फटे कपड़ों से तन ढांके गुजरता है जहाँ कोई,समझ लेना वो डगर अदम के गाँव जाती है
ब्रजेश कानूनगो
जन कवि अदम गोंडवी को याद करना एक मायने में उस आवाज को याद करने
जैसा है जिसके शब्दों में देश के गरीबों ,मजदूरों ,किसानों और आम लोगों
की पीड़ा और उनके कष्टों की गूँज सुनाई देती थी.
वे ऐसे कवि और शायर थे जिनके चले जाने के बाद उस हिन्दुस्तानी जबान
का प्रतिनिधित्व करने वाला एक ऐसा साहित्यकार चला गया है जो समाज के सबसे निचले
पायदान पर खड़े मुश्किलजदा आदमी के संघर्षों की भाषा रही है. कविता की इस भाषा में
तो जैसे उनके बाद बहुत बड़ा शून्य सा महसूस होता है.
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से
कि अब मर्क़ज़ में रोटी है,मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से
अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से
बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से.
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से
कि अब मर्क़ज़ में रोटी है,मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से
अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से
बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से.
जिंदगी और मौत के बीच अनेक मुश्किलों का सामना और संघर्ष करते हुए
हमारे दौर का यह महान जनकवि गत १८ दिसंबर २०११ को अपनी गजलों और कविताओं की पूंजी
हमारे लिए छोडकर चला गया. अदम के जाने के बाद उस अलहदा काव्य परम्परा पर भी प्रश्न
चिन्ह लगता दिखाई देता है जो दुष्यंत कुमार के बाद रामनाथसिंह याने अदम गोंडवी ने आगे बढ़ाई थी.
काजू भुने प्लेट में,व्हिस्की गिलास में ,राम राज
उतरा है आज विधायक निवास में .
जनता के पास एक ही चारा है बगावत, यह बात कह रहा
हूँ मै होशो हवास में.
अदमजी की समूची शख्शियत अनकी कविता के नायक के जीवन की तरह थी.
सादा सा कुर्ता ,मटमैली सी धोती और गले में मफलर ,उन्हें देखकर लगता जैसे कोई किसान सीधे अपने खेतों से चला आ रहा हो. जैसे
भीतर वैसे ही बाहर,एक दम रफ टफ से. वे असली धरती पुत्र थे ,लेकिन उनकी आवाज देश की आवाज बन गई थी.शायरी की गूँज देश की सीमा लांघकर
पूरी दुनिया के कानों तक अपनी तरंगे पहुंचाने में कामयाब हो रही थीं. तमाम शोहरत
के बावजूद वे इसका कोई निजी लाभ लेने का मानस कभी नहीं बना पाए. अपने गाँव ,अपनी मिट्टी ,अपने लोगों के मोह से सदा वे बंधे रहे,यही कारण रहा कि कभी वे समझौ़ता परस्ती के शिकार नहीं हुए. शायद यही बात
थी जो उन्हें ताकत देती थी और वे बेबाक,दोटूक और सीधे सीधे
अपनी खरी-खरी शायरी में अभिव्यक्त कर पाते थे.
वो जिसके हाथ में छाले हैं,पैरों में बिवाई है,उसी के दम
से रौनक आपके बंगले में आई है.
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का ,उधर लाखों में गांधीजी के चेलों की कमाई है.
वे इस जमाने के कबीर थे. फक्कड मिजाज अदम अपनी
कविताओं में भी खुरदरे दिखाई देते थे.कबीर की तरह वे अनपढ भले ही नहीं थे लेकिन
उनकी प्राइमरी तक की पढाई को आज के संदर्भों में पढ़े-लिखे के पैमाने पर भला कैसे फिट बैठाया
जासकता है. उनकी शायरी में आज की स्थितियों और चालाकियों पर जो टिप्पणियाँ दिखाई
देतीं हैं उनसे उनका व्यापक वैचारिक द्रष्टिकोण और विचारधारा स्पष्ट होती है.
मतभेदों और साम्प्रदायिक विचारों को छोडकर अदम गरीबी के खिलाफ मिलजुलकर लड़ाई लड़ने का आह्वान करते
हैं.
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये .
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये .
अदम गोंडवी की कविता में आलोचकों को कविता के व्यंजना धर्म का
अनुशासन दिखाई नहीं दिया लेकिन उन्होने इस बात की कभी चिंता नहीं पाली. उनकी अभिधा ,व्यंजना
पर भारी पडती है.सीधे-सीधे उनकी शायरी धधकते अंगारों की तरह आक्रमण करती है. किसी
तरह के मुगालते या संकोच का वे अवसर नहीं देते बल्कि जो कुछ कहना होता है सीधे शब्दों में सुना देते
हैं. एक नजर ज़रा इस कविता पर भी डालें-
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखेंगे ,
अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे.
महज तनख्वाह में निबटेंगे ,क्या नखरे लुगाई के,
हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के
मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं,
पिछली बाढ के तोहफे हैं ये कंगन कलाई के.
अंत में एक नजर ज़रा इस कविता पर भी डालें-
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की ?
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की ?
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की
धीमी आंच पर विचारों का परिपाक तैयार करके गरमागरम परोसने वाले इस
कवि की शायरी का विद्रोही तेवर अब हमें दिखाई नहीं दे सकेगा. व्यवस्था फिलहाल भले
ही थोड़ी राहत महसूस करे लेकिन कोई आश्चर्य नहीं होगा जब अदम गोंडवी की
कविता की गूँज प्रतिरोध के नए सुरों का आधार बनकर कविता का कोई नया और सार्थक राग बन
जाए.
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल
रिजेंसी,चमेली पार्क ,कनाडिया रोड,इंदौर-18
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