बेटियाँ हैं जो अपनी माँ का इतना खौफ खातीं होंगी। और कितनी माँए होंगी जो बेटियों की इतनी चिंता पालतीं होंगी।

संजा के अर्थ बदले हैं, रूप बदल रहें हैं। बाजार में चमकीली पन्नियों की संजा आकृतियाँ उपलब्ध है,दीवारों पर चिपकाकर परम्पराएँ निभाई जा रहीं हैं। टीवी सीरियलों के जरिए परम्पराएँ और संस्कार हम तक पहुँच रहें हैं। बहुत सम्भव है किसी धारावाहिक में कोई बालिका(वधू) अपनी सखियों के साथ गाती हुई दिखाई दे-‘चाल हो संजा सखी, ब्यूटी पार्लर चालाँ,सर्राफा मे जाकर लाएँ,इमिटेशन की माला।’ 

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इन्दौर-18

Friday, September 13, 2013

हिन्दी और मेरा आलाप

हिन्दी और मेरा आलाप 
ब्रजेश कानूनगो

सितम्बर  है । यही वह महीना है जिसमें सहजता से यह सुविधा उपलब्ध हो जाती है कि हम भी अपना राग आलाप सकें। ऐसा नही है कि जो बात मैं कहना चाह रहा हूँ वह सितम्बर के पहले नही कही जा सकती थी । लेकिन आमतौर पर सितम्बर में मौका भी होता है और दस्तूर भी होता है। यही वह समय होता है जब हर कोई हिन्दी को लेकर चिंतित हो उठता है। इस वक्त हिन्दी की फिक्र करनेवालों के कोरस में अक्सर यह खतरा हमारे सामने  आ खडा होता है कि कहीं हमारी आवाज दब कर न रह जाए। फिर भी मैं राजभाषा के इस राष्ट्र व्यापी देश राग में अपना अक्खड सुर भी लगाना चाहता हूँ।

राजभाषा का मुकुट पहनकर भी हमारी हिन्दी की आज जो दशा है,वह किसी से छुपी नही है। अभी थोडे दिन पहले का किस्सा शायद ही कोई भूला होगा जब देश के कानून मंत्री सीबीआई  रिपोर्ट की अंग्रेजी सुधारने के चक्कर में अपना मंत्री पद गंवा बैठे थे। अब यदि यह रिपोर्ट हिन्दी में आई होती तो भला क्योंकर मंत्रीजी से सुधरवाने की नौबत आती, विभाग का हिन्दी अधिकारी ही उसकी हिन्दी ठीक कर देता। पर होनी को कौन टाल सकता है। अंग्रेजी महारानी का राज ऐसे ही समाप्त थोडे हो जाता है। वर्षों पहले बोए अंग्रेजियत के बीजों के पल्लवित-पुष्पित होकर फल देने का शानदार समय अब आ ही गया है।

यह वह समय है जब हिन्दी स्वयं अंग्रेजी परिधानों में सुसज्जित होकर प्रस्तुत होने को लालायित दिखाई देने लगी है । किसी हिन्दी अखबार या पत्रिका को उठाकर एक पेंसिल से अंग्रेजी शब्दों पर गोले लगाते जाएँ, सच्चाई आपके सामने होगी । जो शब्द चिन्हित होने से बचेंगे  उनमें से भी अधिकतर ऐसे होंगे जिन्हे आपने हिन्दी का समझकर छोड दिया था।

आजाद हिन्दुस्तान में अपनी सुविधा से हिन्दी लिखने की सबको आजादी है। जो थोडा बहुत लिखा जा रहा है, उसमें व्याकरण,वर्तनी की किसी को परवाह नही है। जो चलन में है वही सही है। स्कूली शिक्षकों तक को बतानेवाला कोई नही कि कहाँ अल्पविराम लगेगा और कहाँ अनुस्वार। कम्प्यूटर प्रचालकों ने जो सुविधानुसार टाइप कर दिया, वही प्रचारित होकर मानक बन जाता है। हिन्दी की हर कोई हिन्दी करने पर आमादा है।

सब जानते हैं कि हिन्दी रोजगार की कोई गारंटी नही देती,अन्य कोई भाषा भी नही देती लेकिन यह भी सत्य है कि  अंग्रेजी के ज्ञान के बगैर नौकरी नही मिलती। मीटिंगों-पार्टियों में हिन्दी में बातचीत नही होती। मॉल और होटलों में सैल्सपर्सन और बेयरे स्वयं को अमरीकी,ब्रिटिश या फ्रेंच जतलांने का प्रयास करते नजर आते हैं। कुछ घंटों में,कुछ दिनों में अंग्रेजी सिखानेवालों की सुसज्जित शॉप्स हमारे मुहल्लों में खुल गईं हैं। पहले मजाक में कहा जाता था कि भारतीय व्यक्ति गुस्से और नशे में अंग्रेजी बोलता है, अब उलटा हो गया है, अंग्रेजी नही बोल पाने पर गुस्सा आने लगता है।

स्थिति तो यह है कि घर के बच्चे दादीमाँ के निर्देश पर गाय को रोटी डालने जाते हैं तो आवाज लगाते हैं-‘कॉउ कम..कम..’ और गाय दौडी चली आती है। टीवी पर एक फिल्मी सितारा मुर्गी से हिन्दी में तीन अंडे माँगता है,मुर्गी दो ही अंडे देती है, सितारा मुर्गी को डाटता है,. हिन्दी नही आती क्या? आय से थ्री.. और मुर्गी आसानी से अंग्रेजी समझकर तुरंत तीन अंडे प्रस्तुत कर देती है। गाय और मुर्गी तक ने समय के अनुसार अपने को ढाल लिया है.. अब हम जैसे हेकड लोगों को भी शायद हिन्दी का हठ छोड ही देना चाहिए। क्या खयाल है आपका।

ब्रजेश कानूनगो

503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-452018 

Saturday, September 7, 2013

व्रत करती स्त्री

व्रत करती स्त्री

प्यासी रहती है दिनभर
और उडेल देती है ढेर सारा जल शिवलिंग के ऊपर

पत्थर पर न्यौछावर कर देती है जंगल की सारी वनस्पति

बनाकर मिट्टी का पुतला
नहला देती है उसे लाल पीले रंगों से

लपेटती जाती है सूत का लम्बा धागा
पुराने पीपल की छाती पर
करती है परिक्रमा पवित्र नदी की
और लगा लेती है चन्दन का लेप
पैरों के घावों पर

सरावलों में उगाकर हरे जवारे
प्रवाहित करती है सरोवर में उन्हे

क्षयित चन्द्रमा को चलनी की आड से निहारते हुए
पति के अक्षत जीवन की कामना करती है व्रत करती स्त्री

एक आबंध की खातिर
सम्बन्धों की बहुत बडी डोर बुन रही है

जैसे बाँध लेना चाहती है धरती-आकाश ।