Monday, January 30, 2012

घुलती पृथ्वी


लघुकथा
घुलती पृथ्वी
ब्रजेश कानूनगो


बहूमूल्य रत्नों के व्यापारी ने अपनी बिटिया के विवाह के उपलक्ष्य में भव्य आशीर्वाद समारोह का आयोजन किया था । ऐसा लग रहा था, रत्नों की सारी चमक पांडाल में उतर आई हो।

तथाकथित बडे लोग पांडाल  के अंदर अपने भरे हुए पेटों को और भरने की असफल कोशिश कर रहे थे। बाहर कुछ छोटे लोग भव्य समारोह के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे।

इन बडे और छोटे लोगों से अलग बैठा छीतू यह समझ पाने में असमर्थ था कि बडे लोगों के  आयोजन पर ये छोटे लोग नारे क्यों  लगा रहे हैं। क्या  मिलेगा उन्हे ऐसा करके , क्यों  नहीं वे नारे लगाना छोडकर पांडाल के पीछे चले आते ? कम से कम आज तो उन्हें ऐसा लजीज खाना मिल जाएगा,जिसका स्वाद कई हफ़्तों तक जुबान पर बना रहेगा।

तभी एक व्यक्ति  पांडाल के  पिछवाडे आया और बाल्टी भर खाना वहाँ उँढेल गया । इससे पहले कि छीतू के पास बैठा कुत्ता भोजन पर झपटता उसने फैंके  गए भोजन से लड्‌डू उठाकर तुरंत मुँह में रख लिया।

छीतू को लगा जैसे उसनें लड्‌डू नहीं बल्कि पूरी पृथ्वी को अंपने मुँह में कैद  कर लिया हो और दुनिया भर की मिठास उसके  हलक से नीचे उतरती जा रही हो।

पांडाल के सामने  नारे बदस्तूर जारी थे। अंदर टेबलों पर पकवानों की नई प्लेटें सजाई जा रही थी। लेकिन छीतू के मुँह में कैद  पृथ्वी अब तक पूरी तरह घुल चुकी थी।

ब्रजेश कानूनगो
503 ,गोयल रिजेंसी ,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18
मो.न.09893944294   

1 comment:

  1. जी, आज ऐसा नजारा आम है. बात दिल पे ठक से लग गई.. ध्न्यवाद...

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