बचपन की बरसात
ब्रजेश कानूनगो
जब हम छोटे थे मौसम आने पर अक्सर बारिश लगातार सप्ताह-पखवाडे चलती
रहती थी। कई-कई दिनों तक सूरज के दीदार नही हो पाते थे। लम्बे इंतजार के बाद धूप
छिटकने के बाद क्षेत्र के अखबारों का पहले पृष्ठ पर ही शीर्षक बन जाता था कि ‘एक पखवाडे बाद हुए
सूर्य देवता के दर्शन!’ कोई तीस-पैंतीस बरस पहले ऐसी हेड लाइन आम हुआ करती थीं अखबारों में।
पर्यावरण का संतुलन अब इस तरह गडबडा गया है कि नए बच्चों को तो शायद
याद ही नही है कि कभी लम्बे समय तक बादल छाए भी रहे होंगे। उन्होने खंड वर्षा को
ही देखा है। पिछले वर्ष को ही लें तो भले ही एक साथ झमाझम बरसते हुए वर्षा ने औसत
से अधिक का आंकडा पर कर लिया था लेकिन वर्ष के बारह महिनों में से नौ-दस महिने में
टुकडे-टुकडे पानी हर महीने बरसा ही बरसा था।
बरसात के आते ही मन जैसे भीगा-भीगा सा हो जाता है। ऐसे में मुझे अपने
कच्चे-कच्चे बचपन और बरसात के दिन बहुत तीव्रता से याद आने लगते हैं। बिल्कुल अभी अभी की
बात लगती है जब तेज बरसात के बाद हमारे मुहल्ले की गली से पानी ऐसे बहता था
जैसे कोई छोटी-मोटी नदी बह रही हो। उस नदी के बहने का हम बहुत बेसब्री इंतजार किया
करते थे। उसका बडा दिलचस्प कारण भी हुआ करता था। हमारी गली के ठीक आगे चौराहा था
और उसके आगे पहाडी का ढलान। चौराहे पर अपनी बैलगाडिय़ों से गाँव से आकर किसान
ककडियों और भुट्टों की दुकान लगाते थे। अचानक जब तेज बरसात होती और पहाडी का पानी
बाजार में उतरता, किसानों के ककडी-भुट्टे गली में बहने लगते। कोशिश के बाद भी कई
भुट्टों-ककडियों को बचाने में वे नाकाम ही होते थे। मुहल्ले के बच्चों के
लिए नदी बन गई गली जैसे भुट्टों और ककडियों की सौगात लेकर आती। हम सब अपने जोश और
आनन्द की बंसी बजाते भुट्टों-ककडियों के शिकार में जुट जाते थे।
हमारी गली के एक ओर कायस्थों के घर थे और सामनेवाली पट्टी में
ज्यादातर मुस्लिम परिवार रहते थे। दोनो पट्टियों के बच्चे बहती गली का भरपूर मजा
लिया करते थे। सामनेवाले इस्माइल भाई की अम्मा जिन्हे हम आपा कहा करते थे
ऐसी ही बहती नदी से गुजर कर पतंग बनाना छोडकर उस रात हमारे घर आईं थीं। मेरी चाची
को तेज दर्द हो रहा था, पूरे नौ माह चल रहे थे। जैसे तैसे मेरी माँ और आपा उन्हे जच्चाखाने
ले गए थे। जब तक चाची अस्पताल रहीं, आपा भरी बरसात में चाची और नवजात की खिदमत में जुटीं रहीं। हम बच्चे
उनकी बकरियों और पतंगों को बरसात की बौछारों से बचाते रहे। जब वे नन्हे चचेरे भाई
को गोद में उठाए जाफर भाई के तांगे से घर लौटी तब बरसात तो उस वक्त थम चुकी थी
लेकिन पानी की कुछ बूँदों और नमी ने जैसे आपा और हम सब की आँखों में डेरा ही डाल
लिया था।
लम्बी लम्बी चलनेवाली बारिश की तरह लम्बी ही चलती थी कानडकर बुआ की
कथा। दत्तमन्दिर में पूरे चौमासा में कुछ न कुछ चला ही करता था। पन्द्रह दिन तक
कानडकर बुआ रोज सबेरे कथा सुनाते थे। संगीत मय कथा-कथन और प्रवचन के बाद अंत में
देश प्रेम के गीत और कीर्तन का सामूहिक गान भी हुआ करता था। स्कूल की छुट्टी होते
ही बारिश में भीगते-भागते हम भी दत्त मन्दिर में पहुँच जाया करते थे। कीर्तन और
देश-प्रेम गान में हमे बहुत मजा आता था। कभी-कभी जल्दी पहुँच जाते तो बुआ को कथा
सुनाते भी देख लेते। वे इतने भावुक होकर अभिनय के साथ बोलते थे कि न सिर्फ उनकी
बल्कि श्रोताओं,श्रद्धालुओं की आँखों से भी आँसुओं की लडी लग जाती थी। प्रंगानुसार
उनकी प्रस्तुति होती थी। बाहर बारिश होती थी और भीतर बुआ संवेदनाओं की बारिश करवा
दिया करते थे। सब कुछ भीग भीग जाता था। हमारा लालच तो वस्तुत: आखिर में वितरित
किया जानेवाला प्रसाद होता था। अद्भुत स्वादवाले उस विशेष प्रसाद को ‘गोपाल काळा’ कहते थे। जुवार की
धानी को दही में मथ कर वह बनाया जाता था,जिसमें नमक,हरी मिर्च, अदरख व हरे धनिए का स्वाद समाहित होता था। दोना भर कर मिलने वाले इस
प्रसाद के जायके का स्वाद आज भी जबान पर कायम है।
पत्नी बरसात होते ही भले ही अलग-अलग तरह की पकौडियाँ परोसती रहती है
लेकिन मेरा मन उस दौरान स्मृतियों की झडी के बीच बचपन के उस गोपाल काळा की ख्वाहिश
लिए लगातार अन्दर से भीगता रहता है।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इन्दौर-452018
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