पुस्तक समीक्षा
सूत्रों के हवाले से
(((
चमकदार
व्यंग्य-मोतियों का खज़ाना है
डॉ.सुरेन्द्र वर्मा
कुछ सूत्र गणित में के
होते हैं. कुछ ज़िंदगी के होते हैं. लेकिन कुछ सूत्र ऐसे भी होते हैं जो खोज-खबर
लाते हैं. ब्रजेश कानूनगो एक व्यंग्यकार भी हैं यह मुझे ‘सूत्रों
के हवाले से’ ही पता चला. वैसे ‘सूत्रों
के हवाले से’ ब्रजेश कानूनगो का दूसरा व्यंग्य संग्रह है.
इससे पहले ‘पुन: पधारें’ आ चुका है.
‘पुन: पधारें’ शीर्षक ने ही उस सूत्र का काम
किया था कि यह सम्भावनाओं से भरा लेखक अब रुकेगा नहीं. फिर से आएगा, बार बार आयेगा.
ब्रजेश जी कहते हैं, सूत्र
बस सूत्र होते हैं. उनका कोई नाम नहीं होता. वे अदृश्य रहकर अपना काम करते हैं.
इन्हें कोई जान नहीं पाता. न ही उनके तौर तरीके पर कोई सवाल करना संभव होता है.
फिर भी इन पर विश्वास करना हमारे संस्कारों का हिस्सा है. टीवी इन्हीं सूत्रों के
हवाले से हमें खबरें परोसता है. ये सूत्र ही हमारे जीवन को रसमय बना रहे हैं,
‘यह क्या छोटी-मोटी बात है!’
ब्रजेश जी कपोल कल्पित
बातों की खूब धज्जियां उड़ाते हैं. निष्क्रियता के मारे एक कवि महोदय ने अरसे से
कुछ लिखा नहीं था. किसी ने जब उनसे पूछ लिया, कविराज बहुत दिन हो गए
कहीं नज़र नहीं आए, क्या बात है आजकल कुछ छप नहीं रहा है?
तो कविराज मुस्कराकर बोले, भई क्या बताऊँ,
बहुत व्यस्त हूँ, इन दिनों एक उपन्यास लिख रहा
हूँ! थोड़ी प्रतीक्षा तो आपको करना ही पड़ेगी. ब्रजेश जी कहते हैं, कविराज के साथ मैं भी अब अच्छी तरह जान गया हूँ कि हरेक लेखक अक्सर कभी
कभी उपन्यास लिखने में क्यों इतना व्यस्त हो जाता है? (!)
यह तो सभी जानते हैं
कि मौसम के लिहाज़ से हवाएं अपना रुख बदलती रहती हैं. गरमियों में हवा गर्म हो जाती
है और जाड़ों में सर्द. लेकिन हवा बनाई भी तो जा सकती है. ब्रिजेश जी बताते हैं कि
हवा बनाना भी एक कला है और जो लोग इस कला में माहिर होते हैं उन्हें वे ‘हवाबाज़’
कहते हैं. पहले लोग हवा बनाने के लिए चौपाल या हाट-बाज़ार में मजमा
लगाते थे, आज सोशल मीडिया पर हवाबाजों की आंधियां चल रही
हैं. और हवाबाजों की दृष्टि के भी क्या कहने? साफ़ साफ़ देख
लेते हैं कि बाज़ार में अभी किसकी हवा चल रही है और कैसे नई हवा बनाई जा सकती है.
आखिर आप अपने नेताओं
से, जिन्हें
आपने मतदान देकर जिताया है, यह उम्मीद ही क्यों पालते हैं कि
वे आपके हितों की रक्षा करेंगे. ब्रजेश जी बताते हैं कि यह तो दान की संस्कृति के
बिलकुल विरुद्ध है. जब दान ही कर दिया तो उसके फल की आकांक्षा ही व्यर्थ है. यह
आकांक्षा मतदान के स्वर को भी बेसुरा बना देती है. यह तो ऐसा ही हुआ की हम गोदान
के बाद ग्राही से दूध की आशा रखें. है न अटूट तर्क!
ब्रजेश जी के पास
चमकदार व्यंग्य-मोतियों का अटूट खज़ाना है. राजनीति में इधर हवा बनाई गई कि ‘अच्छे
दिन आने वाले हैं.’ लेखक की शयन कक्ष में अवस्थित पूर्व दिशा
की खिड़की एक बार शायद रात को खुली रह गई. यकायक सुबह सुबह की पहली किरण और ताज़ी
हवा का झोंका आया तो उसकी नींद खुल गयी. उसे लगा, अच्छे दिन
की शुरूआत ऐसे ही होती है. यह बिस्तर से उठता है और अच्छे दिन की पहली दोपहर और
पहली शाम से रूबरू होने जुट गया. यह बताता है कि हर रात के बाद उसका पहला अच्छा
दिन हर रोज़ ही तो उसकी बाट जोहता है. बेचारे ‘आने वाले अच्छे
दिन’ के नारे की तो हवा ही निकल गयी.
एक बार ब्रजेश जी अपनी
गाढ़ी में प्रजातंत्र की सड़क पर बड़े आराम से कैलाश खेर के सूफियाना प्रेम गीतों के
रस में सराबोर होते हुए सफ़र का मज़ा ले रहे थे कि कमबख्त कुत्ते के एक पिल्ले ने
सारा मज़ा किरकिरा करके रख दिया. यह तो अच्छा हुआ सामने कुत्ते का पिल्ला ही आया.
बड़े शातिराना अंदाज़ में वे बताते हैं, ’खुदा न खास्ता कोई आदमी
का बच्चा आगया होता तो--- हम तो सलमान ही हो गए होते’.
कहावतें बनाने और गढ़ने
में व्यंग्यकार का मुकाबला नही. क्या पता ‘हम तो सलमान हो गए होते’
कभी रवायत में आकर कहावत ही बन जाए! कहावत का ऐसा है कि वे जाने
अनजाने बन ही जाती हैं. जिन कहावतों के बनने की काफी संभावना है बल्कि ब्रजेश जी
के अनुसार तो वे बन ही चुकी हैं, उनके कुछ नमूने वे प्रस्तुत
करते हैं – ‘राजा की निकलेगी बरात’, ‘दाढी
के पीछे क्या है’, या ‘गुस्से में नेता
कागज फाड़ता है’, इत्यादि. आज तो हम इन नई कहावतों का स्रोत
पहचान जाते हैं, लेकिन समय के साथ साथ इनका उद्गम धुंधलाने
लगेगा. ब्रजेश जी पूछते हैं, हो सके तो ज़रा पता लगाइए,
वह कौन सा ज़माना था जब राधा को सब्जी बघारने के लिए दो चम्मच तेल के
इंतज़ाम में हाथ पैर नहीं मारना पड़ते थे बल्कि नौ मन तेल के अभाव में वह
नाचने से इनकार कर दिया करती थी.
‘ऋणं
कृत्वा घृतं पिवेत’, संस्कृत की एक पुरातन कहावत है. ब्रजेश
जी इसकी व्याख्या कहते हुए कहते हैं, ‘कर्ज़, घी, और स्वास्थ्य के बीच बड़ा सीधा सा प्रमेय होता है
जिसे सिद्ध करने के लिए किसी पायथागोरस के पास जाने की आवश्यकता नहीं है. यह स्वयं
सिद्ध है. स्वास्थ्य वर्धन के लिए क़र्ज़ लेना लगभग अनिवार्य है. नागरिकों के
स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर सरकार योजनाएं बनाती हैं. ऋण प्रदान करती हैं.
योजनाओं के स्वास्थ्य के लिए भी पर्याप्त घी की व्यवस्था रखी जाती है ताकि योजनाएं
अच्छे से फल-फूल सकें. देश यही चाहता है की हर नागरिक क़र्ज़ लें और स्वस्थ रहें.’
और हम हैं कि क़र्ज़ के नाम पर खांमखा दुबले हुए जाते हैं.
आपने चिकित्सा की अनेक
विधाएं देखी होंगी. एलोपेथ, होम्योपैथ, एक्यूपंचर, स्पर्श, वाष्प, स्पर्श आदि.
लेकिन ब्रजेश जी एक बिलकुल नई थेरेपी का ज़िक्र करते हैं. इसे आप चाहें तो ‘सड़क-थेरेपी’ कह सकते हैं. वे कहते हैं, ‘मरीज़ पुराने कब्ज़ से परेशान हो, उसे शहर की (गड्ढों
भरी) विशिष्ठ सड़क पर पांच दिन नियमित स्कूटर यात्रा के लिए परामर्श दिया जाए,
छठे दिन वह स्वयं को हल्का महसूस करने लगेगा. किसी मरीज़ की प्रसूति
में विलम्ब हो रहा हो और शल्य क्रिया संभव न हो तो ऑटोरिक्शा से किसी दूरस्त
चिकित्सालय ले जाएं, सामान्य
प्रसूति सहल रूप से संपन्न कराई जा सकती है. कोई व्यक्ति बचपन से हकलाता हो,
बोलने में शब्द गले में ही अटक जाते हों, उसे
एक माह तक शहर की विशिष्ठ सड़क पर तेज़ गति से मोपेड चलाने का परामर्श दें, शब्द क्या चीत्कार निकालने लगेगी.’ और भी अनेक रोग
हैं जिनकी चिकित्सा के लिए यह सड़क थेरेपी मुफीद हो सकती है. बस ‘डाक्टर को थोड़ी सूझ बूझ’ से काम लेना होगा. शहर की
खस्ताहाल सडकों पर यह एक ज़बरदस्त कटाक्ष है.
ब्रजेश कानूनगो के पास
ऐसे ऐसे नुस्खे हैं कि बस पूछिए मत. वे ‘सदाचार का टीका’ लगाने की सलाह देते हैं, ‘योगासन के योग’ बताते हैं, ‘आने जाने की रीत’ समझाते
हैं ‘चिल्लर के आंसू’ पोंछते हैं,
मूर्खता पर गर्व करना सिखाते हैं, ‘झांकी
प्रबंधन’ के गुरु बताते है, ‘भ्रष्टाचार्य
को मान्यता’ दिलाने का अभियान छेड़ते हैं, और भी न जाने क्या क्या ! जाइएगा नहीं, सूत्रो के
हवाले से पता चला है वे दोबारा जल्दी ही आएँगे. **
समीक्षा- डॉ.सुरेन्द्र
वर्मा
10, एच
आई जी / 1, सर्कुलर रोड , इलाहाबाद –
211001