Tuesday, July 31, 2012

विद्युत विहीनता का स्वागत करें


व्यंग्य
विद्युत विहीनता का स्वागत करें
ब्रजेश कानूनगो

मेरा मानना है कि अगर बाँसुरी की धुन कष्टकारी हो तो बाँस की फसल पर  कुल्हाडी चला दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ।
अब समय आ गया है जब बिजली के बंधनो से हमें मुक्त हो जाना चाहिए। इस मुक्ति में ही हमारा कल्याण निहित है। सच तो यह है कि  बगैर बिजली के हम ज्यादा प्राकृतिक हो सकेंगे और अनेक समस्याओं से सहज ही छुटकारा प्राप्त कर लेंगे । सच तो यह है कि अब हमें विद्युत विहीनता की दिशा में कदम बढाने चाहिए।

बिजली नही होने से पानी की टंकी नही भरी जा सकेगी । नल श्रीहीन हो जाएँगे । सूने पनघट फिर आबाद होंगे । घट्टी पीसकर और पनघट यात्रा से महिलाएँ अपने शरीर को स्लिम और आकर्षक बनाने में सफल होंगी । हेल्थ क्लबों और ब्यूटी पार्लरों पर ताले लग जाएँगे । खेतों में मोटरों की घर्र-घर्र की बजाए रेहट का कर्णप्रिय संगीत गूँज उठेगा । किसान का बेटा मस्त होकर गा उठेगा - ' सुनके रेहट की आवाजें यूँ लगे कहीं शहनाई बजे '
विद्युत विहीनता पर्यावरण के हित में होगी । मशीनीकरण  समाप्त होगा । ध्वनि  एवं वायु प्रदूषण से हमें मुक्ति मिल जाएगी । हस्तकला को प्रोत्साहन मिलेगा । बेरोजगारी की राष्ट्रीय समस्या में कमी आएगी । महात्मा गाँधी,जयप्रकाश नारायण और लोहियाजी के सपने साकार होंगे । जुलाहे,बुनकर,चर्मकार,काष्टकार तथा सदियों से पिछडी जातियों और वास्तविक बुनियादी उद्यमियों को रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे । वे ऊपर उठ सकेंगे। अंत्योदय होगा ।

इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि अधिकांश महापुरुष चिमनी अथवा लालटेन की  रोशनी में पढकर ही विद्वता की पराकाष्ठा तक पहुँचे थे । निश्चित ही चिमनी, मोमबत्ती या लालटेन के प्रकाश में वह गुण है जो किसी सामान्य व्यक्ति को प्रतिभावान बनाता है ।

जिस तरह स्वस्थ शरीर के लिए हमें प्रकृति के साथ चलना चाहिए इसी तरह प्राकृतिक स्थितियाँ हमारे मन को निर्मल,पवित्र बनाकर ईश्वर के करीब पहुंचाती हैं। बिजली के बल्बों की कृत्रिम  रोशनी के मोह को त्याग कर हृदय मे आस्था की ज्योत जलाना चाहिए। भीतर के  दिव्यप्रकाश के आगे सरकार की यह दो टकिया दी रोशनी कहाँ लगती है। सुख,समृद्धि और शांति का अनमोल खजाना पाने के लिए विद्युतविहीनता का पुरातन,सनातन और स्वयम्‌ सिद्ध मार्ग ही हमें सत्य के समीप पहुंचा सकता है।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इन्दौर-18 

Sunday, July 22, 2012

नाग-नागिन और सिनेमा


नाग-नागिन और सिनेमा
ब्रजेश कानूनगो

नाग देवता पर लोगों के विश्वास और आस्था का लाभ लेकर देश के फिल्म निर्माता भी अपनी रोटियाँ बहुतायत से सेकते रहे हैं। अभी जब हम स्मृतियों के सागर में जबरन उतरने को बाध्य किए जा रहे हैं तब वह समय भी याद कीजिए जब राजेश खन्ना का रोमांटिकवाद खत्म हुआ था और अमिताभ के गुस्सा युग की शुरुआत होने लगी थी तभी एका-एक फिल्म संसार की निर्माण भेडें बारास्ता स्टंट और फैंटेसी की कंटीली झाडियों को चरती हुई दर्शकों की समझ को भी चबा गईं। एक के बाद एक  ऐसी फिल्में रुपहले परदे पर छाने लगीं जो नाग देवता, इच्छाधारी साँपों, सपेरों के आतंक, अमरीशपुरियाना ओझाओं की खतरनाक झाड-फूंक के इर्द-गिर्द नाग नागिनों के प्यार-इकरार की बीन बजाते हुए अपने कथानक का पिटारा खोलने लगीं।  ये फिल्में आज भी बडी लोकप्रिय बनी हुईं हैं। फिल्म देखते वक्त और उसके बाद भी यह डर बना ही रहता है कि सामने आने वाला व्यक्ति कोई इच्छाधारी नाग या नागिन तो नही है। नाग नागिनों और सपेरों व तंत्र मंत्र का देश होने के हमारे गौरव को बनाए रखने का महत्वपूर्ण कार्य नागवादी फिल्मों ने बडी सफलता के साथ किया है।

अब समय आ गया है जब इन फिल्मों की सफलता और दर्शकों की भारी रुचि को देखते हुए निर्माता नाग-नागिनों पर आधारित कथानकों पर सार्थक सिनेमा भी बनाने की शुरुआत कर दें। रैंगनेवाला यह जीव शायद उतना नागपना नही रखता जितना साँपत्व हमारे समाज में व्याप्त है। कैसे एक सामान्य भोला-भाला संपोला भारी निराशा ,बेरोजगारी, अन्याय से जूझता हुआ अंत में खतरनाक नाग में बदलकर फुंफकारने लगता है। कैसे एक सुकोमल नन्ही प्यारी नागकन्या अपने को नागसमाज की नजरों से  सुरक्षित बनाए रखने के लिए संघर्ष करने को अभिशप्त है। नागतंत्र के सिंहासन तक पहुँचने के लिए  महात्वाकांक्षी और घुटे हुओं नेताओं के षडयंत्र और कुटिलताओं की कहानियाँ ऐसी फिल्मों के कथानक मे सहजता से पिरोई जा सकती हैं। विवेकशील और जागरुक निर्देशक फिल्म के युवा नाग नायक को जातिवाद, भ्रष्टाचार, पर्यावरण संरक्षण ,कालेधन आदि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर आवाज उठाते दिखाकर दर्शकों का दिल जीत सकता है। नायक की हर फुँफकार पर दर्शकों की तालियों का शोर सिनेमा हॉल को गुंजा देगा।
सिनेमा में नाग-नागिन के प्यार मोहब्बत, बीन और सपेरों  के साथ-साथ यदि अपने भाव प्रवण और सशक्त अभिनय से कोई नायक इच्छाधारी नाग के रूप में समाज में व्याप्त विसंगतियों पर चोंट करता है तो इसमें क्या बुराई हो सकती है। माध्यम की सार्थकता इसी में है कि लोकरंजन और लोककल्याण का मुख्य उद्देश्य कायम रहे। नागकथाओं के सतही मनोरंजन से ऊपर उठकर यदि भारतीय फिल्मों  में कोई ‘सार्थक नाग सिनेमा’ आन्दोलित होता है तो निश्चित ही विश्व सिनेमा मे उसकी चर्चा होगी। समारोहों में भारतीय पेनोरमा की धूम रहेगी और पुरस्कार हमारी झोली में होंगे।
हम तो बस सलाह ही दे सकते हैं अंतत: मर्जी तो इच्छाधारी निर्माताओं की ही चलेगी।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इन्दौर-18 

Monday, July 9, 2012

मजे के साथ








मजे के साथ
ब्रजेश कानूनगो

बहुत इच्छा रहती है
जब चाहे छुटि्‌टयाँ मनाने की
मजे के साथ

कांपते हैं जब सूरज के हाथ पाँव
कुहरे को भेदता हुआ
ठंडी हवा के साथ आता है मजा

धूप के साथ गिरता है मजा पीठ पर सर्दियों में

निकलता हूँ मजे के साथ
शुरू होता है जब बूंदों का संगीत
पहुँच जाता हूँ वहाँ
खत्म हो जाते हैं जहाँ कांकरीट के पहाड़
गुलांट खाने के लिए बिछी होती है
हरी मखमली जाजम

फैंकता हूँ जब साधकर पत्थर
कत्तल के साथ उछलता है मजा सतह पर
कूद पड़ती है किनारे की बत्तखें घबराकर
एक के बाद एक पानी में

तैरने लगता है मजा तालाब में
कमल पंखों को गुदगुदाते हुए


बैठ जाता है उड़कर
बिजूके के माथे पर यकायक
हरी हो जाती हैं मजे की आँखें
पकी हुई बालियों की गंध
समा जाती है उसकी देह में


बरसती आग के बीच
आम की छाया में पड़ी खटिया पर
मेरे साथ सुनता है
बड़े मामा से कारनामें


उड़ जाता है न जाने कहाँ
गुलाबी अनंत में चिड़ियों के साथ
छुप जाता है किसी बछड़े की तरह
घर लौटते रेवड़ में

उड़ती हुई धूल के बीच
दिखाई देती है मजे की झलक

बहुत इच्छा रहती है
मजे के साथ छुट्‌टी बिताने की
की-बोर्ड और कम्प्यूटर पर ताला लगाकर
बहुत इच्छा रहती है मजा करने की।

ब्रजेश कानूनगो                                                                                                                                                                         503 ,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18