जीवनशाला,विसर्जन आश्रम में दि.१४ दिसंबर २०११ को युवा श्रोताओं को संबोधन
व्याख्यान
व्याख्यान
समकालीन समाज में रचनाशीलता की चुनौतियाँ
श्रेष्ठ लेखन ऐसा लक्ष्य है जो पास पहुँचने पर दूर जाकर खड़ा हो जाता है
ब्रजेश कानूनगो
अनेक स्कूली छात्र और युवाओ का अपने विचारों को अभिव्यक्त कर रचनात्मक लेखन करने की ओर रुझान होता है. मुझसे कई बार ऐसे बच्चे लिखने के गुर जानने के लिए पत्र लिखते हैं . मार्गदर्शन देने का न तो मेरे पास पर्याप्त अनुभव है और न ही मैं सृजन के उस दौर में पहुंच गया हूँ कि ऐसे लोगों को लेखन का कोई रामबाण नुस्खा सुझा सकूँ. मैं स्वयं लेखन को एक छात्र की तरह स्वीकार करता रहा हूँ और जो कुछ मैंने समझा और अनुभव किया है उसे ही यहाँ विनम्रता पूर्वक प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हूँ.
जो कुछ आज छपा हुआ या सुना हुआ सब-कुछ हमारे सामने है हम उसकी बात नहींकर रहे. वह चाहे पत्रिकाओं में मुद्रित हो कर आया हो अथवा इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से परोसा गया हो ,छद्म साहित्य या छद्म सृजन या तथाकथित रिमिक्स
भी हमारी बातचीत का विषय नहीं हो सकता. दरअसल हम उस गंभीर लेखन की बात करना चाहते हैं ,जिसमें मनुष्य के दुःख दर्द और उसके सरोकारों से जूझने और चिंताओं पर विमर्श दिखाई देता है. समाज में जो लोग इस प्रकार के लेखन और साहित्य में गंभीरता से संलग्न हैं, हम समकालीन समाज मे उनकी रचनाशीलता और उनकी चुनौतियों की बात यहाँ करना चाहते हैं.
समकालीन समाज वस्तुत: आज है क्या ?कौनसे घटक हमारे आज के समाज को प्रभावित कर रहे हैं?बाज़ार वाद और वैश्वीकरण के इस समय में हम एक उपभोक्तावादी समाज में बदल दिए गए हैं जहाँ सब कुछ बेच डालने के प्रयास किए जा रहे हैं.
जो कभी हमारे मूल्य होते थे ,वे अब संसकारों में शामिल है.ईमानदारी,सदाचार,सच्चाई अब केवल शब्दभर रह गए हैं .स्वार्थ्य सर्वोपरि हो गया है.शार्टकट में सफलता,सुख ,और ऐश्वर्य की आकांक्षा ने हमें बेहद अधीर और असवेदंशील बना डाला है. हमारी भाषा भूषा, भोजन, हमारी संस्कृति ,जीवनशैली, सब कुछ इस परिवर्तन कीचपेट में आ चुका है. ग़लत के लिए सामूहिक सहमति के लिए जो भी जायज नाजायज हो सकता है,करने में कोई गुरेज दिखाई नहीं होता.
जो कभी हमारे मूल्य होते थे ,वे अब संसकारों में शामिल है.ईमानदारी,सदाचार,सच्चाई अब केवल शब्दभर रह गए हैं .स्वार्थ्य सर्वोपरि हो गया है.शार्टकट में सफलता,सुख ,और ऐश्वर्य की आकांक्षा ने हमें बेहद अधीर और असवेदंशील बना डाला है. हमारी भाषा भूषा, भोजन, हमारी संस्कृति ,जीवनशैली, सब कुछ इस परिवर्तन कीचपेट में आ चुका है. ग़लत के लिए सामूहिक सहमति के लिए जो भी जायज नाजायज हो सकता है,करने में कोई गुरेज दिखाई नहीं होता.
भारतीय दर्शन के उस महान सूत्र की ओर मैं आपका ध्यान ले जाना चाहूँगा,जिसमे कहा गया है कि स्वयं को पहचानो. मै कौन हूँ? मै क्या हूँ? हर व्यक्ति को सबसे पहले विश्लेषण करना चाहिए. अपनी खूबियों और कमजोरियों को पहचानना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व सकारात्मक तथा ऋणात्मक बिंदुओं से मिलकर बनाता है. अपने अंदर के ऐसे सकारात्मक बिंदुओं को पहचानकर उनको यदि और विकसित किया जाए तो हमारी रचनात्मकता को बढ़ावा अवश्य मिलता है . मान लीजिए हम में किसी बात को लेकर तुरंत प्रतिक्रया व्यक्त करने का प्राकृतिक स्वभाव है . लेकिन हम इस गुण का कोई उपयोग ही नहीं कर पा रहे तो वह किस काम का होगा. यदि हम अपने इसी स्वभाव को रचनात्मक रूप देते हुए किसी अखबार के संपादक को पत्र ही लिख दें तो अधिक सार्थक होगा. अंतत: कोई भी बात उचित समय पर उचित स्थान पर कही जाए तो उसका कोई मतलब भी होगा. मान लीजिए मुझे सिनेमा देखने का बहुत शौक है ,लेकिन यह मेरी कमजोरी ही होगा यदि मैं अपने पिता की पेंशन से मल्टीप्लेक्स के महंगे टिकट को खरीद कर अपना शौक पूरा करता हूँ. लेकिन यही कमजोरी मेरी खूबी भी बन सकती है यदि मैं थोड़ा प्रयास करके फिल्म देखने को उसकी समीक्षा करने के उद्देश्य पर केंद्रित कर दूं. कोशिश करूँ कि सिनेमा के हर पक्ष पर अपनी रचनात्मक टिप्पणी दूँ . यह भी हो सकता है कि मेरा लेखन धीरे धीरे मंटो के मीनाबाजार की तरह लोगों को उद्वेलित कर सके.
महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने आपको किस तरह पहचान पाते हैं और उसे एक सही दिशा में मोड देने में सफल हो पाते हैं. लोग कहते हैं कि 'उनके मुँह से फूल झरते हैं' .रजनीश जब बोलते थे तो एक प्रभा मंडल सा छा जाता था,एक आध्यात्मिक सम्मोहन वातावरण को अपने अंदर समेंट लेता था. रजनीश ने
अपनी इसी खूबी को पहचाना ,उनका विज्ञान का छात्र होना इसमे उनका सहायक रहा. विश्लेषण करने का यही गुण संसार को अनेक पुस्तकें उपलब्ध करा गया. इसीप्रकार प्रसिद्ध व्यन्ग्यकार शरद जोशी जब बोलते थे उनकी बातचीत में चुटकियाँ और हास्य का पुट हमेशा बना रहता था ,हर बात को वे अपनी विशिष्ठ व्यंग्य दृष्टि से तपासते,टटोलते. वे आप से बात कर रहे होते तो लगता जैसे व्यंग्य कर रहे हों. अपने एसी स्वभाव को उन्होंने रचनात्मक दिशा दी और प्रतिदिन व्यंग्य लेखन करने का ऐतिहासिक कार्य किया .
इसके बाद जो हम लिखना चाहते हैं उसे कितना समझते हैं . कहानी लिखना चाहते है तो कहानी के बारे में कितना जानते हैं. प्रेमचंद से लेकर कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी से लेकर उदयप्रकाश तक कहानी में कितने प्रयोग हुए हैं,कहानी ने किस तरह अपना स्वरूप बदला है. समकालीन कहानी के कौनसे तत्व हैं जिनके कारण वे जानी जाती हैं. मुझे याद है जब मैं दसवी ,ग्यारहवीं का छात्र था ,एक पत्रिका 'सारिका' का संपादन कमलेश्वर किया करते थे. उन्होंने उन दिनों समानांतर कहानी आंदोलन चला रखा था.आज के अनेक प्रतिष्ठित कहानी कार उसी आंदोलन की महत्वपूर्ण देन हैं. समाज के कमजोर ,शोषित और दलित वर्ग को लेकर अनेक कहानियाँ लिखीं गईं हैं. सारिका की कहानियों को पढकर वैसे ही लेखन को लक्ष्य करके लिखने का प्रयास करता लेकिन रचनाएँ लौट आतीं थीं. आज भी लौट आतीं हैं. लेकिन सारिका को लक्ष्य करके लिखी रचनाओं को पढकर मुझे दुःख नहीं होता क्योंकि जब हम लक्ष्य श्रेष्ठ रखते हैं तो भले ही वहाँ तक नहीं जा सकें किन्तु उनका स्तर घटिया नहीं हो पाता. उसकी सार्थकता बनी रहती है. कोशिश हमेशा स्तरीय ही होना चाहिए.
कविता लिख रहे हैं तो भक्तिकाल से लेकर समकालीन कवियों तक के सृजन पर नजर डालनी ही होगी. यह देखना होगा कि कुमार अम्बुज या राजेश जोशी जैसे कवि आज महत्वपूर्ण क्यों माने जाते हैं. रचनाकार के समकालीन सरोकार क्या हैं? हमें किसके पक्ष में खडा होना है. हमारी दृष्टि बिलकुल साफ़ एवं पूर्णत: वैज्ञानिक होना चाहिए.
आगे बात अभिव्यक्ति की करे तो यह बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न बन जाता है जब हम कुछ कहना चाहते हैं लेकिन बात उस तक पहुच ही नहीं रही जिस तक उसे पहुंचाना है. यहाँ हमारी भाषा और विधा का चयन के बिंदु सामने होते हैं. शब्दों के चयन और उसकी क्षमता ,उसकी ध्वनि,आतंरिक ( बिम्ब) और प्रत्यक्ष दोनों, को सही रूप में चुनकर उनका इस्तेमाल कैसे किया जाए,इसे भी समझना चाहिए. सही शब्द का चयन और उसका उचित प्रयोग अभिव्यक्ति को बहुत प्रभावी बनाने की क्षमता रखता है. शरद जोशी ने अपनी एक रचना में सिर्फ 'बोफोर्स' शब्द का प्रयोग अनेक बार इस तरह किया कि बीच में वे श्रोताओं से पूछते थे कि रचना आपको किसी लग रही है तो श्रोता भी बरबस बोल उठते थे बोफोर्स लग रही है. एशियाड के समय उनकी एक रचना का शीर्षक ही था-'अय्याशियाड' . मै समझता हूँ,सम्पूर्ण रचना में कितनी जान रही होगी. जब शीर्षक ही इतना व्यंग्यात्मक प्रभाव पैदा कर रहा है.
रचनाकार को अपनी एक ऐसी भाषा विकसित करने की चुनौती हमेशा सामने होती है जो उसके पाठक तक पहुंच सके. किसी ने पूछा था कि आपके मध्य प्रदेश में व्यंग्य इतने अधिक क्यों लिखे जा रहे हैं .तब शरद जी ने जवाब दिया था-हमारी भाषा समन्वय है,हिन्दी,उर्दू और क्षेत्रीय बोलियों की. यही भाषा है यहाँ के लोगों की. यही भाषा है व्यंग्यकार की. व्यंग्य लेखक कोई भी खरी बात जब अपनी भाषा में कहता तो वह अनायास व्यंग्य बन जाता है. निसंदेह हमें एक ऐसी भाषा चाहिए जिसमे संस्कृत सा माधुर्य हो,उर्दू सी नजाकत और अपनापन हो और क्षेत्रीय बोलियों की सहजता हो,प्रवाह हो,यही वह भाषा होगी जो सामान्य पाठकों को आकर्षित करती है साथ ही रचना को पठनीय भी बनाती है.
अंतत: समग्र रूप से यही कहा जा सकता है कि अच्छे लेखन के लिए गंभीर रचनाकार सदैव लंबी दौड लगाते रहने के लिए उद्यत बना रहता है. जिसमे उसके अपने तथा समकालीन समाज के परिवेश और स्थितियों के साथ साथ भाषा,,शिल्प,कथ्य और संप्रेषणीयता की चुनौतियाँ तो होती ही हैं लेकिन विचारधारा,प्रतिबद्धता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बनाए रखना भी गंभीर लेखन की महत्वपूर्ण चुनौती रहती है. सच तो यह है कि श्रेष्ठ लेखन एक ऐसा लक्ष्य होता है जिसके लगभग पास पहुँच जाने के बाद वह और थोड़ा दूर जा कर खडा हो जाता है.
ब्रजेश कानूनगो
503 ,गोयल रीजेंसी ,चमेली पार्क ,कनाडिया रोड,इंदौर-18
bahut hi gyanvardhak lekh...aabhar
ReplyDeletemere blog par aapka swagat hai...margdarshan kijiyega
आदरणीय अग्रज भाई बृजेश कानूनगो जी बहुत ही सुन्दर आलेख /व्याख्यान पढ़ने को मिला |ब्लॉग पर आने हेतु आभार |
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