Saturday, May 28, 2011

जनता का मन जीतना जरूरी जैतापुर में




जनता का मन जीतना जरूरी जैतापुर में

ब्रजेश कानूनगो

विडम्बना है कि जिस वक्त पूरा संसार भयावह चेर्नोबिल परमाणु हादसे की 25 वीं बरसी पर शोक मनाते हुए ईश्वर से घटना की पुनरावृत्ति न होने की कामना कर रहा था उसी वक्त भारत सरकार घोषणा कर रही थी कि जैतापुर परियोजना रुकेगी नही। सरकार ने आश्वासन दिया कि परियोजना का हरेक रिएक्टर स्वतंत्र रूप से सुरक्षित होगा तथा परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम में पूरी पारदर्शिता रखी जाएगी,इसके लिए संसद में स्वायत्त परमाणु नियमन प्राधिकरण बनाने हेतु एक विधेयक भी लाया जाएगा।
महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के जैतापुर में प्रस्तावित यह संयत्र दुनिया के सबसे बड़े संयंत्रों मे से एक होगा तथा परमाणु विघटन और विकिरण से यहाँ न सिर्फ़ स्थानीय लोगों पर खतरा मंडरा रहा है बल्कि एक बड़े दायरे में आने वाले जनजीवन एवं पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़गा। जिससे बचा जाना बहुत संदिग्ध दिखाई दे रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ता एवं वैज्ञानिक डॉ़ विवेक मोंटेरो का कहना है कि जापान के फुकुशिमा के हादसे से सबक लेकर भारत सरकार को अपनी परमाणु ऊर्जा नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। आरोप तो यहाँ तक है कि वैश्विक परमाणु सप्लायरों के दबावों के तहत सरकार जैतापुर परियोजना पर अंड़ी हुई है। महाराष्ट्र सरकार भले ही केन्द्र को आश्वस्त कर रही हो कि स्थानीय नागरिकों के संदेह को दूर करके उन्हे मना लिया जाएगा किंतु परमाणु संयंत्रों की स्थापना के समय तक तो यह ठीक लगता है परंतु भविष्य में होनेवाले हादसों और मनुष्यों पर उनके  प्रभाव नहीँ पड्ने की गारंटी लेने के लिए शायद ही कोई तैयार दिखता हो। 1945 के हिरोशिमा-नागासाकी तथा 1986 के चेर्नोबिल हादसे के बाद जापान और यूक्रेन (सोवियतसंघ) सरकारों ने भविष्य के  लिए सावधानी और सुरक्षा उपाय अवश्य सोंचे होंगे लेकिन फुकुशिमा फिर हमारे सामने है। फुकुशिमा से फैले  विकिरण से पूरी दुनिया सकते में आ गई है। एक बार फिर विकिरण के प्रभाव के कारण बरसों तक नारकीय जीवन की भयानक आशंका से लोगों की साँसें थम गर्ईं हैं। जापान के हालात देखते हुए अनेक देशों ने अपने परमाणु कार्यक्रम स्थगित कर दिए हैं।
परमाणु प्रोजेक्टोँ से प्रभावित लोगों के कल्याण एवं शांति के लिए कार्य करनेवाले संगठन के  क्रिय कार्यकर्ता अनिल चौधरी तो बिजली उत्पादन के लिए परमाणु परियोजना की आवश्यकता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। विकिरण के खतरों के साथ-साथ योजना की लागत और उसकी वैज्ञानिकता पर भी सोंचें तो जैतापुर मे प्रोजेक्ट  लाना नितांत अविवेकपूर्ण कहा जाना चाहिए । बिजली संयंत्र में टर्बाईन चलाने हेतु केव 600 युनिट ऊष्मा की जरूरत होती है किंतु परमाणु विघटन से लगभग 20000 से अधिक युनिट ऊर्जा पैदा होती है। 600 युनिट के  स्तर तक वापिस लाने के लिए शीतलीकरण हेतु कई गैलन पानी की वश्यकता पड़ती है। अमूल्य पानी की ऐसी बरबादी क्या उचित होगी जबकि टर्बाईन चलाने हेतु आवश्यक 600 युनिट ऊष्मा के लिए अन्य कई विकल्प सहज उपलब्ध हैं। संयंत्र की स्थापना में जितना खर्च आता है उससे कई गुना अधिक विपरीत परिस्थितियों मे उसके समापन, उससे मुक्त होने मेँ होता है। क्या उस स्थिति की आवश्यकताओं के लिए अपनी क्षमताओं पर सरकार ने पूरी तरह विचार कर लिया है? चेर्नोबिल के समय वहां इतनी तैयारी और साधन थे कि एक एटमबम से निकलने वाले विकिरण से सौ गुना ज्यादा प्रभावी प्रकोप से लड़ पाए। लेकिन हम इस संदर्भ में पूरी तरह अभी आश्वस्त नही हो सकते।
आणविक प्रदूषण अन्य प्रदूषणों से बहुत अलग है। धूल,धुँआ ,कचरा आदि दिखाई देते हैं,इनके प्रभाव के लक्षण हमें महसूस होते हैं लेकिन परमाणु विकिरण निराकार है इसे महसूस नहीं किया जा सकता।यह प्रवेश करता है और युगों तक बना रहता है।मानव जींस में पहुँचकर आनुवँशिक रोगों के रूप में परिवर्तित हो कर अनेक पी़ढियों की त्रासदी बन जाता है। लगभग अमरता का वरदान प्राप्त परमाणु कचरा अपने ही निर्माता को नष्ट करने पर उतारू हो जाता है। मनुष्य और उसके जीवन से परमाणु कचरा अपने ही निर्माता को नष्ट करने पर उतारू हो जाता है। मनुष्य और उसके जीवन से जुड़ी हरेक वस्तु को विकिरण प्रभावित करके मुश्किलें पैदा कर देता है। कचरे का प्रबंधन इतना कठिन होता है कि स्टील के कनटेनरों में बंद कर सीमेंटीकरण करके जमीन में गाड़ देने के बावजूद विकिरण होना जारी रहता है। रिपोर्टों के अनुसार चेर्नोबिल में32 लोगों की मौत हादसे के  समय हुई थी लेकिन 6 लाख लोग रेडिएशन के  शिकार हुए थे।  4 हजार लोग कैसर जैसी घातक बीमारियों से ग्रस्त होकर असमय दुनिया छोड़ गए।
हम सहज सोच सकते हैं कि हमारे पास इस भस्मासुर से मुक्ति के कितने कारगर साधन और हिम्मत है। भोपाल के यूनियन कार्बाइड परिसर में फैले घातक रासायनिक कचरे को हटाने की सुस्पष्ट योजना हम अभी तक बना नहीं पाए हैं। घटना के इतने वर्षों बाद भी हाईकोर्ट सरकार से स्पष्टीकरण के लिए निर्देशित करने को बाध्य हो रही है।
जैतापुर में परमाणु परियोजना को लेकर अब समर्थन और विरोध की राजनीति के स्वर भी सुनाई देने लगें हैं। सच तो यह है कि परियोजना के लिए जनता का मन जीतना जरूरी होगा। कहीं खोट दिखाई देती है तो मन तो टूटेगा ही।जरा ध्यान रहे इस बात का।

ब्रजेश कानूनगो
503,
गोयल रिजेंसी ,चमेली पार्क
कनाडिया रोड ,इंदौर-18

Sunday, May 1, 2011

विसंगतियों से उड जाती है उनकी नींद




विसंगतियों से उड जाती है उनकी नींद

ब्रजेश कानूनगो

मोहल्ले के उस सूने मकान में बरसों बाद मैंने रोशनी देखी तो थोडी जिज्ञासा हुई। दस बरस पहले मेरे मित्र साधुरामजी वहाँ रहा करते थे। देश- विदेश,समाज-संस्कृति और व्यवस्था की विसंगतियों को लेकर अक्सर हम चर्चा करते थे। कभी सहमत होते तो कभी असहमत लेकिन हमारी दोस्ती मे कभी कोई दूरी नही आई। प्रतिभा पलायन की पिछली बाढ में जब उनका बेटा बह गया तो मजबूरन साधुरामजी को भी अमेरिका जाना पडा।
पहले अक्सर साधुरामजी सुबह-सुबह अखबार हाथ में थामें किसी खबर से उत्तेजित मेरे घर चले आते थे लेकिन अबकी बार बरसों बाद उनके घर रोशनी देखकर मै ही वहाँ पहुँचा।मुझे देखते ही वे उठ खडे हुए और मुस्कुराते हुए गले लगा लिया। वे वही साधुरामजी थे,चेहरे की चमक जरूर थोडी कम हो गई थी बाकी सब पहले जैसा ही था।
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क्या बात है साधुरामजी अंमेरिका रास नही आया,लौट आये।' मैने बातचीत को आगे बढाने की गरज से पूछ लिया।
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सोचा तो था बेटे के पास रहूँगा, अमेरिका को जानूँगा समझूँगा समय निकल जायेगा और बेटे बहू को भी मेरा विश्वास रहेगा।लेकिन यह मेरा भ्रम ही था। यहाँ अपने देश और अपने लोगों की बात ही वुत्र्छ और है, मैं लौट आया।' वे बोले। मैने उनके चेहरे की चमक में आई कमी का राज जान लिया था।
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लेकिन साधुरामजी आप अपने देश और शहर में भले ही लौट आए हैं लेकिन आपके आने के पहले ही अमेरिका यहाँ आ चुका है। दस सालों मे वही सब यहाँ है जो वहाँ है।' मैने कहा।
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तुम भौतिक और आर्थिक पक्ष की बात कर रहे हो,मै मानवीय और भावनात्मक संदर्भों मे कह रहा हूँ कि हमारे यहाँ अभी भी मूल्यों का महत्व बचा हुआ है।' वे बोले।
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साधुरामजी,आप आज ही लौटे हैं,वहाँ अमेरिका के मीडिया में भारत की खबरें य-कदा ही देखने -पढने को मिलती होंगी,अब जब आप यहाँ के अखबार पढेंगें तब आपको पता चलेगा।'मैंने कहा।
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हाँ,मैने अंखबार वाले को बोल दिया है,काफी नए अखबार आ गये हैं अब तो। बडा बदलाव आया है अपने शहर मे।अच्छा लगता है देखकर। आते हुए देख रहा था,बडे सुन्दर चौराहे बने हैं। सडकेँ  भी चौडी हो गर्ईं हैं।' वे बोले।
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हाँ, इसी रास्ते और चौराहों से गुजरकर ही तो आ रहा है अमेरिका। प्लास्टिक के पेड लगे हैं,शापिंगमॉल बने हैं,मल्टिप्लेक्स सिनेमा शुरू हुए हैं। ' मैंने उनकी जानकारी में वृद्धि करते हुए कहा। ' तुम नही बदले अभी तक,अपने मतलब से बात को घुमा देते हो। मै भौतिक बदलाव की बात नही कर रहा,मानसिक परिवर्तन की बात कर रहा हूँ। विकास देखकर मन को शान्ति मिलती है।' साधुरामजी बोले।
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मै भी वही बात कर रहा हूँ,इस विकास के बाद लोगों की मानसिकता में ही परिवर्तन आया है। छोटे दुकानदार, ठेलागाडी चलाकर अपनी रोजी कमानेवालों गरीबों की आमदनी में कमी आई है। दिन भर पसीना बहाकर दो पैसे कमानेवालों की बजाए लोग शापिंग मॉलों से सामान खरीद लाते हैं।' मैं थोडा उत्तेजित हो गया।
साधुरामजी ने पानी का गिलास मेरी और बढा दिया,बोले-'अंरे बैठो तो सही, इत्मिनान से बातें करेंगें-यह बताओ और क्या समाचार हैं इधर के '
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समाचार क्या हैं साधुरामजी, जिन मानवीय मूल्यों की आप बात करते हैं,अब उन्हीं पर विश्वास नहीं होता।पतन ऐसा हुआ है कि बेटी अब्बा का कत्ल करने को मजबूर है। सास नई नवेली बहू के टुकडे कर डालती है। छुटभैये गुंडे पुलिस थानों का घेराव कर लेते हैं।चौराहे पर स्कूल  बस में आग लगा दी जाती है,लेकिन हम लोग किसी सच्चे नेता और सही आन्दोलन की प्रतिक्षा करते रह जाते हैं।' मैने सौफे  पर बैठते हुए कहा।
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हाँ, सुना है मैने । यहाँ वेत्र् नेताओं ने तो बस अंपने जन्मदिन मनवाने और बडे बडे होर्डिंग लगवाने को ही आंदोलन समझ रखा है।' साधुरामजी ने अंपनी आँखों को थोडा सा फैलाते हुए कहा।
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नहीं ऐसा नही है,राजनीति का भी यह एक प्रकार से आधुनिकीकरण है। अब नेतागण बेचारे अपने क्षेत्रों मे कब तक घूमेंगे और नागरिको से मिलेंगे।समय की बचत की दृष्टि से चौराहों पर तस्वीरें टाँगकर ज्यादा से ज्यादा लोगों की नजरों में बने रहने का प्रयास करना क्या कम है।' मैने समझाने की कोशिश की।
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और नही तो क्या ,ईश्वर भी तो केलेंडरोँ और चित्रों के जरिए लोगों के दिलों में बसतें हैं।   'अबकी बार साधुरामजी की चुटकी से मैं भौचक्क रह गया। सामान्यतः वे नेताओं का मजाक नहीं बनाते।
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क्या बात कही साधुरामजी आपनें।' मैने उनके हाथ पर हाथ मारते हुए कहा।'चलिए अब आप आ ही गये हैं,मैं भी वैचारिक बहस को तरस गया था। मित्र तो बहुत हैं लेकिन सबको राष्ट्र और अपने विकास की इतनी हडबडी है कि विचार कोई नहीं करना चाहता।स्वार्थपूर्ति के लिए लक्ष्य बनते हैं और काम आगे बढ जाता है। चाहे दफ्तरों में कम्प्यूटरीकरण की बात हो या शहर के विकास का मास्टर प्लान,सभी जगह हडकंप  मचा हुआ है। मोबाइल घनघना रहे हैं लेकिन मन की बात कोई नही सुनता। ' मैंने अंपनी निराशा व्यवस्र्त की और घर लौट आया।
मुझे मालूम था साधुरामजी रातभर सो नहीं पाए होंगे। मुझे खुशी है कि वे लौट आए हैं। ऐसे लोगों की हमें अभी बहुत जरूरत है,बेहूदगियों और विसंगतियों को देखकर जिनकी नींद उड जाती हो।


ब्रजेश कानूनगो