Tuesday, January 31, 2012

संवेदनहीनता की ठिठुरन


व्यंग्य
संवेदनहीनता की ठिठुरन
ब्रजेश कानूनगो

एक  झांकी ने उस शहर के चेहरे से ऐसा पानी उतारा कि हर संवेदनशील बाशिंदा चुल्लूभर पानी की तलाश में छुपता छुपाता शर्म से पानी पानी हुए जा रहा है. वैसे भी  पानी के मामले में वह  शहर दूसरे शहरों की ओर याचक दृष्टि से हमेशा से देखता रहा है. लेकिन इस देखा-देखी के बावजूद यह दिन भी देखना पडेगा, ऐसा तो कभी सोंचा ही नहीं था.
राष्ट्रीय महत्त्व के आयोजन जिनमे जिले के वरिष्ट अधिकारी,मंत्री और समाज के महत्वपूर्ण लोग मौजूद हों,तब कौन नहीं चाहेगा कि कुछ ऐसा किया जाए कि उन  सबकी निगाह में आ जाएँ और अपनी  झांकी जम जाए. झांकी जमाने की तमन्ना में कोई  झाँकीबाज गणतंत्र दिवस पर नगरनिगम की ऐसी झांकी जमाकर अंतर्ध्यान हो गए कि  अब जिले का सारा अमला हलकान हुए जा रहा है. हुआ यूं है कि बूँद-बूद पानी को तरसते देवास में गत गणतंत्र दिवस पर नगर निगम ने अपनी उपलब्धियों के प्रदर्शन की आकांक्षा से एक झाँकी बनाई .उस दिन लोगों को पर्याप्त पानी मिला या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन झाँकी में लगाए गए नल से पूरे जोश के साथ पानी की मोटी धारा बह रही थी. पानी का इस तरह दिखाई देना बहुत राहत का सन्देश दे रहा था,बल्कि यह और भी संतोषजनक तब हो गया जब लोगों ने एक छोटे से बच्चे को नंग-धडंग नल के नीचे स्नान का लुत्फ़ (?) उठाते देखा. बताते है उस दिन नगर का वातावरण शीतलहर के कारण बेहद  सुहावना हो गया था और कार्यक्रम में आनेवाले  वीआयपियों को सूट और कश्मीर-लद्दाख से लाई  गई शालों,पुलोवरों को धारण करने का अवसर भी मिल गया था. कुछ मेडमों ने तो इस अवसर पर झांकियों पर ध्यान देने की बजाए स्वेटरों और शालों की डिजाइन और उनकी गुणवत्ता पर चर्चा करके कार्यक्रम की बोझिलता से अपने को बचाए रखने में सफलता भी प्राप्त कर ली.
सब कुछ ठीक ही रहता यदि नल के नीचे नहाता बालक थोड़ी सी ठण्ड सहन कर लेता. ज़रा सी देर की तो बात थी यूं भी कहाँ वह गरम पानी से नहाता होगा. नहाता भी होगा या नहीं कौन जाने .अच्छे अच्छों  को पानी नहीं मिल रहा  शहर में, तो वह कौन सा राजा भोज रहा होगा. बहरहाल किसी को यह शानदार नजारा खल गया और उसने आपत्ति का दुशाला थरथराते नन्हे बदन पर डाल दिया.
बहुत पिछड़े  परिवार के मामूली सी कोठरी में रहनेवाले बालक सनी ने मासूमियत से बताया कि एक अंकल ने  झाँकी में नहाने से पहले उसे पांच रूपए दिए थे और एक समोसा भी खिलाया था. गरीबों के लिए सोंचने वाले बिरले ही मिलते हैं. अंकल को क्या पता था कि . गणतंत्र दिवस के अवसर पर किसी गरीब की मदद करना और जलसंकट से जूझते शहर में उसके लिए नहाने का इंतजाम करा देने पर इतना हो-हल्ला हो जाएगा.
यह भी एक संयोग ही है कि जहाँ हट्ठा-कट्ठा एक सनी (सनी देओल) पैसों के लिए अभिनय करते हुए हेडपंप उखाड फेंकता है वहीं  एक मासूम और कमजोर सनी को पैसे देकर अभिनय करने के लिए लालायित करा लिया जाता है.  यह अलग बात है कि बाद में वह कहता है कि झाँकी में नल के नीचे नहाते वक्त उसे 'भोत ठण्ड लग रही थी.' अब तो उसका बुखार भी उतर गया है,सर्दी खांसी भी ठीक हो गई है. लेकिन हमारे शहर का जो पानी उतर गया है उसका क्या होगा?  
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी ,चमेली पार्क ,कनाडिया रोड,इंदौर18  

Monday, January 30, 2012

घुलती पृथ्वी


लघुकथा
घुलती पृथ्वी
ब्रजेश कानूनगो


बहूमूल्य रत्नों के व्यापारी ने अपनी बिटिया के विवाह के उपलक्ष्य में भव्य आशीर्वाद समारोह का आयोजन किया था । ऐसा लग रहा था, रत्नों की सारी चमक पांडाल में उतर आई हो।

तथाकथित बडे लोग पांडाल  के अंदर अपने भरे हुए पेटों को और भरने की असफल कोशिश कर रहे थे। बाहर कुछ छोटे लोग भव्य समारोह के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे।

इन बडे और छोटे लोगों से अलग बैठा छीतू यह समझ पाने में असमर्थ था कि बडे लोगों के  आयोजन पर ये छोटे लोग नारे क्यों  लगा रहे हैं। क्या  मिलेगा उन्हे ऐसा करके , क्यों  नहीं वे नारे लगाना छोडकर पांडाल के पीछे चले आते ? कम से कम आज तो उन्हें ऐसा लजीज खाना मिल जाएगा,जिसका स्वाद कई हफ़्तों तक जुबान पर बना रहेगा।

तभी एक व्यक्ति  पांडाल के  पिछवाडे आया और बाल्टी भर खाना वहाँ उँढेल गया । इससे पहले कि छीतू के पास बैठा कुत्ता भोजन पर झपटता उसने फैंके  गए भोजन से लड्‌डू उठाकर तुरंत मुँह में रख लिया।

छीतू को लगा जैसे उसनें लड्‌डू नहीं बल्कि पूरी पृथ्वी को अंपने मुँह में कैद  कर लिया हो और दुनिया भर की मिठास उसके  हलक से नीचे उतरती जा रही हो।

पांडाल के सामने  नारे बदस्तूर जारी थे। अंदर टेबलों पर पकवानों की नई प्लेटें सजाई जा रही थी। लेकिन छीतू के मुँह में कैद  पृथ्वी अब तक पूरी तरह घुल चुकी थी।

ब्रजेश कानूनगो
503 ,गोयल रिजेंसी ,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-18
मो.न.09893944294   

Wednesday, January 25, 2012

इस गणराज्य में आजादी

कविता
इस गणराज्य में आजादी 


एक

कितना सहज है कि
वे और मैं अब अलग नहीं लगते

वे सुझा रहे हैं कि क्या  होना चाहिए मेरा भोजन
मैं वही देखता हूँ
जिसे कहा जा रहा है कि यही सुन्दर और वास्तविक है

मैं नाच रहा हूँ ,गा रहा हूँ उसी तरह
जैसे झूम रहे हैं साहूकार
बोल रहा हूँ सौदागरों की भाषा
बेचा जा सकता है हर कुछ जिसकी मदद से

मुझे पता नहीं है कि
कहाँ लगा है मेरा धन
और कितनी पूँजी लगी है परदेसियों की
मेरा घर सजाने में

मेरा शायद हो मेरा
जो समझता था उनका
लगता ही नही कि अपना नहीं था कभी

उनके निर्देशों के अनुरूप चलती हैं मेरी सरकारें
नियम और कानून ऐसे लगते हैं
जैसे हमने ही बनाए हैं अभी

पराधीनता का कोई भाव ही दिखाई नहीं देता गणराज्य में
तो कैसे जानूँ आजादी का अर्थ

दो
 
बर्गर और पिज्जा बेचने वाली
नईबहुराष्ट्रीय दुकान का विज्ञापन देखकर
उछल पडता है बच्चा
जैसे मिल गई आजादी
दुनिया भर के  भोजन को चबा डालने की

अभिव्यक्ति की आजादी का  मतलब है
दो वक्त की रोटी से मंहंगी कलम से
कर्ज के  दस्तावेज और पुरस्कार के चेकों पर
दस्तखतों का फिसलना

सबसे आगे रहने के  लिए
बाधाओं को छलांगते हुए दौड जाने की आजादी मिलती है
थकान और पसीने से बचानेवाले
बहुमूल्य जूतों के चयन के बाद

आजादी के लिए उपवास की बात
अब किताबों से हटा दी गर्ईं हैं
गर्व से ऊपर उठता है मस्तक
सनसनाते पेय के  हलक से उतरते ही

उत्साह और उमंग के  बाजारी जश्न में
बेडियों के  विस्तार को मिल गई है आजादी


ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,
कनाडिया रोड,इंदौर-18 

Saturday, January 14, 2012

मेरा मुहल्ला


कविता  
मेरा मुहल्ला
ब्रजेश कानूनगो

कहाँ गया मेरा मुहल्ला
जो मै छोड़ गया था बीस बरस पहले यहीं कहीं

नहीं दिखाई दे रहा वह नुक्कड़ का हलवाई
रस से भरी मिठाइयाँ दूर दूर तक जाती थी जिसकी
चिढ़ती-झल्लाती जगत बुआजी
जिसके बरामदे में होली पर गंदगी फैंक आया करते थे हुड़दंगी
अंगूठा छाप टेलर मास्टर जिन्हे मैंने
चंद्रकांता संतति पढ़कर सुनाई थी रोज-रोज
अख्तरख़ान जिसे देखकर हम गली में छुप जाते थे इस डर से
कि कहीं वह हमारी किताबें न छीन ले

वह काला और मरियल सा नन्हा शायर
जो मधुर आवाज में गाया करता था फिल्मी गाने
क्रिकेट की गेंद जब्त कर लेने वाली कठोर महिला
जो पहले तो डांटती थी
फिर उढ़ेल देती थी स्नेह का पूरा समुद्र
न जाने कहाँ चले गए हैं सब

वह इमली का पेड़ जो दादी की कहानियों के प्रेत की तरह
हमारी पतंग को पकड़ लिया करता था अक्सर
वह टूटा पुराना ध्वस्त मकान भी दिखाई नही दे रहा
जिसकी सड़ी हुई लकड़ियाँ होली में जलाते रहने से
हमारा चंदा बच जाया करता था-सिनेमा देखने के लिए

शायद यही है मेरा मुहल्ला लेकिन
उग आया है एक बाजार हमारी गेंद पट्‌टी पर
होली के वृक्ष की स्थापना चिंता की बात हो गई है
टेलर की दुकान में खुल गई है एक नई दुकान
जो अंग्रेजी माध्यम में सिखा रही है त्यौहार मनाना

गर्म जलेबियों की खुशबू नही बिखरती अब नुक्कड पर
नई जमीन के नक्शे पर
सपने बेच रहा है हलवाई का बेटा

धराशायी मकान की भस्म पर खड़ी हो गई है ऊँची इमारत
जिसकी ओट में छिप गया है नीला कैनवास
पतंग के रंगों से बनते थे जिस पर स्मृतियों के अल्हड़ चित्र

वैसा ही हो गया है मेरा मुहल्ला
जैसे कोई कहे-कितना अलग है तुम्हारा छोटा बेटा ।


ब्रजेश कानूनगो                                                                                                                                                                         ५०३,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-१८