Tuesday, September 20, 2011

भूकंप के बाद कविता


भूकंप के बाद कविता

ब्रजेश कानूनगो

भूकंप के बाद
एक और भूकंप आता है हमारे अंदर।

विश्वास की चट्‌टानें
बदलती है अपना स्थान
खिसकने लगती है विचारों की आंतरिक प्लेटें
मन के महासागर में उमड़ती है संवेदनाओं की सुनामी लहरें
तब होता है जन्म कविता का।

भाषा शिल्प और शैली का
नही होता कोई विवाद
मात्राओं की संख्या
और शब्दों के वजन का कोई मापदंड
नहीं बनता बाधक
विधा के अस्तित्व पर नहीं होता कोई प्रश्नचिन्ह्‌
चिन्ता नहीं होती सृजन के स्वीकार की।

अनपढ़ किसान हो या गरीब मछुआरा
या फिर चमकती दुनिया का दैदीप्य सितारा
रचने लगते हैं कविता।

कविता ही है जो
मलबे पर खिलाती है फूल
बिछुड़ गये बच्चों के चेहरों पर
लौटाती है मुस्कान
बिखर जाती है नईबस्ती की हवाओं मे
सिकते हुए अन्न की खुशबू।

अंत के बाद
अंकुरण की घोषणा करतीं
पुस्तकों में नहीं
जीवन में बसती है कविताएँ।


ब्रजेश कानूनगो
503,
गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18 

Monday, September 12, 2011

कैसे मरेगा आतंकवाद का रावण ...!


दृष्टिकोण
कैसे मरेगा आतंकवाद का रावण ...!
ब्रजेश कानूनगो

तंकवाद से निपटने की हमारी रणनीति क्या हो ? जैसे विषय पर चर्चा का माहौल बनना शुरू ही होता है कि देश में कोई नया हादसा हो जाता है। 9/11 के ठीक चार  दिन पहले गत 7 सितम्बर को सुबह दफ्तरों में कामकाज शुरू होते ही दिल्ली हाईकोर्ट मे बम ब्लास्ट हो गया,जिसमे 10 से अधिक लोगों की मौत हो गई तथा  लगभग सौ व्यक्ति  घायल हो गए । चार महिनों मे यहाँ यह दूसरी बार धमाका हुआ है,जो सचमुच हमारे लिए नई चेतावनी लेकर आया है। मुम्बई के व्यस्त इलाकों में तीन बम धमाकों के जख्म अभी सूखे भी नहीं थे और दिल्ली ने नया घाव दे दिया है।  
जो लोग यह मान रहे थे कि लादेन के समापन के बाद ऐसी घटनाओं में ठहराव आएगा,इन घटनाओं के बाद शायद अपनी समझ पर पुनर्विचार के लिए अवश्य बाध्य हुए होंगे। दरअसल एक लादेन के समापन से आतंकवाद की अवधारणा समाप्त नहीं हो जाती है। आतंकवाद रूपी दानव लगभग रावण जैसा है,जिसके अनेक सिर हैं।
चीजों को समझने के लिए प्रचलित मिथकों,पौराणिक संदर्भों तथा प्रसिद्ध सूक्तियों का प्रयोग बड़ा उपयोगी होता है। ओसामा बिन लादेन के मारे जाने की घटना को भी कुछ इसी तरह देखें तो अमेरिका नें बुरे को मार गिराया था , बुराई को नहीं। लादेन भले ही इसका एक प्रमुख चेहरा रहा हो किंतु बाद में अन्य चेहरों ने अपनी ताकत नहीं ब़ढ़ाई होगी ऐसा मान लेना शायद बहुत बड़ी भूल होगी। अमेरिका न तो मर्यादा पुरुषोत्तम रहा है और नही उसनें आतंकवाद की नाभि में निशाना लगाया था । सच तो यह है कि ओबामा नें 9/11 का बदला ओसामा को मार कर लिया।

लादेन की मौत के बाद इस संभावना से इंकार नही किया जा सकता कि ओसामा समर्थक और अलकायदा के अनुयायी लादेन की हत्या को एक चुनौती मानकर नए उत्पात की तैयारी में लग जाएँ। अलकायदा और ऐसे ही अन्य आतंकी संगठनों को हतोत्साहित करने के लिए उचित होता कि दुनिया के इस मोस्ट वांटेड अपराधी को जिंदा गिरफ्तार करके उसके गुनाहों को उजागर किया जाता तथा मुकदमा चलाकर उसे सजा सुनाई जाती। आगे ऐसा किया जाना शायद अधिक बुद्धिमतापूर्ण होगा।
भारत की चिंता तो सदैव से यह भी रही है कि उसे पाकिस्तान की आतंकवाद समर्थक मानसिकता से भी मुकाबला करना होता है। परमाणु ताकत रखने वाले देशों मे से पाकिस्तान ही एकमात्र देश है जहाँ परमाणु बटन सेना के पास है तथा जिसकी आड़ में वह दशहतगर्दी फैलाता रहता है। इसमे कोई शक नहीं है कि पाकिस्तान के अंदर अलकायदा को समर्थन देनेवालों का एक बड़ा वर्ग अब भी मौजूद है। ओसामा के अंत के बाद हमारे यहां ऐसी आवाजें सुनाई देती रहीं हैं कि हमारे मोस्ट वांटेड दाऊद और मौलाना अजहर मसूद के अंत के लिए भारत को भी अमेरिका जैसी कार्रवाई करनी चाहिए। मेरा मानना है कि यह विचार बड़ा आक्रामक  और जोशपूर्ण तो अवश्य दिखाई देता है किंतु वास्तविकता में महज नारे बाजी से कुछ ज्यादा नहीं होगा। अमेरिका और पाकिस्तान का गणित  अलग था, भारत और पाक की केमिस्ट्री कुछ भिन्न है। न तो हमारे पास पुख्ता जानकारियाँ हैं और न ही पर्याप्त क्षमता एवं व्यापक जनसमर्थन। पाकिस्तान के ईमानदार सहयोग के बगैर किसी भी कार्रवाई का अपेक्षित परिणाम आना संदिग्ध ही होगा। दोनों मुल्कों के शाँति पसंद अवाम को भी ऐसी कोई कार्रवाई अधिक रुचिकर नहीं होगी।  
बहरहाल ,मुम्बई के बम धमाकों के बाद अब एक बार फिर आरोप प्रत्यारोपों,शर्मनाक राजनीतिक बयानो का दौर चला है। हमारे खुफिया तंत्र तथा सरकार की क्षमताओं को लेकर अनेक प्रश्नचिन्ह आम भारतीय के मन को बैचैन करते रहे हैं। प्रश्न यह नही है कि खुफियातंत्र की जिम्मेदारी सम्भालनेवाली रॉ, आईबी, सीबीआई,और एनआईए जैसी भारी भरकम संस्थाएँ अपनी व्यापकता के बावजूद क्यों  असफल होती रही हैं। सुरक्षा के लिए पर्याप्त पुलिस फोर्स की कमी, विशेषज्ञ एवम् आधुनिक हथियारों तथा रक्षा उपकरणों के अभाव के मगरमच्छी रुदन से अब बात नही बननेवाली है। सबसे बडी चिंता यह होनी चाहिए कि हर हाल मे ये घटनाएँ रुकें तथा आम व्यक्ति की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।

जैसा कि प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने ओसामा बिन लादेन के खात्में के समय कहा था  आतंकवाद से निपटने की दिशा में वह एक महत्वपूर्ण कदम अवश्य रहा है  ,दिल्ली के धमाके के बाद सरकार की ओर से फिर उचित उपाय सुनिश्चित करने सम्बन्धित बयानो का दौर चल पडा है लेकिन आतंकवाद से निपटने की हमारी तकनीक और रणनीति क्या होनी चाहिए ? इसपर गंभीरता से विचार होना चाहिए। आतंकवाद से निपटने के लिए विमर्श का जो वातावरण बना है उसका लाभ लेते हुए हमारी सरकार ने इस बीच अपनी राजनीतिक दृढ़ता मे आई उस कमी को भी यदि दूर कर लिया , जिसके कारण कसाब जैसों को राहतें मिलती रहीं हैं तो बहुत बेहतर होगा

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैँ)

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी ,चमेली पार्क कनाडिया रोड़ इंदौर-18
मो. न. 09893944294

Friday, September 9, 2011

रिंगटोन


कहानी
रिंगटोन
ब्रजेश कानूनगो


समीर पुणे मे प्रबंधन की पढ़ाई कर रहा था। तब हमारे यहाँ टेलीफोन नही था। मोबाइल फोन भी किसी किसी के पास ही होता था। ले दे कर सार्वजनिक टेलीफोन बूथ पर एसटीडी सुविधा होती थी।फिर जब घर बदला तो पड़ौसी के यहाँ जरूर टेलीफोन कनेकशन था।शर्माजी भले आदमी थे,समीर को उनका टेलीफोन नम्बर दे रखा था।अक्सर वह रविवार को शर्माजी के यहाँ फोन लगाकर हमसे बातचीत कर लिया करता था।

जब भी रविवार आता माँ सुबह से ही समीर के फोन का इंतजार करने लगती।हम उनकी इस अधीरता का मजा लिया करते। वह कहती-'हाँ इंतजार तो रहता ही है,मूल से प्यारा जो होता है ब्याज।'

शर्माजी के घर में रविवार को सुबह जब टेलीफोन की घंटी बजती थी तो पत्नी रसोई में गैस पर रखे कुकर को नीचे उतार लेती थी,माँ के कान चौकन्ने हो जाते थे।हम सब शर्माजी की आवाज का बेसब्री से इंतजार करने लगते,थोडी देर ही में वहाँ से कोई कहता-'फोन आया है पूना से,बात कर लीजिए।'
माँ सबसे पहले दौड़ पडती थी पोते के हालचाल जानने के लिये । वह रविवार मुझे अब तक याद है जब माँ की बैचेनी मुझ से देखी न गई थी। शर्माजी किसी शादी में गए हुए थे,उनके घर के दरवाजे पर ताला पड़ा हुआ था,अंदर टेलीफोन की घंटी घनघना रही थी।बंद दरवाजों के पीछे से समीर जैसे बहुत देर तक पुकारता रहा था हमें।

फिर एकाएक समय बहुत तेजी से बदल गया।देश में संचार क्रांति हो गई। मोबाइल फोन तो जैसे शरीर का हिस्सा हो गये।बैंक की नौकरी के चलते हर तीसरे साल तबादला हो जाता था।माँ भी नए शहर और नए घर में हमारे साथ ही होती थी।कोर्स पूरा होते ही समीर का भी कैम्पस सिलेवक्शन हो गया। अब वह नौकरी के कारण दिल्ली पहुँच गया था।उसके पास अपना मोबाइल था,जब चाहता हमसे बात कर लिया करता ।लेकिन बात करने में अब वह बात नहीं रही जो शर्माजी के लेंडलाइन फोन में होती थी।

हर तीन साल में बैंक से मुझे नया हेंडसेट मिलता था। पुराने हेंडसेट पत्नी बेटी को हस्तान्तरित होते गए। बाद में एक और नया हेंडसेट मिला , कुछ दिनों तक तो वैसे ही पड़ा रहा फिर नई सिम डलवाकर माँ को दे दिया।बेटी ने माँ के बहुत से परिचितों रिश्तेदारों के नंबर उनके सेट मे सेव कर दिए तथा डाइलिंग के लिए सरलीकृत  व्यवस्था कर दी।  एक नम्बर दबाने पर मामाजी का,दो पर मेरा,तीन से समीर का ,चार से बुआजी का नम्बर आसानी से डायल हो जाता था।अपना फोन मिल जाने से माँ में विशेष आत्मविश्वास दिखाई देने लगा।अपने फोन को वह बड़े जतन से सम्भाल कर रखतीँ ।अंपने हाथों से उन्होने फोन का एक कवर भी बनाया। मिलने जुलने वालों को वे बड़े गर्व से बतातीं कि अंब उनके पास भी अपना मोबाइल फोन है,वे उन्हे सीधे फोन लगा सकते हैं।शुरु शुरु मे तो माँ को बहुत फोन आए। वह भी अपने मोबाइल से भाइयों,देवरानी आदि से बातें कर लिया करतीं।हालचाल जाननें के साथ-साथ उनका समय भी कट जाता,मन बहल जाता और उसके बाद स्मृतियों के संसार मे वे घंटों खोई रहतीं।महीने दो महिनों तक ही चल सका यह सिलसिला। फिर कम हो गए माँ को फोन आना। माँ का मोबाइल ज्यादातर खामोश रहने लगा।

पिताजी की तस्वीर के पास अक्सर माँ का चश्मा और मोबाइल रखा होता था।कभी रिंगटोन बजती तो माँ फोन कान से लगाती हुई गुडहल के पेड़ के समीप आकर सुनने लगती। बहुत देर तक फोन चलता रहता। बात समाप्त होने पर मोबाइल पिताजी की तस्वीर के पास रखकर फिर अपने कामकाज में जुट जाती।

बहुत दिनों तक तो हम यही समझते रहे कि समीर माँ को फोन करता होगा,लेकिन फोन सुनने के बाद उनके  चेहरे के भावों से ऐसा नही लगता था कि पोते से बात हुई है। मैं उनसे पूछता कि किससे बात हुई है तो वे अक्स टाल जातीं,बताती नहीं कि किसका फोन था। पत्नी-बेटी ने भी पूछकर देख लिया,लेकिन सफलता नही मिली।अब हमारे लिए यह जिज्ञासा नही रही बल्कि माँ को आनेवाला फोन काल हमारे लिए चिन्ता की बात हो गई थी। बुजुर्गों को ठगने लूटने की घटनाएँ आम हो गर्ईं हैं,हमारी परेशानी स्वाभाविक थी।कहीं कोई बदमाश माँ को परेशान तो नहीं कर रहा इसलिए थोड़ा गुस्सा जताते हुए मैने जब इस बारे में जोर देकर पूछा तो माँ ने चिढ़कर कहा-'रतन टाटा का फोन आता है मेरे पास,बोल क्या कहना है।'


माँ के इस तरह चिढ़ जाने से मैं चुप हो गया और घूमने के लिए घर से बाहर निकल गया।उस दिन बात यहीं समाप्त हो गई।

माँ के मोबाइल पर कभी दो बार फोन आता फिर दिन मे एकबार ही आने लगा। हाँ,मेसेजेस तो बहुत आते थे जिन्हे बेटी डिलिट कर दिया करती थी।हर दिन आनेवाले फोन को माँ हमेशा सुनती। फोन सुनकर फिर पिताजी के चित्र के पास रख देती।भागवत कथा आदि में जब जातीं तो अपना मोबाइल ले जाना नहीं भूलतीं। हम लोगों ने भी कह रखा था कि अपना मोबाइल सदैव पास रखे ताकि जरूरत पड़ने पर हमसे संपर्क हो सके

उस दिन वे अपना मोबाइल वहीं पिताजी की तस्वीर के पास ही भूलकर पडौस में हो रहे भजन-कीर्तन में चली गर्ईं थीं। मैं बैंक से लौटा ही था।नब्वे साल पुराने हमारे बैंक का बड़े बैंक में विलय हो गया था इसलिए मन में खिन्नता और उदासी थी,अखबार सामनें फैला रखा था लेकिन दिमाग कहीं और लगा था।तभी माँ के मोबाइल की रिंगटोन गूंज उठी-'भूल न जाना तुम से कहूँ तो- - -' माँ को फोन तो दे दिया था लेकिन रिंगटोन वही पुरानी बजती थी। पत्नी ने कई बार कहा था कि इसे बदलकर कोई भजन या आरती की टोन डाल दूँ लेकिन मैं अब तक यह नहीं कर पाया था। मैंने माँ का मोबाइल फोन उठाया,कान से लगाया,देखें माँ के रतन टाटा क्या कह रहे हैं। सामने से आवाज आ रही थी-' इस गाने को रिंगटोन बनाने के लिए कृपया एक दबाएँ---गाना बज रहा था,मैंने एक गाना सुना फिर दूसरा सुना,--कुल आठ लोकप्रिय गीतों के मुखड़े रतन टाटा ने सुनाए।

माँ के मित्र ने मेरी उदासी भी कुछ देर के लिए दूर कर दी थी।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,
कनाडिया रोड,इंदौर 18