आदमी और पुतला
ब्रजेश कानूनगो
आदमी और पुतले में कुछ बुनियादी फर्क होते हैं.
मसलन आदमी हाड-मांस का बना होता है और आदमी ही उसे जन्म भी देता है. पुतले को कोई
पुतला जन्म नहीं देता. आदमी किसी भी पुतले को छू सकता है. उससे आँखें मिलाकर बातें
करने की कोशिश कर सकता है. हर कोई ऐसा कर सकता है. मैं कर सकता हूँ, आप कर सकते
हैं, प्रधान मंत्री भी कर सकते हैं.
किसी पुतले को छूकर हम महसूस कर सकते हैं कि वह कितना संवेदनशील या मुलायम
है , वह मिट्टी का बना है या धातु का. अगर मिट्टी का है तो थोड़ा–सा चख कर भी पता
कर सकते हैं कि उसमें कितनी मिठास है या वह कितनी नमकीन मिट्टी का बना हुआ है,उसकी
मिट्टी का स्वाद हमारे आँगन की मिट्टी से कितना मिलता है . अधिक रूचि हो तो पुतले
की मिट्टी का रासायनिक विश्लेषण भी करा सकते हैं लेकिन पुतले को यह सुविधा नहीं
होती. वह पर्यटक को स्पर्श नहीं कर सकता. आदमी की प्रकृति में कोई दिलचस्पी लेना
उसके बस में नहीं होता. पुतले के लिए
पर्यटक मात्र पर्यटक होता है, चाहे वह किसी भी मिट्टी का बना हो. पुतला हमसे आँखें
नहीं मिला सकता . उसकी निगाहें बस अतीत में ताकती रहती है. वर्तमान से उसका कोई
लेना-देना नहीं है. हम अतीत को अपने हिसाब से देख सकते हैं सुन्दर पर पलकें बिछा
सकते हैं तो खराब से नजरें चुरा भी सकते हैं.
पुतला शौक़ीन तबीयत का नहीं होता. जो एक बार पहना
दिया सो वह जीवन पर्यंत पहना रहता है. जो उसके हाथ में थमा दिया वह अंत तक थामे
रहता है. आदमी के साथ ऐसा नहीं है. वह रंगबाज होता है. हर रंग में रंग जाता है.
जैसा देश-वैसा भेष में विश्वास करने वाला होता है . पूरी स्वतंत्रता है उसे. वह
चाहे तो लूंगी पहन ले. टाई लगा ले. चप्पल, सैंडिल जूते कुछ भी पहन सकता है. चूडीदार,जैकेट,
कुर्ता पायजामा अथवा सूट-बूट धारण करके भी आदमी देश-विदेश कहीं के भी पुतलों से
बात करने जा सकता है. मगर पुतला बहुत विवश होता है. धोती लाठी लिए बरसों बरस से कड़ी
धूप में, बारिश में भीगता चौराहे पर खडा अतीत में खोया रहता है. उस पर कोई छाता
नहीं तानता , वह कभी धूप का चश्मा नहीं लगा सकता. आदमी धूप का चश्मा लगा कर
प्रोटोकाल तक का उलंघन बे-झिझक कर सकता है.
एक महान योद्धा तलवार लिए घोड़े पर बरसों से एक ही
मुद्रा में बैठा है. एक पुतला युगों से एक ही दिशा में अपनी अंगुली उठाए राह दिखा
रहा है. उसे इस बात की चिंता नहीं है कि अब लोग किसी और रास्ते पर चल पड़े हैं.
चिंता तो आदमी को होती है. हजारों चिंताओं से घिरा है बेचारा आदमी. करे तो क्या
करे. खुद की चिंता, परिवार की चिंता, समाज की चिंता, देश और दुनिया की चिंता. चिंताएं
हैं तो आदमी सक्रीय बना रहता है वरना वह भी कब का पुतला बन गया होता. यही चिंताएं
उससे भाग-दौड़ करवाती रहती हैं. आम आदमी तो बेचारा परेशान है ही मगर देखिये देश की
चिंता (मेक इन इंडिया और इन्वेस्टमेंट की चिंता) पीएम तक से कितनी भाग-दौड़ करवा रही है. कभी इस
देश तो कभी उस देश. चैन ही नहीं मिल रहा है ज़रा–सा भी.
बहरहाल, सबसे बड़ी चिंता तो यह है कि पुतलों के
प्रति लोगों का अनुराग दिनों–दिन बढ़ता ही जा रहा है. पुतलों को स्थापित किये जाने
की ख्वाहिश ऐसी बढ़ रही है कि जीते-जी लोगों के पुतले संग्रहालयों से लेकर चौराहों तक
लगाए जाने लगे हैं. पुतलों के साथ खुद व्यक्ति अपना सेल्फी उतारने में सुख महसूस
करने लगा है. पुतले में रूपांतरित हो कर ही शायद चिताओं से मुक्ति का रास्ता खोजा
जाना आसान है. जिन्हें आदमी होना चाहिए वे धीरे-धीरे पुतलों में बदलते जा रहे हैं.
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,
इंदौर-452018
मो.न. 09893944294
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