हिन्दी व्यंग्य और कुछ टिप्पणियाँ
ब्रजेश कानूनगो
1.हिंदी गद्य की अन्य विधाओं के बीच
व्यंग्य की उपस्थिति और उपलब्धि
इस प्रश्न के उत्तर में दो तरह से
विचार किया जा सकता है।
पहला- हिंदी गद्य की अन्य विधाओं के बीच व्यंग्य विधा की स्थिति।
पहला- हिंदी गद्य की अन्य विधाओं के बीच व्यंग्य विधा की स्थिति।
दूसरा- हिंदी गद्य विधाओं के बीच
व्यंग्य की स्थिति।या अन्य विधाओं में व्यंग्य की स्थिति।
पहले नजरिये से अन्य गद्य विधाओं के
बीच व्यंग्य विधा की स्थिति अभी भी उतनी सम्मानजनक नहीं दिखाई देती जितनी कि कहानी,उपन्यास,कविता या नाटक इत्यादि की है।उपन्यासकार और कथाकारों
को थोड़ा ऊंचा दर्जा प्राप्त, हिंदी
साहित्य में दिखाई देता है।जहां तक कविता और कवियों की बात करें तो वहां भी आलोचक
की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है।कवि को प्रतिष्ठित कर देने का काम बहुत हद
तक कोई आलोचक बहुत कुशलता से करने में समर्थ दिखाई देता है।जबकि व्यंग्य विधा का
तो अभी तक कोई संतोषजनक सौंदर्य शास्त्र या आलोचना कर्म उपलब्ध ही नहीं है।इस
मायने में व्यंग्य विधा की स्थिति अभी बहुत बेहतर नहीं कही जा सकती। इसी कारण
व्यंग्य विधा के प्रमुख नामों में से भी अधिकाँश उनके उपन्यासों और कहानियों की
वजह से जाने जाते हैं।
इसी तारतम्य में दूसरे नजरिये पर भी सहज ही बात स्पष्ट हो जाती है।
अन्यविधाओं में जैसे ही व्यंग्य सायास- अनायास चला आता है तब मुख्य विधा की महत्ता,रोचकता और प्रभाव भी बढ़ जाता है।विशेष तौर से उपन्यासों को ही देखलें।बहुत से उपन्यास तो अपने भीतर इतने बेहतर तरीके से व्यंग्य का निर्वाह करते हैं कि इन्हें 'व्यंग्य उपन्यास' कहने में कोई हिचक नहीं होती। मेरा मानना है कि अन्य विधाओं के बीच व्यंग्य की उस्थिति तब बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।
व्यंग्य कविताओं में मैं यदि लोकप्रिय मंचों पर पढ़ी जाने वाली ठहाका कविताओं को छोड़कर बात करूं तो ऐसी ज्यादातर समकालीन सार्थक कवितायें जो विसंगतियों के खिलाफ और जनोन्मुखी उद्देश्यों को लेकर लिखी जाती रहीं हैं,उनमें व्यंजना,कटाक्ष और व्यंग्य अंतर्धारा की तरह प्रवाहित होता ही है।व्यंग्य की उपस्थिति उन कविताओं को बहुत महत्वपूर्ण और सम्मानजनक बना देती हैं।
केवल अखबारी कॉलोमों में निश्चित शब्द सीमा में प्रकाशित होने वाले तथाकथित व्यंग्यों पर अभी कतई आश्वस्ती से कहा जा सकता कि वहां व्यंग्य बेहतर स्थिति में है।मैं उन्हें किसी व्यंग्य का मात्र एक 'बीज' भर स्वीकार कर उस लेखन को व्यंग्यकार का रियाज या अभ्यास ही कहूंगा,वह रचनाकार की फाइनल प्रस्तुति कम ही होती है।
व्यंग्य में जो उपलब्धि और अब तक जो
हासिल है वह निसंदेह व्यंग्य लेखकों के उपन्यास,कहानियां और प्रहसन ही हैं जो उँगलियों पर गिने
जा सकते हैं। परसाई जी, शरद
जोशी जी जैसे कुछ ही स्तंभकार हैं जिन्होंने इन विधाओं के साथ शानदार कॉलम और
निबंध लेखन किया और व्यंग्य को प्रतिष्ठा दिलवाई।ज्ञान चतुर्वेदी इसी कार्य को आगे
बढ़ाते रहे हैं।
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2.नये समय के नये सवालों का सामना करते
हुए व्यंग्य का हस्तक्षेप
यह केवल व्यंग्य में ही विचारणीय नहीं
है,बल्कि हरेक विधा में विमर्श के योग्य बिंदु है।
सार्थक लेखन की तो यह अनिवार्यता ही होना चाहिए की वह अपने समय के सवालों, चुनौतियों के सन्दर्भों को साथ लेकर चले।
व्यंग्य में तो यह और भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।जिस दौर में टेक्नोलॉजी का
विकास हो गया हो, स्त्रियों की आर्थिक और सामाजिक
स्थितियों में बदलाव आया हो।कोई व्यंग्यकार पत्नी द्वारा बेलन से पति की खोपडिया
तोड़ डालने जैसे विषयों पर कलम घिस रहा हो, उसे कैसे मान्यता दी जानी चाहिए।यह एक मात्र
उदाहरण है,ऐसे कई प्रसंग और विषय दिख जाते हैं जो
व्यंग्य को बहुत पीछे ढकेल देने का काम करते हैं।
भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद समाज
में कई बदलाव हुए है। पाखण्ड,धूर्तताओं
,चालाकियां और सांस्कृतिक प्रदूषण के आगमन के
साथ समाज का नैतिक अवमूल्यन हुआ है। बाजारवाद ने
हरेक वस्तु को बिकाऊ, यहां तक कि देह,आत्मा और मूल्यों तक की बोलियां लग जाने को
अभिशप्त किया है।
परिवारों में रिश्तों की मधुरता और
सम्मान के साथ छोटे-बड़ों के बीच का कोमल और संवेदन सूत्र टूटने लगा है। घर के
बुजुर्ग हाशिये पर हैं।
दुनिया को जीत लेने की किसी शहंशाह की
ख्वाहिश की तरह राजनीति के नायक-महानायक किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखाई देते
हैं। सत्ता सुख की खातिर अपने पितृ दलों को डूबते जहाज की तरह कभी भी त्याग देने
में नेताओं,प्रतिनिधियों को कोई परहेज नहीं होता।
असहमति किसी भी स्तर पर स्वीकार्य नहीं। आश्वासन और विश्वास जुमलों की तरह
इस्तेमाल हो रहे हों।
हिंदीभाषा और देवनागरी लिपि को नष्ट भ्रष्ट करने में उन्ही संस्थानों और अखबारों की मुख्य भूमिका दिखाई देती है जिन पर उनके संरक्षण की उम्मीद लगी रही हो।
नए समय के बहुत से नए सवाल हैं,जिन पर गंभीरता से व्यंग्य लिखे जाना चाहिए। यह
समय रम्य रचनाओं और संपादकीय टिप्पणियों से कुछ आगे की अपेक्षा व्यंग्यकारों से
करता है।
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3 अतिप्रकाशन से रचनात्मक व्यंग्य को लाभ
या हानि
इस बिंदु के भी दो विस्तार हो सकते
हैं।
पहला- किसी एक रचनाकार का अति प्रकाशन।
पहला- किसी एक रचनाकार का अति प्रकाशन।
दूसरा- किसी पत्र-पत्रिका में व्यंग्य
रचनाओं का अति प्रकाशन।
किसी एक व्यंग्यकार के अति प्रकाशन से
जोड़कर देखें तो यह रचनाकार की गंभीरता और समझ पर निर्भर करता है। अति प्रकाशन के
हर कदम पर उसे अपने लेखन को संवारने और खुद के व्यंग्यकार को विकसित और बेहतर
बनाने का अवसर देता है।यदि वह आगे बढ़ता है तो व्यंग्य में भी नए प्रयोग करेगा।
भाषा में शैली में कुछ नया देगा।इस क्रम में व्यंग्य विधा को लाभ ही होता है।
लेकिन जब अति प्रकाशन बस नियमित सामग्री उपलब्ध कराने भर से है तो फिर वहां किसी ख़ास लाभ की उम्मीद नहीं की जा सकती।
दूसरी ओर पत्र पत्रिकाओं में निश्चित
ही व्यंग्य के सीमित लेकिन सार्थक प्रकाशन में ही विधा का लाभ निहित है। हाँ, केवल व्यंग्य को समर्पित पत्रिकाएं विधा पर
नियमित विमर्श से लाभकारी सिद्ध होती रही हैं। इसमें व्यंग्य का प्रकाशन कभी भी
सीमा में नहीं बांधा जा सकता।
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4.बहुतेरी बहसों गोष्ठियों वक्तव्यों यात्राओं
से व्यंग्य में गुणात्मक वृद्धि
मेरा मानना है कि व्यंग्य के विकास और
विधा के अस्तित्व और नए रचनाकाओं के प्रोत्साहन के लिए गोष्ठियों,वक्तव्यों का आयोजन होते रहना चाहिए।इनसे यदि
एक दो रचनाकारों में भी यदि गुणातमक परिवर्तन हो जाता है तो वह विधा के हित में
है।
यात्राओं में समानधर्मा व्यक्तियों को
एक दिशा में सोचने विचारने का लगातार अवसर मिलता है,इसे सकारात्मक बिंदुओं पर केंद्रित रखा जाए तो
लाभ हो न हो, विधा के लिए कोई नुक्सान भी सम्भव नहीं
है।
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5.समकालीन व्यंग्य में राजनीतिक व सामाजिक विवेक
दरअसल हर कथन एक राजनीतिक स्टेटमेंट होता है। चुनावी राजनीति से इस बात की तस्दीक कृपया न करें। 'पार्टनर तेरी पॉलिटिक्स क्या है? यह एक जरूरी प्रश्न है।रचनाकार की अन्ततः एक दृष्टि और पक्षधरता का होना उसके लेखन को एक पहचान देता है। इसके साथ साथ उसका सामाजिक विवेक भी चलता है।वस्तुतः यही विवेक रचनाकार की पक्षधरता और राजनीतिक दृष्टि का निर्धारक भी होता है।
व्यंग्य लेखन में भाषा और शैली में चुटकियां,विट, हास्य,आदि भले ही चलते रहें, विषयवस्तु के निर्वाह में रचनाकार का सामाजिक विवेक और उसकी राजनीतिक चेतना जाहिर हो ही जाती है। परसाई जी ,शरद जोशी से लेकर आज के हमारे वरिष्ठ व्यंग्यकारों की रचनाओं को पढ़ने के बाद उनके सामाजिक सरोकार और पक्षधरता को आसानी से समझा जा सकता है।
अपने समय की विसंगतियों पर रचनाकारों को व्यंग्य लिखने में यही चेतना बहुत मदद करती है और रचना को श्रेष्ठ बना देती है। राजनीतिक दृष्टि से सम्पन्न और सामाजिक विवेक से दिशा प्राप्त करने वाला लेखक सचमुच महत्वपूर्ण व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठा अर्जित कर लेता है।
दुःख इस बात का है कि समकालीन व्यंग्य लेखन में कुछ को छोड़कर ऐसे व्यंग्यकारों की संख्या बहुत कम नजर आती है जो अपनी रचनाओं में चेतना संपन्न दिखाई देते हों।
6.युवा व्यंग्यकारों की सक्रियता और सार्थकता
वर्तमान समय युवा व्यंग्यकारों के लिए किसी स्वर्णकाल से कम नहीं है। तमाम पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य लेखन के लिए भरपूर अवसर उपलब्ध हैं।
इतने नए लेखक व्यंग्य क्षेत्र में सक्रिय हैं जितने कभी नहीं रहे। विषयों की कोई कमी नहीं है।तात्कालिक सन्दर्भों पर रोचक आलेखों की भारी मांग है। लिखने वाले भी कम नहीं है। सक्रियता का पैमाना तो इतना व्यापक है कि कई बार एक ही तात्कालिक विषय पर अनेक लेख संपादक के पास एक साथ पहुँच जाते हैं।मुसीबत खड़ी हो जाती है उसके सामने कौनसी रचना ,किसकी रचना का उपयोग करे।
जिस अनुपात में युवा रचनाकारों की सक्रियता दिखती है उतनी व्यंग्य की गुणवत्ता में अपेक्षित सार्थकता महसूस नहीं की जा सकती। एक ही लेख कई-कई अखबारों में प्रकाशन के बावजूद ऐसा लगता ही नहीं कि दोबारा पढ़ा जा रहा है। क्योंकि उनमें कोई एक बात भी या एक पञ्च या व्यंग्योक्ति ऐसी नहीं होती कि उसे याद रखा जा सके।अविस्मरणीय हो जाए। लेकिन यह भी सच है कि इसी के चलते कुछ प्रतिभावान व्यंग्य लेखक निकल कर आ रहे हैं,जो बहुत आश्वस्त करते हैं।
जिन पर नाज किया जा सकता है।
7.व्यंग्य में आलोचना की स्थिति
जो व्यंग्य लिख रहा है वही उसकी समालोचना बल्कि यो कहें मात्र पुस्तक समीक्षा कर रहा है।व्यंग्य के सौंदर्य शास्त्र या आलोचना के सन्दर्भ में अभी गंभीर प्रयास होना बाकी है।
डॉ प्रेम जनमेजय,श्री सुभाष चन्दर, आदि ने कुछ प्रयास जरूर किये लेकिन उतना पर्याप्त नहीं माना जा सकता। समकालीन व्यंग्य लेखन में गंभीरता से सक्रीय और चर्चित व्यंग्यकार,संपादक श्री सुशील सिद्धार्थ जरूर इस दिशा में संकल्पित हुए हैं।कुछ योजनाएं भी उन्होंने बनाई है। उम्मीद है यदि सभी से अपेक्षित सहयोग मिल पाया तो अब तेजी से आलोचना और व्यंग्य के सौंदर्य शास्त्र के लिए काम जमीन पर दिखाई दे सके।
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8.वर्तमान व्यंग्य की भाषा में व्यंजना और सपाटबयानी
भाषा के बगैर हम किसी भी विधा में कैसी भी रचना की कल्पना नहीं कर सकते। और जब भाषा के लिए विचार करते हैं तो'शब्द शक्तियों' की बात भी सहज है।
अभिधा,लक्षणा और व्यंजना ,ये तीन ऐसी शब्द शक्तियां हैं जिनमे हम अपने कथन को व्यक्त करते हैं। कोई भी संप्रेषण साधारणतः अभिधा के अंतर्गत होता है,सामान्य सूचनात्मक लेख, रिपोर्टिंग आदि जिनमें सीधे से विषयवस्तु अभिव्यक्त होती है, किंतु जब साहित्य की किसी विधा में रचना आती है तब अभिधा के अलावा,लक्षणा और व्यंजना शक्ति का विवेकपूर्ण उपयोग उसे प्रभावी बनाता है, गुणवत्ता में बेहतरी लाता है।
शब्द शक्तियों का उपयोग रचना को दुरूह बनाकर उसमें बाधक नहीं बनता बल्कि उसे थोड़ा अधिक स्वीकार्य और रचना में कलात्मकता पैदा करता है। शरीर को सीधे सीधे व्यायाम के लिए हिलाने डुलाने से भी एक्सरसाइज तो होती है,मगर यदि संगीत के साथ एरोबिक्स अथवा योगाभ्यास किया जाए तो वह कुछ अधिक स्वीकार्य और अधिक करने के लिए इच्छा जाग्रत करने वाला हो जाता है।
व्यंग्य में लक्षणा और व्यंजना यही काम करते हैं। जिनके अभाव में कोई भी रचना 'सपाट बयानी' से आरोपित की जा सकती है। व्यंग्य तो वहां भी होगा मगर व्यंग्य का श्रृंगार और ख़ूबसूरती नहीं दिखाई देगी। व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियां व्यंग्य रचना की ताकत कही जा सकती है।
इन शक्तियों के कारण रचना की पठनीयता भी बढ़ जाती है और आगे पढ़ने को लालायित करती है।
सपाट बयानी में भी अंतर्निहित व्यंग्य हो सकता है लेकिन यह कौशल बिरलों के बस की बात होती है।
कुछ समकालीन व्यंग्य लेखों में विशेषतः कॉलम लेखन में प्रायः केवल रोचक प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी या थोड़ी सी चुटकी के साथ व्यंग्यकार विवरण अथवा विषयवस्तु का इतिहास बताता हुआ मार्गदर्शक बन बैठता है।
इसे गंभीर व्यंग्य लेखन मानने में मुझे अभी संकोच ही होता है।इन्हें भले हो खूब लोकप्रियता प्राप्त हो जाती हो लेकिन व्यंग्य तो कदापि नहीं लगते।
इसके बावजूद बहुत से युवा रचनाकार कोशिश जरूर करते हैं कि उनके आलेख में व्यंजन हो, व्यंग्य की उपस्थिति हो और वे पाठकों को उद्वेलित कर सकें।
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9.व्यंग्य से अपेक्षाएं...........
मेरे मत से तो व्यंग्य का उद्देश्य ही विसंगतियों,विडंबनाओं पर प्रहार के साथ ,समाज की बेहतरी के लिए संकेत करना होता है।
बाकी इस हेतु के लिए उसके अलग प्रारूप और शैलियां विकसित की जा सकती है। जिसमें यह भी कि पाठक थोड़ा सा मुस्कुराए, दुःख में विह्वल भी हो जाए, करुणा का संचार हो या खिलखिला पड़े। अन्याय और असत्य के प्रति लड़ने के लिए वातावरण और मानस तैयार कर सके। इतनी अपेक्षा तो व्यंग्य से होनी ही चाहिए।
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ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड,
इंदौर- 452018