Saturday, October 5, 2013

भजन-कीर्तन नही हैं ये गीत

भजन-कीर्तन नही हैं ये गीत
ब्रजेश कानूनगो

बस में सफर कर रहा था। ड्रायवर ने पुराने गानों की ऑडियो सीडी चला रखी थी। साठ-सत्तर के दशक के फिल्मी गीत बज रहे थे। सोच रहा था ,कितनी मेहनत करते थे वे संगीतकार। कोई न कोई राग या लोक धुन या उसके समकक्ष की मधुरता बनी रहती थी। शब्दों के अर्थ और संगीत की लय के साथ,बन्द आँखों के बावजूद अभिनेताओं के हाव-भाव की अनुभूति हो रही थी। अचानक मेरे सहयात्री युवकों ने चिल्लाकर बस ड्रायवर से कहा-‘अरे यह क्या ‘भजन-कीर्तन’ लगा रखा है,कोई नई सीडी लगाओ।’

मैं हतप्रभ रह गया। इतने अच्छे मधुर और रोमांटिक गानों को युवक ‘भजन-कीर्तन’ की संज्ञा दे रहे थे। कुछ समय पहले के ही मुकेश,मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के लोकप्रिय गीतों को उन्होने भजन कहा। कम से कम यह संतोष की बात थी कि उन्होने  उन अमर गीतों को बकवास नही कहा। युवकों के चेहरों पर बोरियत के भाव थे तथा उन तथाकथित भजनों को वे सुनना नही चाहते थे। उन्ही गीतों के उटपटांग और आधुनिक संगीत साधनों के साथ बनाए रिमिक्सों और पनर्प्रस्तुतियों पर थिरकने से शायद ही उन्हे कोई आपत्ति होती हो।

आज भी मधुर संगीत आ रहा है,लेकिन कुछ तो है जो उन्हे भजन की संज्ञा नही दिलवाता। गीतों में कोई ताल अथवा लय ऐसी है,जो उनकी मधुरता और साठ-सत्तर के दशक की मधुरता से इन्हे अलग करती है। अपने बचपन में हम देखते थे कि अनेक भजन मंडलियाँ  मन्दिरों में अखंड भजन कीर्तन किया करती थीं।चौबीसों घंटे निबाध। सात-सात दिनों तक मंडलियों के भले ही पहरे(आवृत्ति) बदलते रहते थे,लेकिन कीर्तन सतत जारी रहता था। हम कहते थे भजन हो रहे हैं। बडा मजा आता था। ईश्वर की आराधना में गाए जाने वाले भजनों के अलावा अवतारों की लीलाओं,निगुण भजन,संसार-सार और आध्यात्मिक भजनों की श्रंखलाएँ चला करती थीं।  फिल्मी गीतों की भजन के रूप में पैरोडियाँ भी चलन में थीं। बहुत अच्छे भजन जब फिल्मों में आते थे तो उन्हे भी भजन नही कहा जाता था, फिल्मी गीत या भक्ति रचनाएँ ही कहा जाता था।

कुमार गन्धर्व का गायन हम बरसों साक्षात सुनते रहे हैं। कबीर,सूर,मीरा और मालवा में प्रचलित भजनों को उन्होने खूब गाया। वे भजन गाते तो हमें वे भजन ही नही लगते थे। उनकी सभा में हमें शास्त्रीय संगीत की महान ऊँचाइयों की स्वर साधना की अनुभूति होती थी। उनके गीतों (चाहे वे भजन ही क्यों न हों) से गुजरना हमारी स्मृति की धरोहर है। कानडकर बुआ(प्रसिद्ध मराठी कीर्तनकार) जब कथा समाप्ति के बाद भजन–कीर्तन करते थे तो सैकडों श्रोताओं के साथ भावनात्मक तादात्म्य स्थापित हो जाता था और सबकी आँखों से आँसू बहने लगते थे। वह होता था कीर्तन। लेकिन साथ-सत्तर के दशक के मधुर फिल्मी गीतों को भजन–कीर्तन कहना, कुछ और ही संकेत करता है।
ब्रजेश कानूनगो

503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इन्दौर-452018 

Tuesday, October 1, 2013

सदाचार का टीका

व्यंग्य
सदाचार का टीका
ब्रजेश कानूनगो

साधुरामजी उस दिन बडे परेशान लग रहे थे। कहने लगे ‘देश में यह हो क्या रहा है,जहाँ देखो वहाँ छिपा हुआ कालाधन निकल रहा है, चपरासी,बाबू से लेकर अधिकारियों और बाबाओं से लेकर नेताओं,व्यवसाइयों तक के यहाँ छापे पड रहे हैं और करोडों की राशि बरामद हो रही है। घोटालों के इस महान समय में नैतिकता ,ईमानदारी,सच्चाई,सदाचार,सज्जनता, शालीनता जैसे मूल्य पुराने और कालातीत होते जा रहे हैं, भ्रष्टाचार के  दानव ने मूल्यों को सड़ाकर उसकी सुरा बनाकर उदरस्थ कर ली है।’
‘लेकिन अब हम क्या कर सकते हैं इसके लिए ? हमारे पास कोई ऐसा नुस्खा तो नही है जिससे सबके अन्दर सदाचार के बीज बोए जा सकें।’ मैने कहा।  
‘मैने तो पहले ही चेताया था कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या के समय गिरी उनके खून की बून्दों से सनी मिट्टी की नीलामी रोक कर उसे हम प्राप्त कर लें, लेकिन हमारी सुनता कौन है।’ साधुरामजी बोले। ‘अभी भी समय है जब बापू के रक्त से सनी मिट्टी को वापिस प्राप्त करने की कोशिश की जाए। हमारे लिए वह बहुत उपयोगी हो सकती है।’
‘इससे क्या होगा?’ मैने जानना चाहा।
‘गाँधीजी के खून की इन अंतिम बूंदों का अध्ययन हमारे देश के हालात और चरित्र सुधारने में हमारी मदद कर सकता हैं।’ उन्होने कहा। ‘वह कैसे ?’ मैने जिज्ञासा व्यक्त की।     
‘वैज्ञानिक बापू के खून की बूंद का परीक्षण विश्लेषण करें और पता लगाएँ कि  उनके रक्त में ऐसे कौन से घटक और तत्व थे जिनके  कारण बापू में सच्चाई,ईमानदारी,जुझारूपन तथा दृढ़ता जैसे गुण हुआ करते थे। हिमोग्लोबिन की तरह ऐसा ही क्या  कोई त्व खून में मौजूद था जिसके  कारण अहिंसा और संघर्ष की भावना को विकसित करने वाले रसों और कोशिकाओं का निर्माण होता था। क्या बकरी के  दूध के  सेवन की वजह से उनके  क्त में ऐसे गुणकारी तत्वों का प्रादुर्भाव हुआ था जिससे उन्हे अंतिम आदमी के दुखों की चिन्ता लगी रहती थी। पदयात्राओं के  कारण कहीं उनके  क्त  में स्वदेशी और मानव प्रेम के सकारात्मक जीवाणुओं का विस्तार तो नही हुआ था।’ साधुरामजी किसी चिकित्सा विज्ञानी की तरह बोल रहे थे।
‘इस अध्ययन से क्या मदद मिलेगी समस्या के निदान के सन्दर्भ में?’ मैने उत्सुकता जताई।
‘बापू के रक्त के अध्ययन के निष्कर्षों के आधार पर  वैज्ञानिक ‘नैतिक’ मूल्यों के प्रत्यारोपण के लिए ‘सदाचार के टीके’ का निर्माण करें।’ साधुरामजी ने स्पष्ट किया।
साधुराम जी के सुझाव में मुझे दम दिखाई दिया। भविष्य में शायद वैज्ञानिक सचमुच ऐसा कर दिखाने के प्रयास में जुट जाएँ।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-18